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देश को मंदिर-मस्जिद विवादों से निकलने की आवश्यकता

ललित गर्ग

दिल्ली
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दुर्भाग्यपूर्ण है कि उत्तर प्रदेश के संभल में एक बार फिर सम्प्रदाय विशेष के लोगों ने जो हिंसा, नफरत एवं द्वेष को हथियार बनाकर अशांति फैलाई, वह भारत की एकता, अखण्डता एवं भाईचारे की संस्कृति को क्षति पहुँचाने का माध्यम बनी है। अदालत के आदेश पर मस्जिद के सर्वे के दौरान हिंसा एवं उन्माद का भड़कना और ३ लोगों की जान चले जाना चुनौतीपूर्ण एवं शर्मनाक है। इस हिंसा को टाला जा सकता था, यदि सर्वेक्षण का हिंसक विरोध नहीं किया जाता। जब ऐसा होता है तो बैर बढ़ने के साथ देश की छवि पर भी बुरा असर पड़ता है। निःसंदेह इस सम्प्रदाय विशेष को भी यह समझने की आवश्यकता है कि जब देश की राष्ट्रीय एकता एवं सद्भाव को बल देना सबकी पहली और साझी प्राथमिकता बननी चाहिए। एक उन्मादी, विभाजित और वैमनस्यग्रस्त समाज न तो अपना भला कर सकता है, न ही देश को आगे ले जा सकता है। समय आ गया है कि उन मूल कारणों पर विचार किया जाए, जिनके चलते साम्प्रदायिक तनाव, नफरत एवं द्वेष बढ़ाने वाली घटनाएं थम नहीं रही हैैं।

संभल की स्थानीय अदालत ने याचिका पर सर्वेक्षण का आदेश दिया था, जिसमें दावा किया गया था कि मुगल बादशाह बाबर ने इस मस्जिद का निर्माण एक मंदिर के स्थान पर किया था। प्रारंभिक सर्वे किया गया, तब भी तनाव फैला था, लेकिन दूर कर लिया गया था। समझना कठिन है कि सर्वे के दौरान ऐसे प्रयास क्यों नहीं किए गए, जिससे अशांति न फैलने पाए। पुलिस पर पथराव, वाहनों में तोड़फोड़ के साथ आग के हवाले किया गया, उससे लगता है कि उन्मादी तत्वों ने उपद्रव की तैयारी कर रखी थी। ऐसी घटनाएं सामाजिक ताने-बाने को क्षति पहुँचाने के साथ कानून के समक्ष चुनौती भी खड़ी करती हैं।
चिंता की बात है कि यह एक चलन-सा बनता जा रहा है कि जब सार्वजनिक स्थलों पर कोई धार्मिक आयोजन होता है, किसी अदालती आदेश पर जाँच कार्य होता है तो विवाद होता है और हिंसा शुरू हो जाती है। संभल में हुई भीषण हिंसा संकेत करती है कि उसे लेकर पूरी तैयारी की गई थी। ताजा घटनाओं के मूल में भड़काऊ नारे एवं संकीर्ण धार्मिकता के मंसूबे सामने आए हैं। इस तरह की घटनाओं का बार-बार होना अच्छा नहीं है। यदि मस्जिद पक्ष का यह मानना है कि सर्वे का आदेश सही नहीं तो उसे ऊपरी अदालत का दरवाजा खटखटाना चाहिए था। अदालत के आदेश की अवहेलना करने के लिए हिंसा का सहारा लेने का कहीं कोई औचित्य नहीं और तब तो बिल्कुल भी नहीं, जब ऊँची अदालतों में जाने का रास्ता खुला हो। यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या कुछ राजनीतिक दल एवं सम्प्रदाय विशेष के लोग किसी भी बहाने भड़कने और हिंसा करने के लिए तैयार बैठे रहते हैं ? वास्तव में जैसे यह एक सवाल है कि क्या भारतीय संस्कृति के अस्तित्व एवं अस्मिता से जुड़े इन धार्मिक स्थलों के नाम पर पथराव, तोड़फोड़ और आगजनी करना जरूरी समझ लिया गया है ? इन प्रश्नों पर संकीर्ण धार्मिकता से परे होकर गंभीरता के साथ विचार होना चाहिए। पुलिस प्रशासन को भी यह देखना होगा कि वैमनस्य बढ़ाने वाली घटनाएं क्यों बढ़ती चली जा रही हैं ?
मंदिर-मस्जिद के विवाद नए नहीं हैं। इनको सुलझाने की आवश्यकता है। इसका एक तरीका न्यायपालिका का सहारा लेना है और दूसरा आपसी सहमति से हल करना। इससे बेहतर और कुछ नहीं कि ऐसे विवाद समुदाय आपस में मिल-बैठकर हल करें। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि समाज में सद्भाव, सौहार्द एवं शांति बनी रहेगी। यह भी समझना होगा कि देश को अतीत से अधिक भविष्य की ओर देखने एवं मंदिर-मस्जिद विवादों से बाहर निकलने की आवश्यकता है।
देश का चरित्र बनाना है तथा स्वस्थ-शांतिपूर्ण समाज की रचना करनी है तो हमें एक ऐसी आचार संहिता को स्वीकार करना होगा जो जीवन में पवित्रता दे एवं कदाचार-संकीर्णता-कट्टरता के इस अंधेरे कुएँ से निकाले। बिना इसके देश का विकास और भौतिक उपलब्धियां बेमानी हैं।
घटिया उत्पादन के पर्याय के रूप में जाना जाने वाला जापान आज अपनी जीवन-शैली को बदल कर उत्कृष्ट उत्पादन का प्रतीक बन विश्वविख्यात हो गया। इसी तरह भारत भी आज विश्वविख्यात होने की दिशा में अग्रसर है, तो उसकी बढ़ती साख एवं समझ को खण्डित करने वाली शक्तियों को सावधान करना ही होगा। भारत जैसी माटी में जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है। कल पर कुछ मत छोड़िए, कल जो बीत गया और कल जो आने वाला है-दोनों ही हमारी पीठ के समान हैं, जिसे हम देख नहीं सकते। आज हमारी हथेली है, जिसकी रेखाओं को हम देख सकते हैं। अब हथेली की रेखाओं को कमजोर करने एवं उसे लहूलुहान होते हुए नहीं देखा जा सकता। यह खतरनाक स्थिति है, कारण सबको अपनी-अपनी पहचान समाप्त होेने का खतरा दिख रहा है। भारत मुस्लिम सम्प्रदायवाद से आतंकित रहा है। आवश्यकता है धर्म को प्रतिष्ठापित करने के बहाने राजनीति का खेल न खेला जाए। धर्म और सम्प्रदाय के भेद को गड्मड् न करें। धर्म में धार्मिकता आए, कट्टरता न आए। राजनीति में सम्प्रदाय न आए, नैतिकता आए, आदर्श आए, श्रेष्ठ मूल्य आएँ, सहिष्णुता आए।

भारत में हिन्दू-मुस्लिम हित परस्पर टकरा रहे हैं, इसलिए साम्प्रदायिकता बढ़ रही है, धार्मिकता नष्ट हो रही है।