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गौरव की प्रतीक मातृभाषाओं को विकसित करना प्राथमिकता हो

ललित गर्ग

दिल्ली
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‘विश्व मातृभाषा दिवस’ (२१ फरवरी) विशेष…

‘यूनेस्को’ द्वारा हर वर्ष २१ फरवरी को ‘विश्व मातृभाषा दिवस’ मनाया जाता है। इसको मनाने का उद्देश्य है विश्व में भाषाई एवं सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा देना। मातृभाषा के माध्यम से इंसानों को आपस में जोड़ना एवं सौहार्द स्थापित करना। आज २५० मिलियन बच्चे और युवा अभी भी शाला नहीं जाते हैं और ७६३ मिलियन वयस्क बुनियादी साक्षरता कौशल में निपुण नहीं हैं। विश्व के विभिन्न क्षेत्रों की विविध संस्कृतियों एवं बौद्धिक विरासत की रक्षा करना तथा मातृभाषाओं का संरक्षण करना एवं उन्हें बढ़ावा देना इस दिवस का उद्देश्य है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार हर २ सप्ताह में १ भाषा विलुप्त हो जाती है और विश्व एक पूरी सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत खो देता है।
जन्म लेने के बाद मानव जो प्रथम भाषा सीखता है, उसे उसकी ‘मातृभाषा’ कहते हैं, वही व्यक्ति की सामाजिक एवं भाषाई पहचान होती है। मातृभाषा एक ऐसी भाषा होती है, जिसे सीखने के लिए किसी कक्षा की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन मानव समाज में कई दफा मानवाधिकारों के हनन के साथ-साथ मातृभाषा के उपयोग को गलत भी बताया जाता रहा है। ऐसी ही स्थिति २१ फरवरी १९५२ को बांग्लादेश में पैदा हुई थी, जब १९४७ में भारत के विभाजन के बाद पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में ‘ऊर्दू’ को राष्ट्रीय भाषा घोषित कर दिया था, लेकिन इस क्षेत्र में बांग्ला और बंगाली बोलने वालों की अधिकता ज्यादा थी एवं जब अन्य भाषाओं को पूर्वी पाकिस्तान में अमान्य घोषित किया गया, तो ढाका विवि के छात्रों ने आंदोलन छेड़ दिया। आंदोलन को रोकने के लिए पुलिस ने छात्रों और प्रदर्शनकारियों पर गोलियाँ चलानी शुरु कर दी, जिसमें कई छात्रों की मौत हो गई। अपनी मातृभाषा के हक में लड़ते हुए मारे गए शहीदों की ही याद में उक्त दिवस मनाया जाता है।
आज विश्व में ऐसी कई भाषाएं और बोलियाँ हैं, जिनका संरक्षण आवश्यक है। लोकभाषाओं की चिंता इसलिए जरूरी है कि, ये हमारी विरासत का एक भाग हैं और हमारी थाती हैं और इनमें जो भी कुछ सुंदर और श्रेष्ठ रचा जा रहा है, उसे सहेजकर रखा जाना चाहिए। यूनेस्को के अनुसार “भाषा केवल संपर्क, शिक्षा या विकास का माध्यम न होकर व्यक्ति की विशिष्ट पहचान है, उसकी संस्कृति, परम्परा एवं इतिहास का कोष है।”
अगर हम भारत की बात करें तो यहाँ हर कुछ कदम पर हमें बोलियाँ बदलती नजर आएंगी। ८५ संस्थाओं और विश्वविद्यालयों के ३ हजार विशेषज्ञों के अध्ययन के अनुसार पिछले ५० वर्षों के दौरान ७८० विभिन्न बोलियों वाले देश की २५० भाषाएँ लुप्त हो चुकी हैं। इनमें से २२ अधिसूचित भाषाएं हैं। जनसंख्या के आँकड़ों के अनुसार १० हजार से अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली १२२ भाषाएं हैं। बाकी १० हजार से कम लोगों द्वारा बोली जाती है।
आयरिश भाषाई विद्वान जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के बाद पहली बार १८९८-१९२८ के बीच भाषाई सर्वे (आजाद भारत में पहली बार किया) में ४ वर्ष लगे। इस रिपोर्ट के अनुसार भाषाई विविधता की दृष्टि से भारत में अरुणाचल प्रदेश सबसे समृद्ध राज्य है, वहाँ ९० से अधिक भाषाएँ बोली जाती है। इसके बाद महाराष्ट्र और गुजरात का स्थान है, जहाँ ५० से अधिक भाषाएँ बोली जाती है। ४७ भाषाओं के साथ ओडिशा चौथे स्थान पर है। इसके विपरीत गोवा में सिर्फ ३ भाषाएं बोली जाती हैं तो दादर और नगर हवेली में एक भाषा ‘गोरपा’ है, जिसका अब तक कोई रिकार्ड नहीं है।
भारत में यह दिवस विशेष रूप से उन जनजातिय क्षेत्रों को प्रभावित कर रहा है, जहाँ बच्चे उन विद्यालयों में सीखने के लिए संघर्ष करते हैं, जिनमें उनको मातृभाषा में निर्देश नहीं दिया जाता है। ओडिशा में केवल ६ जनजातिय भाषाओं में १ लिखित लिपि है, जिससे बहुत से लोग साहित्य और शैक्षिक सामग्री तक पहुँच से वंचित हैं। सरकार ने ‘भाषा संगम’ कार्यक्रम शुरू किया है, जो छात्रों को अपनी मातृभाषा सहित विभिन्न भाषाओं को सीखने और समझने के लिए प्रोत्साहित करता है।
सरकार ने केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान भी स्थापित किया है, जो भारतीय भाषाओं के अनुसंधान और विकास हेतु समर्पित है। मातृभाषाओं की रक्षा हेतु कई राज्य-स्तरीय पहलें भी हैं।
करीब ४०० से अधिक भाषाएं आदिवासी और घुमंतू व गैर-अधिसूचित जनजातियाँ बोलती हैं। यदि भारत में ‘हिंदी’ बोलने वालों की तादाद लगभग ४० करोड़ है तो सिक्किम में ‘माझी’ बोलने वालों की तादाद सिर्फ ४ है। पूर्वात्तर के ५ राज्यों में बोली जाने वाली करीब १३० भाषाओं का अस्तित्व खतरे में हैं। असम की ५५, मेघालय की ३१, मणिपुर की २८, नागालैंड की १७ और त्रिपुरा की १० भाषाएं खतरे में हैं। हाल ही में भारत के अंडमान निकोबार द्वीप समूह की तकरीबन हजारों साल से बोली जाने वाली एक आदिवासी भाषा ‘बो‘ हमेशा के लिए विलुप्त हो गई । भारत में मातृभाषाओं को प्रोत्साहन देने के लिए नरेन्द्र मोदी सरकार प्रयासरत है। उन्होंने उच्च शिक्षा के स्तर पर भी बहुभाषिकता को ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-२०२०’ में स्वीकार किया है।
भारतीय वैज्ञानिक सी.वी. श्रीनाथ शास्त्री के अनुभव के अनुसार “अंग्रेजी माध्यम से अभियांत्रिकी की शिक्षा प्राप्त करने वाले की तुलना में भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़े छात्र अधिक उत्तम वैज्ञानिक अनुसंधान करते हैं।”
महात्मा गाँधी ने कहा था- “विदेशी माध्यम ने बच्चों की तंत्रिकाओं पर भार डाला है, उन्हें रट्टू बनाया है, वह सृजन के लायक नहीं रहे। विदेशी भाषा ने देशी भाषाओं के विकास को बाधित किया है।” इसी संदर्भ में भारत के पूर्व राष्ट्रपति एवं वैज्ञानिक डॉ. अब्दुल कलाम के शब्दों का उल्लेख आवश्यक हो जाता है कि, “मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बना, क्योंकि मैंने गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की।”
सशक्त भारत-निर्माण एवं प्रभावी शिक्षा के लिए मातृभाषा में शिक्षा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है।

भारत महाशक्ति बनने के अपने सपने को साकार कर सकता है। इस महान उद्देश्य को पाने की दिशा में विज्ञान, तकनीक और अकादमिक क्षेत्रों में नवाचार और अनुसंधान करने के अभियान को तीव्रता प्रदान करने के साथ मातृभाषा में शिक्षण को प्राथमिकता देना होगा। मातृभाषा जब शिक्षा का माध्यम बनेगी, तो मौलिकता समाज में रचनात्मकता का अभियान छेड़ेगी। भाषा और गणित को नई नीति में प्राथमिकता मिलना बच्चों में लेखन के कौशल और नवाचार का संचार करेगा। सृजनात्मक गतिविधियों का वातावरण पैदा करेगा। मातृभाषा सम्पूर्ण देश में सांस्कृतिक और भावात्मक एकता स्थापित करने का प्रमुख साधन है। भारत का परिपक्व लोकतंत्र, प्राचीन सभ्यता, समृद्ध संस्कृति तथा अनूठा संविधान विश्वभर में एक उच्च स्थान रखता है, उसी तरह भारत की गरिमा एवं गौरव की प्रतीक मातृ भाषाओं को हर कीमत पर विकसित करना हमारी प्राथमिकता होनी ही चाहिए।