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ख़ाली हाथ मज़दूर के

संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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जिंदगी की खातिर (मजदूर दिवस विशेष)…..

बकेट एलेव्हेटर की,
चेन चलती रहती है
बिलकुल उसकी तरह,
वह भी सुबह निकल
पड़ता है ख़ाली जेब,
कुछ कमाने के लिए।

बकेट एक तरफ से,
ख़ाली जाकर
दूसरी ओर से,
बड़ी मेहनत के बाद
भरकर आती है,
और उँडेल देती है
सारा भरा हुआ,
समेटा हुआ सामान
एक हापर में जहां से,
यांत्रिकी हाथों से
ज़रूरत के पैकेटों में,
भर दिया जाता है।

वह भी दिनभर,
मेहनत करके अपनी
ख़ाली जेब में कुछ,
कमाई भरकर आता है
और उँडेल देता है,
सूनी आँखों वाले
ख़ाली हाथों में,
हर एक की ज़रूरत के
मुताबिक़ बाँटा जाता है,
जिससे वह हर ज़रूरत को
पूरी करने की कोशिश में,
जूझती रहती है
जुटाती रहती है,
हर जुगाड़ से जुगाड़
किसी यंत्र की तरह,
चलती रहती है।

एक मज़दूर की मेहनत,
बाँट देती है हर किसी की
ज़रूरत के मुताबिक़,
दूसरी सुबह फिर से
ख़ाली हाथ रह जाती है,
बिलकुल उस हापर की तरह…
राह जोतती रहती है शाम तक,
शायद फिर से उस मज़दूर की
भरी हुई जेब की,
बकेट ईलेव्हेटर की
बकेट की तरह…।
जो फिर से उँडेल दे,
दिनभर की मेहनत,
उसके सूनी आँखों वाले
खाली हाथों में…॥

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