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आदर्श सास

मंजू भारद्वाज
हैदराबाद(तेलंगाना)
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रविवार का दिन था,बच्चे पिक्चर चलने की ज़िद कर रहे थे,पर आज मेरी कहीं जाने की इच्छा नहीं हो रही थी। दस दिनों से गाड़ी के पेपर खोज-खोज कर घर मेंं सब परेशान हो गए थे। गाड़ी बेचनी थी औऱ,पेपर मिल नहीं रहे थे। दिमाग उसी में उलझा हुआ था आखिर पेपर गए कहाँ ? बच्चे पिक्चर के लिए निकल गए और मैं अलमारी खोल कर कागज खोजने में व्यस्त हो गई। हर फाइल,हर डायरी सब उलट डाला पर गाड़ी के पेपर का कहीं अता-पता नहीं था। अचानक नजर एक लिफाफे पर अटक गई,देखा तो बरसों पहले लिखा पापा का पत्र था। पत्र पढ़ते-पढ़ते आँखें भर आईं। उन्होंने लिखा था-

मेरी प्यारी बेटी,
बहुत प्यार।

बेटा मैं दीपक की शादी से लौट तो आया हूँ,पर मेरा मन वहीं रह गया है। वहाँ शादी में कुछ ऐसा समां बंधा कि दिन-रात कैसे बीते,पता ही नहीं चला। तुम्हारी सारी व्यवस्था बहुत ही शानदार थी। तुमने बहुत बारीकी से सब चीजों का ध्यान रखा था। वहाँ उपस्थित सभी मेहमानों के मुँह से तुम्हारी तारीफ सुन कर मेरा मन गदगद हो गया था। बेटा तुम हमेशा एक आदर्श बेटी रही हो,एक आदर्श बहन रही हो,फिर आदर्श बहू बनी,एक आदर्श पत्नी रही हो,एक बहुत ममतामयी आदर्श माँ रही हो। तुमने हर रिश्ते को पूरी गरिमा के साथ,बहुत प्यार से निभाया है। मेरा विश्वास है अब तुम अपनी नई जिम्मेदारी बखूबी निभाओगी और एक आदर्श सास बनोगी। बहू को लेकर तुम सब यहाँ आने का प्रोग्राम बनाना। जिंदगी के हर मोड़ पर तुम खुद को साबित करती आई हो बेटा,मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूँ कि मैं तुम्हारा पापा हूँ। भगवान तुम्हें दुनिया की सारी खुशियां दें। दीपक और बहू को मेरा ढेर सारा प्यार देना और अजय जी को मेरा स्नेह देना।
बहुत आशीर्वाद के साथ
तुम्हारा पापा

पापा ने ये पत्र चार साल पहले मेरे बेटे दीपक की शादी के बाद लिखा था। पढ़ कर आँखें नम हो गई। मेरे लिए ये पत्र सिर्फ पत्र नहीं था,मेरे जीवन की कमाई थी। मन अतीत की यादों में खोने लगा था।
जिंदगी का सफर कभी इतना आसान नहीं होता है। इन राहों पर कहीं आग की तपिश होती है,तो कहीं काँटों की चुभन,कहीं खाई है तो कहीं चट्टानों के हुजूम। इन सबके बीच संयम बरतते हुए,बर्दाश्त करते हुए,दमन करते हुए जिम्मेदारियों को मुस्कुरा कर उठाना ही जीवन है। अपने पापा का ये पत्र मेरे लिए किसी सर्टिफिकेट से कम नहीं था और पापा से ये सर्टिफिकेट पाना मेरे लिए गर्व की बात थी,पर अब ‘आदर्श सास’ इसका सर्टिफिकेट पाना इतना सरल नहीं था।
सन २०१४ में मैंने अपने बेटे दीपक की शादी की थी। मेरी बहू रागिनी बहुत पढ़ी-लिखी और बहुत सुंदर थी। बरसों से ‘सास’ शब्द की एक अलग ही पहचान जनमानस के पटल पर अंकित है। बहू जब सास बनती है तो सास का दम्भ अपने-आप उसके व्यक्तित्व में समा जाता है। माथे पर चमक,आँखों में अनुशासन,होंठों पर आदेश,चाल में अकड़,यही तो वर्षों से सास के व्यक्तित्व की परिभाषा रही है। बरसों से खुद पर हुए तमाम जुल्मों का बदला अपनी बहू से लेकर वह सुकून पाती है। सास का पद ग्रहण करते ही ये सारी चीजें मेरे व्यक्तित्व में भी उभरने लगी थी।
शादी का सारा काम बहुत ही अच्छे से सम्पन्न हो गया था। सबने शादी में की गई व्यवस्था की बहुत तारीफ की। चार दिन तो आपा-धापी में गुजरे, सबको बिदाई दे कर पूरे सम्मान के साथ विदा किया। मेरी बहू रागिनी भी सबसे बहुत प्यार से मिली,पाँव छू कर सबसे आशीर्वाद लिया। बहुत दिन बाद आज घर खाली हुआ था। सभी मेहमान चले गए थे। रात काफी हो गई थी,हम सब भी काफी थक गए थे। सब अपने-अपने कमरे में सोने चले गए। यूँ तो शरीर थक कर चूर था,पर आँखों से नींद कोसों दूर थी। अपने नए पद की गरिमा बनाए रखने की कश्मकश में बीते तीस साल का
घोषणा-पत्र उलटती-पलटती रही। अपनी सास का अनुशासन,उनका गुस्सा,उनके प्यार को याद कर सबको खुद में आत्मसात करती रही। कल से मेरे नए जीवन की नई शुरुआत थी। इतिहास अपने- आपको दुहरा रहा था। अब मैं सास बन गई हूँ… सोचते-सोचते न जाने कब आँख लग गई,पता भी नहीं चला।
सुबह जब आँख खुली तो देखा घड़ी ७ बजा रही थी। मैं हड़बड़ा कर उठी,आज रागिनी का चूल्हा पूजन करवाना है। जल्दी-जल्दी तैयार होकर निकली तो देखा दीपक के कमरे का दरवाजा बंद था। मैंने धीरे से खट-खट किया,अंदर से रागिनी की अलसाई-सी आवाज सुनाई दी ‘हाँ,माँ।’
‘अरे उठो बेटा,आज चूल्हा पूजन करना है।’ मैंने सयंत स्वर में कहा।
‘हाँ माँ।’ रागिनी ने धीरे से कहा।
जब तक रागिनी तैयार होगी,तब तक मैं अपनी पूजा-पाठ और कुछ काम निपटा लूँ,ये विचार कर मैं काम में व्यस्त हो गई। दिन के ११ बज गए थे। मैं दीपक के कमरे में गई,देखा तो रागिनी अस्त-व्यस्त हालत में बिस्तर पर लेट कर मोबाइल देख रही थी। उसे ऐसे देख कर मुझे बहुत गुस्सा आया-‘अरे अभी तक तैयार नहीं हुई!’
मेरी आवाज की गर्मी भाँपते हुए उसने नाराजगी भरे लहजे में कहा-‘अभी तो घर खाली हुआ है। हम रिलेक्स कर रहे हैं,आप भी रिलेक्स करो न…।’ उसका ये व्यवहार मुझे अंदर तक कचोट गया। मुझे उससे ऐसे जबाब की उम्मीद नहीं थी। बचपन से देखती आई थी मायके में पापा,भैया का शासन था। उनकी एक आवाज पर हम दौड जाते थे। कभी थोड़ी देर हो जाती तो भैया गाल लाल कर देता था, पर किसी काम को इंकार करने की हिम्मत हममें नहीं थी। ‘बगावत’ नाम का कोई शब्द भी होता है, हम नहीं जानते थे। ससुराल भी कुछ वैसा ही था। घर में सास-ससुर जी का दबदबा था। सुबह ४ बजे से रात १२ बजे तक मैं सबके पीछे हिरनी बनी घूमती रहती। भाभी चाय बना देना,भाभी जरा मेरे कपड़े प्रेस करदेना,भाभी प्लीज आज मेरा रूम साफ कर देना,बेटा सारा काम हो जाए तो जरा मेरे पाँव में मालिश कर देना। सास,ससुर,पति,देवर, ननंद की फरमाइशें पूरी-पूरी करते-करते मैं खुद को भूल चुकी थी। मेरी जिंदगी इन्हीं के चारों ओर घूमती रहती थी। पलभर में पूरा अतीत आँखों के आगे घूम गया।
रागिनी को घूरते हुए ‘ये तो हद हो गई…’ मन ही मन बुदबुदाते हुए मैं दीपक के कमरे से बाहर आ गई। ये पहला पत्थर था,जो मेरी उम्मीदों पर पड़ा था। मेरी उम्मीद थी सुबह-सुबह मेरी बहू नहा-धो कर सुंदर से तैयार हो कर हमारे लिए चाय बनाकर लाएगी। मेरे पाँव छू कर कहेगी-‘माँ चाय…।’ हा..हा…हा…मुंगेरी लाल के हसीन सपने,पर हकीकत ये थी कि अब तो ये सिलसिला-सा चल पड़ा था। मैं कुछ कहती,वो इन्कार कर देती। आराम से उठती,आराम से नहाती,मन हो तो काम करती, नहीं मन तो नहीं करती। मेरे कुछ कहने पर बहुत चिढ जाती। हमारे बीच तनाव बढ़ने लगा था। उसे मैं ऑर्थोडक्स लगती और मुझे वो एक्स्ट्रा मॉर्डन लगती। धीरे-धीरे हम एक दूसरे से कन्नी काटने लगे थे। हमारे बीच बातों का दायरा बहुत सीमित हो गया था। घर का माहौल बोझिल हो गया था। इन सबके बीच कुछ ऐसा था,जिसे हम अनदेखा कर रहे थे-वो था दीपक। हमेशा खिलखिलाने वाला दीपक मायूस हो गया था। कमरे के बाहर वह मेरा उतरा चेहरा देख कर उदास हो जाता और कमरे के अंदर रागिनी की उदासी उसे तोड़ देती। उसने कई बार कोशिश की हम दोनों को समझाने की कि, ‘आप दोनों मेरी दो आँखें हैं,मैं आप दोनों में से किसी को दुखी नहीं देख सकता’,पर उसकी किसी बात का हम पर कोई असर नहीं होता। हमेशा हमारा अहम सामने आ जाता और तनाव औऱ बढ़ जाता। अब दीपक भी चुप-चुप रहने लगा था,पर दीपक की चुप्पी,उसकी उदासी मुझे अंदर तक खाने लगी थी।
उसकी आँखों में बहुत प्रश्न थे,मानो कहना चाहता हो ‘मेरा क्या कसूर है…? क्यों मेरी शादी की आपने….? मैं आपको उदास नहीं देख सकता…मैं रागिनी से भी बहुत प्यार करता हूँ,मैं क्या करूँ… ?’ उसके अनकहे शब्द बार-बार मेरे कानों से टकरा रहे थे। उसे उदास देख कर मेरा मन भर आया। मैं अपने हमेशा मस्त रहने वाले बेटे को ऐसे नहीं देख सकती थी। मैंने पूरे घटनाक्रम का आंकलन करना शुरू किया। कहाँ गलत हूँ मैं…? और कहाँ गलत है रागिनी…? बहुत सोचा…और बहुत सोचने पर इस निष्कर्ष पर पहुंची….रागिनी कहीं गलत नहीं थी। हमने अपनी पूरी जिंदगी दूसरों की शर्तों पर जी है, पर आज के बच्चे अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीते हैं। हम दोनों के बीच इस शीत यूद्ध के दौरान मैंने अपनी कमजोरियों को भी जाना,वो था हमारा घमंड,जलन…विरासत में मिली सोच,जिसे मैं ही नहीं छोड़ पा रही थी,उसे छोड़ने की आशा मैं रागिनी से कैसे कर सकती थी। मेरी जिंदगी संस्कार और रूढ़िवादिताओं की ईंट से बनी वो ईमारत थी, जहाँ सिर्फ और सिर्फ अनुशासन था,जिम्मेदारियां थी। जीवनभर अनुशासन और जिम्मेदारियों के बीच दबी मैं अपने जज्बातों को,अपनी इच्छाओं को अनजाने में ही न जाने कब का दफ़न कर चुकी थी, और उस दर्द के अहसास को भी भूल चुकी थी।
मैंने इसे ही अपनी नियति मान लिया था,पर अब जमाना बदल गया था। अब नई पीढ़ी के विचारों के टकराव से मेरी पुरानी खोखली ईमारत जो पूर्वजों की शब्दावली पर टिकी थी,हिलने लगी थी। बदलते वक्त के साथ हवा ने भी अपना रंग बदल लिया था,यहाँ तक कि,नदी,तालाब,पहाड़,धरती सबकी संरचना में बदलाव आ गया है। मैंने भी निश्चय किया कि मुझे भी बदलना होगा और यदि मुझे खुद में बदलाव लाना है तो मुझे जर्जर हो रही इस ईमारत को बम के धमाके से उड़ाना पड़ेगा। अपनी आशाओं के पुलिन्दे को दरिया में बहाना होगा,अपने रुतबे की,अपने अहंकार की,अपने वर्चस्व की होली जलानी पड़ेगी। बहुत सुई चुभा चुभा कर हमारी पुरानी पीढ़ी ने ये संस्कार के लिबास हमें पहनाए थे,पर अब ये नई पीढ़ी बड़ी बेमुराद से उसे उतारने में लगी थी। कुछ समय के लिए मैं जरूर बौखला गई थी,पर शांति से विचार कर मैं निकल पड़ी उस राह पर,जहां जान सकूँ आखिर ये नई पीढ़ी है क्या बला…? ये चाहती क्या है…? और इस खोज के सिलसिले में जितना मैं इनके करीब आती गई,उतना ही इन्हें समझने लगी …और सच कहूँ तो मुझे उनसे प्यार होता चला गया। कितनी गलतफहमियाँ पाल रखी थी हमने इनके प्रति। हममें और नई पीढ़ी में बस फर्क इतना है कि नई पीढ़ी किसी दवाब में नहीं रह सकती। वे विशाल गगन में उन्मुक्त परिन्दे की तरह उड़ना चाहती है। उन्हें बेड़ियों में बांधा नहीं जा सकता। ये ‘ना’ करना जानती है। इनका व्यक्तित्व पारदर्शी है। जो इनके दिल में है,वो उनके मुँह पर है। उन्हें जानने के इस सफर में मैं खुद को भी जानने लगी थी। उनका आलस,उनका मस्त मौलापन,उनकी बेबाकी, उनका आत्मविश्वास,मेरी उन दबी भावनाओं को छू रहा था,जिसे जाने-अनजाने मैंने बरसों पहले दफना दिया था। अतीत में घटित ऐसी कई घटनाएं आँखों के सामने तैर गई…जब चाहते हुए भी मैं कुछ नहीं कर पाई थी और कई बार न चाहते हुए भी हमें बहुत कुछ करना पड़ता था। मुझमें ‘ना’ कहने का साहस नहीं था,या कहो मुझमे आत्मविश्वास की कमी थी। इस सफर के दरमियाँ मेरे अंदर बहुत कुछ बदलने लगा था। मेरे अंदर उठते प्यार और स्नेह की इस शीतल बौछार ने नफ़रत की आग को कब शांत कर दिया,पता ही नहीं चला। मेरे मरे हुए अहसास फिर से करवट लेने लगे थे। मैं फिर से जी उठी थी…अपने आधे-अधूरे सपनों के साथ। यह अहसास कि मैं सास हूँ,मेरी इज्जत करनी होगी,मैं जो कहूँगी बहू को मानना पड़ेगा,इस तरह की तमाम दकियानूसी भावनाओं की पोटली बना कर मैंने गंगा में प्रवाहित कर दी। यह सफर…यह फैसला…मुश्किल जरूर था,पर नामुमकिन नहीं था।
मैं हर छोटी-बड़ी चीज में रागिनी की राय लेने लगी। हर चीज का निर्णय हम आपसी सामंजस्य से लेते। अब हम सास-बहू के बंधन से मुक्त हो कर एक अच्छी सहेली बन गए थे। धीरे धीरे रागिनी भी मुझसे खुल गई थी। हमारे बीच विश्वास की डोर मजबूत हो गई थी। एक-दूसरे को खुश करने के लिए हम हर कुछ करने को तैयार रहते थे। ये हमारा एक-दूसरे के प्रति पूर्ण समर्पण था। पहल जरूर हमने की,पर अगला कदम बढ़ा कर हमराही बनती जा रही थी नई पीढ़ी।
‘माँ,आप कहाँ हो,जल्दी आओ,आपके लिए हम पानी पूरी लाए हैं’ रागिनी की आवाज कानों से टकराई तो मेरी तन्द्रा टूटी। आवाज लगाते हुए रागिनी और दीपक कमरे में आ गए थे।
‘अरे ये क्या माँ… बिखरे कागज को देख कर दीपक ने कहा।
‘कुछ नहीं बेटा,गाड़ी के कागज खोजते-खोजते मन अतीत के गलियारों में भटक गया था।’ मैंने बिखरे कागज समेटते हुए कहा।
‘माँ वर्तमान में लौट आओ,आपके लिए मस्त पानी पूरी लाई हूँ,जल्दी आओ मुझे भूख लगी है।’ रागिनी ने मुस्कुराते हुए कहा।
‘अरे,मेरे साथ तुमने वहाँ खाया क्यों नहीं!’ दीपक ने आश्चर्य से देखते हुए रागिनी से पूछा।
‘मुझे माँ के साथ खाना था,आओ माँ’ मुस्कुराते हुए रागिनी बोली।
‘अरे मेरी बिटिया…लव यू’ मैंने उसके सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा।
‘आई लव यू टू माँ’ कहते हुए वो मेरे गले से लिपट गई। फिर बात को आगे बढ़ाते हुए कहा,-‘और माँ पता है! कार के पेपर कार मे ही थे। ये आपको इतना परेशान किया। इसे डांट लगाओ आप।’ रागिनी ने नटखट नजरों से दीपक को देखते हुए कहा। सब खिलखिला कर हँस पड़े। हँसी-ठहाके के बीच पानी पूरी की चटपटाहट ने माहौल को और खुशगवार बना दिया था।
बच्चों के चेहरे पर खिली मुस्कराहट में मुझे ‘आदर्श सास’ का सर्टिफिकेट मिल गया था। इस राह में मैंने जितना खोया,उससे कई गुणा ज्यादा मैंने पाया है।
गीली माटी पर बिखरे रिश्तों के बीज में कभी अहंकार का खाद न डालें। ये अहंकार,ये अहम प्यार के पौधों को घुन की तरह चाट जाते हैं। देने का सुख पाने से कहीं ज्यादा होता है,यही जीवन का सत्य है।

परिचय-मंजू भारद्वाज की जन्म तारीख १७ दिसम्बर १९६५ व स्थान बिहार है। वर्तमान में आपका बसेरा जिला हैदराबाद(तेलंगाना)में है। हिंदी सहित बंगला,इंग्लिश व भोजपुरी भाषा जानने वाली मंजू भारद्वाज ने स्नातक की शिक्षा प्राप्त की है। कार्यक्षेत्र में आप नृत्य कला केन्द्र की संस्थापक हैं,जबकि सामाजिक गतिविधि के अन्तर्गत कल्याण आश्रम में सेवा देने सहित गरीब बच्चों को शिक्षित करने,सामाजिक कुरीतियों को नृत्य नाटिका के माध्यम से पेश कर जागृति फैलाई है। इनकी लेखन विधा-कविता,लेख,ग़ज़ल,नाटक एवं कहानियां है। प्रकाशन के क्रम में ‘चक्रव्यूह रिश्तों का'(उपन्यास), अनन्या,भारत भूमि(काव्य संग्रह)व ‘जिंदगी से एक मुलाकात'(कहानी संग्रह) आपके खाते में दर्ज है। कुछ पुस्तक प्रकाशन प्रक्रिया में है। कई लेख-कविताएं बहुत से समाचार पत्र-पत्रिका में प्रकाशित होते रहे हैं। विभिन्न मंचों एवं साहित्यक समूहों से जुड़ी श्रीमती भारद्वाज की रचनाएँ ऑनलाइन भी प्रकाशित होती रहती हैं। प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो आपको श्रेष्ठ वक्ता(जमशेदपुर) शील्ड, तुलसीदास जयंती भाषण प्रतियोगिता में प्रथम स्थान,श्रेष्ठ अभिनेत्री,श्रेष्ठ लेखक,कविता स्पर्धा में तीसरा स्थान,नृत्य प्रतियोगिता में प्रथम,जमशेदपुर कहानी प्रतियोगिता में प्रथम सहित विविध विषयों पर भाषण प्रतियोगिता में २० बार प्रथम पुरस्कार का सम्मान मिला है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-देश-समाज में फैली कुरीतियों को लेखनी के माध्यम से समाज के सामने प्रस्तुत करके दूर करना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-दुष्यंत,महादेवी वर्मा, लक्ष्मीनिधि,प्रेमचंद हैं,तो प्रेरणापुंज-पापा लक्ष्मी निधि हैं। आपकी विशेषज्ञता-कला के क्षेत्र में महारत एवं प्रेरणादायक वक्ता होना है। इनके अनुसार जीवन लक्ष्य-साहित्यिक जगत में अपनी पहचान बनाना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति विचार-‘हिंदी भाषा साँसों की तरह हममें समाई है। उसके बिना हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं है। हमारी आन बान शान हिंदी है।’

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