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दाता और पाता, दोनों का अपमान

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
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सर्वोच्च न्यायालय के एक सेवा-निवृत्त जज एस. अब्दुल नज़ीर को सरकार ने आंध्र प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त कर दिया है। इस नियुक्ति पर विपक्ष हंगामा कर रहा है। उसका कहना है कि जजों को फुसलाने का यह सबसे अच्छा तरीका है। पहले उनसे अपने पक्ष में फैसला करवाओ और फिर पुरस्कारस्वरूप उन्हें राज्यपाल, राजदूत या राज्यसभा का सदस्य बनवा दो। जो विपक्ष मोदी पर यह आरोप लगा रहा है, क्या उसने अपने पिछले कारनामों पर नज़र डाली है ? इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के ज़माने के कई राज्यपाल, राजदूत और सांसद पहले या तो जज या नौकरशाह या संपादक रहे हैं। उन्होंने जज या संपादक या नौकरशाह के तौर पर सरकार को उपकृत किया है, तो सरकार ने उन्हें उक्त पद देकर पुरस्कृत किया है। वे लोग समझते रहे हैं कि वह पुरस्कार पाकर वे सम्मानित हुए हैं, लेकिन उनके अपमान का इससे बड़ा प्रमाण-पत्र क्या हो सकता है ? यदि उन्होंने अदालत में बिल्कुल ठीक-ठाक फैसला दिया है, यदि उन्होंने निष्पक्ष और निर्भीक संपादकीय लिखे हैं और यदि किसी नौकरशाह ने निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य-कर्म किया है तो भी ये सरकारी पुरस्कार पानेवालों की ईमानदारी पर लोगों को शक होने लगता है। यह शक तब और भी तगड़ा हो जाता है, यदि वह पुरस्कार तुरंत मिला हो। ऐसे पुरस्कारों और सम्मानों से संसदीय लोकतंत्र की मर्यादा भंग होती है, क्योंकि, न्यायपालिका और कार्यपालिका को अपनी लक्ष्मण-रेखाओं में ही रहना चाहिए और खबरपालिका को तो अपने प्रति और भी ज्यादा सख्ती बरतना चाहिए। यदि संपादक और पत्रकार इन पदों और सम्मानों के लिए लार टपकाते रहे तो वे पत्रकारिता क्या खाक करेंगे ? कई पत्रकार विभिन्न सरकारों में मंत्री, राजदूत और प्रधानमंत्रियों के सरकारी सलाहकार भी बने। उनमें से कई ने सराहनीय कार्य भी किए, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि संपादकों, जजों और नौकरशाहों की प्रतिभा से सरकारें लाभ न उठाएं। जरूर उठाएं, लेकिन उनके सेवा-निवृत्त होते ही उन्हें यदि नियुक्तियाँ मिलती हैं तो उससे यह साबित होता है कि सरकार उनकी प्रतिभा का लाभ उठाने की बजाय उन्होंने सरकार की जो खुशामद की है, उसका लाभ उन्हें दे रही है। इससे दाता और पाता, दोनों की प्रतिष्ठा पर आंच आती है। तो होना क्या चाहिए ? होना यह चाहिए कि अपने पद से सेवा-निवृत्त होने के बाद ५ साल तक किसी भी जज, पत्रकार और नौकरशाह को कोई सरकारी पद या दल-पद नहीं दिया जाना चाहिए। नौकरशाहों पर पहले २ साल की पाबंदी थी, लेकिन उसे घटाकर अब १ साल कर दिया गया है। वर्तमान में कितने ही नौकरशाह मंत्री और राज्यपाल बने हुए हैं ? यह हमारी पार्टियों और सरकारों के बौद्धिक दिवालिएपन का भी सूचक है।

परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

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