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द्रोपदी पूछ रही है…

राधा गोयल
नई दिल्ली
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अन्याय होता देखकर जो बोलते नहीं,
जुल्म होता देखकर मुँह खोलते नहीं
द्रोपदी ये पूछती है चीख-चीख आज,
मौन क्यों थे जब सभा में लुट रही थी लाज ?

जिस सभा में होता हो ऐसा जघन्य पाप,
द्रौपदी देती है उन सभी को आज श्राप
हक नहीं है जीने का…ऐसे समाज को,
धिक्कार है धिक्कार है ऐसे समाज को।

नाश होना चाहिए…ऐसे समाज का,
आईना बन जाऊँगी…ऐसे समाज का
थूकती हूँ आज मैं ऐसे…समाज पर,
मौन रहता लुटती हुई नारी की लाज पर।

आज गौतम से अहिल्या प्रश्न करती है,
याचना मत समझना,बस प्रश्न करती है
वेश धारण कर तुम्हारा इन्द्र आया था,
उसने ही अभिसार मेरे संग मनाया था।

उसको श्राप दे के भस्म क्यों नहीं किया ?
मेरा त्याग कर समाज से जुदा किया
कितने इम्तिहान दिए,बहुत हो चुका,
अब मेरी बर्दाश्त का प्याला भी भर चुका।

भगवान मान मैं तुझे ही पूजती रही,
लगन से दिन-रात सेवा में लगी रही
उसका ये सिला मिला…परित्याग कर दिया,
चल छोड़,मैंने आज तेरा त्याग कर दिया।

त्याग करती आई हूँ,एक और कर दिया,
तुझे सारे बंधनों से…मुक्त कर दिया॥

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