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‘नया भारत’ युवाओं की भागीदारी के बिना कैसे ?

ललित गर्ग
दिल्ली
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने युवावस्था में अपनी डायरी के पन्नों पर ‘न्यू इंडिया’ और ‘युवा भारत’ का जो सपना शब्दों में पिरोया था, वह आज साकार होता नजर आ रहा है। भारत मजबूती से लगातार नई पहल के साथ आगे बढ़ रहा है। जिस तरह से भारत ने श्री मोदी के नेतृत्व में चुनौतियों का सामना किया है, वह अपने-आपमें काबिले तारीफ है। यह निश्चित है कि, एक नई सभ्यता और एक नई संस्कृति गढ़ी जा रही है। नए विचारों, नए इंसानी रिश्तों, नए सामाजिक संगठनों, नए रीति-रिवाजों और नई जिंदगी की हवाएं लिए हुए आजाद मुल्क की गाथा सुनाता भारत एक बड़ा सवाल लेकर भी खड़ा है कि, हम अपनी बुनियाद यानी युवाओं के सपनों को कब पंख लगाएंगे ? कब उनकी निराशा की बदलियों की धुंध को दूर करेंगे ? देश की युवापीढ़ी की जरूरतों को कब पूरा करेंगे ?
कहते हैं कि युवा देश की धड़कन ही नहीं, उसके भविष्य का नियामक और नियंता भी होता है। स्वामी विवेकानंद ने जिस युवा पीढ़ी की ऊर्जा और राष्ट्रीय चरित्र की बात कही थी, वह आज बिखरी-सी क्यों नजर आ रही है ? केंद्र सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार अगले १५ साल में १०० में से ७७ लोग बूढ़े होंगे। सतत विकास के कार्यक्रम की बात करें, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय और संयुक्त राष्ट्र सन २०३० तक युवा रोजगार के अवसरों एवं शिक्षा-प्रशिक्षण में युवाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है। यदि भारत की बात करें, तो देश की युवा पीढ़ी के लिए सरकारी नौकरी सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। यदि व्यक्तित्व में कर्मठता और ईमानदारी के साथ-साथ जिम्मेदारी का अहसास भी हो तो, किसी भी क्षेत्र की नौकरी के प्रति अति आकर्षण कोई बुरी बात नहीं है। नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि आज सपने देखना और आकांक्षाओं को उड़ान देना, यही युवा की पहचान होती है। फिर ऐसे क्या कारण हैं कि भारत का युवा कुछ विलक्षण, अद्भुत एवं अनूठा करने की बजाय नौकरी तक ही उलझा है ?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस संकल्प को सकारात्मक नजरिए से ही देखा जाना देश के हित में है। उन्होंने बड़े सपने लिए और उन्हें पूरा भी किया, लेकिन इन सुनहरे सपनों के बीच का यथार्थ बड़ा डरावना एवं बेचैनियों भरा है। देश की युवापीढ़ी बेचैन है, परेशान है, आकांक्षी है और उसके सपने लगातार टूट रहे हैं। देश का व्यापार धराशायी है, आम जनता अब शंका करने लगी है। इन हालातों में नया भारत बनाना या उसे अमेरिका बनाकर दिखाना एक बड़ी चुनौती है।
विकसित देशों में युवा २० साल का होते-होते अपने स्वयं के नवाचार के लिए काम करने लगता है। बार-बार असफल होकर भी वह सफलता की ऊंचाई छूने की कोशिश में लगा रहता है, मगर भारत के हालात अलग हैं। कितना हास्यास्पद है कि हमने कुछ सरकारी नौकरियों को इतना महिमामंडित कर दिया है कि हर व्यक्ति वही नौकरी करना चाहता है, जिसमें दबंगई हो, प्रतिष्ठा हो, सुविधावाद हो। विकास को आकार देने में जुटे समाज में दबंगई की जरूरत ही क्या है ? उधर उच्च शिक्षण संस्थान पढ़ाई की बजाय राजनीति के केंद्र बन रहे हैं। राजनीति बुरी नहीं, मगर आलम यह है कि वहां ऐसे नेता नजर आते हैं, जिनका पढ़ाई से कोई लेना-देना नहीं है। हमने आजादी का अमृत महोत्सव मना लिया और अब भी हम अपने युवाओं को पुरानी मानसिकता से बाहर निकालकर शोध और नवाचार के लिए तैयार ही नहीं कर पा रहे। चीन और जापान की तरह उन्हें उत्पादक नहीं बना पा रहे हैं। भारत नया बनने, स्वर्णिम बनने, अनूठा बनने व उसे अमेरिका बनाकर दिखाने के लिए अतीत का बहुत बड़ा बोझा हम पर है। बेशक हम नए शहर बनाने, नई सड़कें बनाने, नए कल-कारखानें खोलने, नई तकनीक लाने, नई शासन-व्यवस्था बनाने के लिए तत्पर हैं लेकिन मूल प्रश्न है कि इनमें युवाओं की भागीदारी कब सुनिश्चित करेंगे और कब हम उनकी अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगे ? भारत में आबादी का छठा हिस्सा बेरोजगार है और हम वैश्वीकरण की ओर जा रहे हैं, अमेरिका बनने की सोच रहे हैं। यह खोखलापन है। बहुत आवश्यक है संतुलित विकास की अवधारणा बने। केवल एक ही हाथ की मुट्ठी भरी हुई नहीं हो, दोनों भरी हों। वरना न हम नया भारत बना पाएंगे और न हम अमेरिका जैसा बन पाएंगे।
अमृत महोत्सव का माहौल है, अमृत काल है, जो हमें पीछे मुड़कर देखते हुए भविष्य के सपने बुनने के लिए पुनरावलोकन की मांग करता है कि हमें पहुंचना कहां था और हम जा किधर रहे हैं ? सवाल उठता है कि भारत की धीमी प्रगति का एक कारण कहीं सरकारी नौकरी के प्रति युवाओं का अति लगाव, सरकारी तंत्र का भ्रष्टाचार में लिप्त होने के साथ-साथ कामकाज की तुलना में अधिक तनख्वाह एवं सुविधाएं देना तो नहीं है ? आजादी के ७५ साल बाद भी ९२ प्रतिशत युवाओं में खतरों को मोल लेने की क्षमता ही नहीं विकसित हो पाई। आखिर वे सिर्फ सरकारी अथवा गैर सरकारी नौकरी से चिपक कर अपना जीवनयापन क्यों करना चाहते हैं ? यह बात सच है कि बिना खतरे उठाए सफलता की ऊंचाई प्राप्त नहीं की जा सकती, नया भारत नहीं बनाया जा सकता। ऐसा लगता है कि देश का अधिकांश युवा वर्ग बिना पानी में उतरे तैरने का चैम्पियन बनना चाहता है। विकास के बड़े और लुभावने सपनों के साथ-साथ हम विवेक को कायम रखें, नैतिक मूल्यों एवं मौलिक सृजन को जीवन का आधार बनाएं।

विदेशों में भारत की स्थिति को मजबूत बनाना अच्छी बात है, लेकिन देश में बदलते हालातों पर निगाह एवं नियंत्रण भी जरूरी है। युवा वर्ग को जिम्मेदार और जुझारू बनाने के साथ हर तरह के नशे से बचाने के ठोस प्रयास आवश्यक हैं, ताकि परिवार, समाज और देश का भी भविष्य खतरे में न पड़े और युवाओं की भागीदारी से भारत सचमुच नया भारत एवं सशक्त भारत बने।

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