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ग़ज़ल को पढ़ने-सुनने के साथ बहर का अभ्यास अत्यंत आवश्यक

पटना (बिहार)।

ग़ज़ल सीखने के लिए मेहनत करने के लिए भी तैयार रहना ज़रूरी है। ग़ज़ल एक अत्यंत अनुशासित विधा है। मेहनत माँगती है और जो इसको स्वीकार कर लेता है, ग़ज़ल उसे भी स्वीकार कर लेती है। कहने से पहले ग़ज़ल को पढ़ने और सुनने के साथ साथ रदीफ़, क़ाफ़िया और बहर का अभ्यास अत्यंत आवश्यक है। बदलते वक़्त के साथ ग़ज़ल की कहन बदल रही है और ख़ुशी की बात है कि लोग इसमें दिलचस्पी दिखा रहे हैं।
यह बात कवि-कथाकार सिद्धेश्वर के संयोजन में आयोजित आभासी ग़ज़ल कार्यशाला में ग़ज़लकार सुभाष पाठक ‘ज़िया’ (मप्र) ने ग़ज़ल की बुनियादी बातों पर चर्चा करते हुए कही। उन्होंने ग़ज़ल के ढाँचे को समझाते हुए रदीफ़, क़ाफ़िया और मात्रा भार की जानकारी आसान उदाहरण के साथ दी।
अवसर साहित्य पाठशाला के इस अंक में संयोजक सिद्धेश्वर ने संचालन के क्रम में २ ग़ज़लों का उदाहरण देते हुए कहा कि, मुशायरे में उर्दू ग़ज़ल के प्रचलन के बाद आज कवि सम्मेलनों में हिंदी ग़ज़ल की बाढ़ आ गई है। उन्होंने कहा कि, हर दौर में खुद को संभालती, संवारती आई ग़ज़ल में समय, माहौल के मुताबिक कई बदलाव हुए हैं। कभी महबूब की बातें करने वाली ग़ज़ल वक्त के साथ इतनी बदल चुकी है कि, आज वह न सिर्फ सियासत की बात करती है, बल्कि समाज के हर पहलू को शब्दों में पिरो कर पेश करने में दक्ष नजर आती है। इसे क्या कहें खिलवाड़ ? दरअसल, ग़ज़ल की लोकप्रियता आज इस बात पर ज्यादा निर्भर है कि, इसे किस अंदाज में पेश किया जा रहा है।

भारतीय युवा साहित्यकार परिषद की उपाध्यक्ष राज प्रिया रानी के अनुसार सपना चंद्रा, पुष्प रंजन, योगराज प्रभाकर, माधुरी जैन व डॉ. गोरख प्रसाद मस्ताना आदि ने भी चर्चा में भाग लिया!

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