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तारकेश्वर:गरीबों का अमरनाथ

तारकेश कुमार ओझा
खड़गपुर(प. बंगाल )

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पांच,दस,पंद्रह या इससे भी ज्यादा…। हर साल श्रावण मास की शुरूआत के साथ ही मेरे जेहन में यह सवाल सहजता से कौंधने लगता है। संख्या का सवाल श्रावण में कंधे पर कावड़ लेकर अब तक की गई मेरी तारकेश्वर की पैदल यात्रा को लेकर होता है। आज भी शिव भक्तों को कावड़ लेकर तारकेश्वर की ओर जाता देख रोमांच से भर कर मैं उन्हें हसरत भरी नजरों से देर तक उसी तरह देखता रहता हूँ,मानो गुजरे जमाने का कोई फुटबॉल खिलाड़ी नए लड़कों को फुटबॉल खेलता देख रहा हो। पहले श्रावण शुरू होते ही मेरे पांव
सेवड़ाफुल्ली से तारकेश्वर धाम की ओर जाने को बेचैन हो उठते थे। सोच रखा था जब तक शरीर साथ देगा,हर श्रावण में कंधे पर कावड़ लटका कर सेवड़ाफुल्ली से तारकेश्वर तक की पैदल यात्रा अवश्य करुंगा। हालांकि,कई कारणों से मेरी यह कावड़ यात्रा पिछले कई सालों से बंद है,लेकिन इस यात्रा के प्रति मेरा लगाव अब भी जस का तस कायम है। हालांकि,यह सच है कि पिछले दो दशक में कावड़ यात्रा में बड़ा परिवर्तन आया है।
पहले यह यात्रा नितांत व्यक्तिगत आस्था का विषय थी। तब कावड़
यात्रा को न तो इतना प्रचार मिलता था,और न ये राजनीतिज्ञों की रडार पर रहती थी। भोले की भक्ति मुझे संस्कार में मिली,लेकिन तारकेश्वर की कावड़ यात्रा के प्रति मेरी दो कारणों से आसक्ति हुई। पहला कावड़ लेकर पैदल चलते समय शिव से सीधे साक्षात्कार से हासिल आध्यात्मिक अनुभव से मिलने वाली असीम शांति और दूसरा सेवड़ाफुल्ली से तारकेश्वर तक पग-पग पर नजर आने वाला स्वयंसेवी संस्थाओं का अनन्य सेवा भाव,जिसे प्रत्यक्ष देखे बिना महसूस करना मुश्किल है। पता नहीं,स्वयंसेवकों में यह कैसी श्रद्धा जाग उठती है जो महंगी से महंगी चीजें कावड़ियों को खिलाने के
लिए उन्हें बेचैन किए रहती है। बगैर मौसम की मार या दिन-रात की चिंता किए। कावड़िए के कीचड़ से सने पांवों को सहलाने और जख्मों पर मरहम लगाने से भी उन्हें गुरेज नहीं। वाकई,बाबा भोले की गजब महिमा है। कहते हैं जब तक बाबा बुलाए नहीं,कोई उनके दरबार में नहीं पहुंच सकता। आप बनाते रहिए योजना पर योजना,लेकिन बुलावा नहीं होगा तो सारी योजना धरी की धरी रह जाएगी,वहीं कोई ऐसा बंदा भी कावड़ लेकर बाबा के दरबार पहुंच जाता है,जिसने कभी इस बारे में सोचा तक नहीं था। अपनी कावड़ यात्रा के दौरान मैंने ऐसे कई लोगों को पैदल चलते देखा,जिनकी भाव-भंगिमा और देह भाषा
बताती है कि,वे बगैर एयरकंडीशन के शायद नहीं रह पाते होंगे,नंगे पांव जमीन पर चलना तो बहुत दूर की बात है,लेकिन भक्ति के वशीभूत वे भी कावड़ लिए चले जा रहे हैं।
पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से ५८ किलोमीटर की दूरी पर बसा तारकेश्वर हुगली जिले का प्रमुख शहर है। इस शहर का नाम भी
तारकेश्वर मंदिर के ऊपर ही पड़ा। इस मंदिर के निर्माण और आस्था का रोचक इतिहास है। पूर्व रेलवे के हावड़ा-सेवड़ाफुल्ली-तारकेश्वर रेल खंड का यह आखिरी स्टेशन है। वाकई तारकेश्वर धाम की कावड़ यात्रा को यदि गरीबों का अमरनाथ कहा जाए तो गलत नहीं होगा, क्योंकि आस्थावान ऐसे लोगों का बड़ा समूह जिनके लिए तीर्थ,रोमांच या भ्रमण आदि पर खर्च करना संभव नहीं है,श्रावण में तारकेश्वर की कावड़ यात्रा वे भी हँसते-हँसते कर जाते हैं। दीघा या अन्य किसी स्थान का बस का किराया भी जितनी रकम से संभव न हो,उससे भी कम पैसे में तारकेश्वर की यात्रा मुमकिन थी। यह सब स्वयंसेवी
संस्थाओं की उदारता से संभव हो पाता है। कावड़ यात्रा के दौर में मैंने
खुद अनुभव किया और दूसरे श्रद्धालुओं से भी पता लगा कि दूसरे तीर्थ या भ्रमण स्थल के विपरीत तारकेश्वर की कावड़ यात्रा में पैसे कभी बाधक नहीं बनते,क्योंकि रास्ते में खान-पान से लेकर दवा तक का नि:शुल्क इंतजाम बहुतायत में रहता है। सेवड़ाफुल्ली से जल लेकर चलने पर पहला पड़ाव डकैत काली है,जो पांच किलोमीटर की दूरी पर है। अब तो डकैत काली से पहले ही कई स्वयंसेवी संस्थाओं के शिविर नजर आने लगे हैं। इसके बाद तो थोड़ी-थोड़ी दूर पर सड़क के दोनों ओर शिविर ही शिविर दिखाई देते हैं,जो कावड़ियों की सेवा को हमेशा तत्पर नजर आते हैं। सेवड़ाफुल्ली से तारकेश्वर के बीचों-बीच काशी विश्वनाथ नाम का बड़ा बड़ा शिविर है,जहां पहुंच कर कावड़ियों को खुद के वीआइपी होने का भ्रम होता है। गर्म पानी के टब में थके पांवों को डुबो कर राहत पाने का सुख निराला होता है। इसके बाद भी कई शिविरों से होते हुए कावड़िए जब लोकनाथ पहुंचते हैं,तो उन्हें अहसास हो जाता है कि वे बाबा के मंदिर पहुंच चुके हैं। यहां जल चढ़ाने के बाद कावड़िये बाबा के मंदिर की ओर रवाना होते हैं। कहते हैं बाबा इस चार किलोमीटर की दूरी पर भक्त की की कड़ी परीक्षा लेते हैं,क्योंकि नजदीक पहुंच कर भी भक्तों को लगता है उनसे अब नहीं चला जाएगा,लेकिन रोते-कराहते भक्त बाबा के दरबार में पहुंच ही जाते हैं। दो दशक पहले तक की गई अपनी कावड़ यात्राओं में मैंने अनेक ऐसे श्रद्धालुओं को देखा,जिनके लिए किसी तीर्थ पर सौ रुपये खर्च कर पाना भी संभव नहीं,लेकिन उनकी यात्रा भी हर साल बेखटके पूरी होती रही। वाकई तारकेश्वर की कावड़ यात्रा को गरीबों का अमरनाथ कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा।

परिचय-तारकेश कुमार ओझा का नाम खड़गपुर में वरिष्ठ पत्रकार के रुप में जाना जाता है। आपका निवास पश्चिम बंगाल के खड़गपुर स्थित भगवानपुर (जिला पश्चिम मेदिनीपुर) में है। आपकी लेखन विधा अनुभव आधारित लेख,संस्मरण और सामान्य आलेख है।श्री ओझा का जन्म स्थान प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) हैl पश्चिम बंगाल निवासी श्री ओझा की शिक्षा बी.कॉम. हैl कार्यक्षेत्र में आप पत्रकारिता में होकर उप सम्पादक हैंl आपको मटुकधारी सिंह हिंदी पत्रकारिता पुरस्कार तथा श्रीमती लीलादेवी पुरस्कार के साथ ही बेस्ट ब्लॉगर के भी कई सम्मान मिल चुके हैंl आप ब्लॉग पर भी लिखते हैंl  

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