सुरेन्द्र सिंह राजपूत ‘हमसफ़र’
देवास (मध्यप्रदेश)
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जीवन और रंग…
बात उन दिनों की है जब मैं १९८४ में आईटीआई करके गाजरा गियर्स कम्पनी (देवास) की नौकरी में लगा था। नया शहर था, मैं वहाँ के त्यौहारों की परम्पराओं से ज़्यादा परिचित नहीं था। वहाँ आने के पश्चात सबसे पहला त्यौहार होली आया, लेकिन कम्पनी में होली की छुट्टी न रहकर रंगपंचमी की छुट्टी रहती थी, और रंगपंचमी पर हर साल हमारे विभाग के लोग शहर से दूर किसी दोस्त के खेत-कुंए पर लड्डू-दाल-बाफले की पार्टी का आयोजन रखते थे, और वहीं पर भोजन तैयार हो उसके पहले भांग पीकर खूब होली खेलते और मस्ती करते थे। मैं कभी कोई नशा नहीं करता था, उनके बहुत आग्रह करने भी मैंने सख़्त रूप से मना कर दिया था कि मैं आप लोगों के साथ होली खेलूँगा, रंग भी लगवाऊंगा लेकिन भांग नहीं पिऊंगा। मेरा लहज़ा देखकर उन्होंने भी ज़्यादा ज़िद नहीं की, लेकिन साहब होली का त्यौहार उनके लिए बिना भांग और रंग के कोई मायने नहीं रखता था। उनका कहना था कि साल में एक दिन तो हम अपने ढंग से जीकर मौज-मस्ती करते हैं। बाक़ी दिन तो हम कोल्हू के बैल की तरह मशीन में जुते रहते हैं। उनमें से कुछ दोस्तों ने बनने वाली दाल में ही भांग की पत्तियां मिला दी, तो लड्डुओं में भांग का पाउडर डाल दिया, और किसी को पता भी नहीं चलने दिया। चूंकि, वे सब लोग पुराने और अभ्यस्त थे। इतनी भांग खाने का उन्हें ख़ूब अनुभव था। रंगों से ख़ूब होली खेलने और मस्ती करने के बाद सब भोजन करने बैठे। मुझे ज़रा भी आभास नहीं था कि, भोजन में में कुछ गड़बड़ी है। ख़ूब भूख लगी थी सो अच्छा छक कर भोजन किया। फिर उनसे विदा लेकर साइकिल से घर की ओर चल पड़ा। थोड़ी देर में ही मेरा सिर चकराने लगा और अज़ीब-सा नशा चढ़ने लगा। मुझे ऐसा लगा कि आधी सायकिल ज़मीन में धंस गई और मैं रुककर उसे ऊपर खींचने की कोशिश कर रहा था। इतने में ही वहाँ शहर के हुड़दंगियों की एक टोली निकल रही थी, उन्होंने तबियत से मेरे चेहरे पर सुनहरा रंग लगाकर मेरी ख़ूब रगड़-पट्टी कर दी और सब कपड़े फाड़ डाले। बोले, -‘बुरा न मानो होली है’। भांग और रंग दोनों का भरपूर सुरूर मुझ पर चढ़ चुका था, इधर ये आभास हो रहा था कि साइकिल ज़मीन में धंस रही है। जैसे-तैसे घसीटते हुए घर पहुँचा। पत्नी को बोला-‘दोनों तरफ़ के दरवाजे बंद कर दे, कहीं मैं बाहर नहीं निकल जाऊँ, और मकान मालकिन को कुछ भी पता मत चलने देना, वरना अपना सामान बाहर फेंक देगी। मेरी हालत देखकर पत्नी आँख दिखाने लगी कि, ‘तुम शराब पीकर आए हो।’
मैंने उसके हाथ जोड़े-‘परमेश्वरी मैं शराब पीकर नहीं आया, लेकिन मुझे धोखे से भांग खिला दी गई है।’
पत्नी मकान मालकिन को बुला लाई, भगवान का शुक्र है कि मकान मालकिन ने गुस्सा करने के बजाय सहानुभूति दिखाते हुए पत्नी से ईमली के पानी का घोल बनाकर मुझे पिलाया। ईमली का घोल पीकर मैं सो गया। चार-पाँच घण्टे बाद मेरी नींद खुली। भांग का नशा तो उतर चुका था, लेकिन जो तज़ुर्बा मिला, वो ज़िन्दगी भर नहीं भूल पाऊँगा।
परिचय-सुरेन्द्र सिंह राजपूत का साहित्यिक उपनाम ‘हमसफ़र’ है। २६ सितम्बर १९६४ को सीहोर (मध्यप्रदेश) में आपका जन्म हुआ है। वर्तमान में मक्सी रोड देवास (मध्यप्रदेश) स्थित आवास नगर में स्थाई रूप से बसे हुए हैं। भाषा ज्ञान हिन्दी का रखते हैं। मध्यप्रदेश के वासी श्री राजपूत की शिक्षा-बी.कॉम. एवं तकनीकी शिक्षा(आई.टी.आई.) है।कार्यक्षेत्र-शासकीय नौकरी (उज्जैन) है। सामाजिक गतिविधि में देवास में कुछ संस्थाओं में पद का निर्वहन कर रहे हैं। आप राष्ट्र चिन्तन एवं देशहित में काव्य लेखन सहित महाविद्यालय में विद्यार्थियों को सद्कार्यों के लिए प्रेरित-उत्साहित करते हैं। लेखन विधा-व्यंग्य,गीत,लेख,मुक्तक तथा लघुकथा है। १० साझा संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है तो अनेक रचनाओं का प्रकाशन पत्र-पत्रिकाओं में भी जारी है। प्राप्त सम्मान-पुरस्कार में अनेक साहित्य संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। इसमें मुख्य-डॉ.कविता किरण सम्मान-२०१६, ‘आगमन’ सम्मान-२०१५,स्वतंत्र सम्मान-२०१७ और साहित्य सृजन सम्मान-२०१८( नेपाल)हैं। विशेष उपलब्धि-साहित्य लेखन से प्राप्त अनेक सम्मान,आकाशवाणी इन्दौर पर रचना पाठ व न्यूज़ चैनल पर प्रसारित ‘कवि दरबार’ में प्रस्तुति है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-समाज और राष्ट्र की प्रगति यानि ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचंद, मैथिलीशरण गुप्त,सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ एवं कवि गोपालदास ‘नीरज’ हैं। प्रेरणा पुंज-सर्वप्रथम माँ वीणा वादिनी की कृपा और डॉ.कविता किरण,शशिकान्त यादव सहित अनेक क़लमकार हैं। विशेषज्ञता-सरल,सहज राष्ट्र के लिए समर्पित और अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिये जुनूनी हैं। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-
“माँ और मातृभूमि स्वर्ग से बढ़कर होती है,हमें अपनी मातृभाषा हिन्दी और मातृभूमि भारत के लिए तन-मन-धन से सपर्पित रहना चाहिए।”