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नागरी के अग्रदूत ‘जस्टिस शारदाचरण मित्र’

डॉ. अमरनाथ
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
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हिन्दी के योद्धा:जन्मदिन (२६ दिसंबर)विशेष

कलकत्ता में जन्मे,कलकत्ता में पढ़े-लिखे, कलकत्ता विश्वविद्यालय से एक ही वर्ष में बी.ए. और एम.ए. की परीक्षा देकर दोनों में प्रथम स्थान प्राप्त करके कीर्तिमान बनाने वाले,मात्र २१ वर्ष की उम्र में अंग्रेजी के प्राध्यापक और बाद में कलकत्ता में न्यायाधीश रहे जस्टिस शारदाचरण मित्र(१७ दिसंबर १८४८-४सितम्बर १९१७)देवनागरी लिपि द्वारा राष्ट्रीय एकता का सपना देखने वाले अप्रतिम स्वप्नदर्शी और सूत्रधार थे। राष्ट्रीय चेतना ने उन्हें ‘एकलिपि विस्तार परिषद’ नामक संस्था के गठन की ओर प्रेरित किया। अगस्त १९०५ ई. में कलकत्ता में उन्होंने ‘एकलिपि विस्तार परिषद’ का गठन किया। सर्वत्र,विशेषकर भारतवर्ष में सब भाषाओं के लिए संस्कृताक्षर(देवनागरी) का व्यवहार चलाना तथा बढ़ाना ही इस परिषद् का मुख्य उद्देश्य था। इसके वे प्रथम प्रधान मंत्री थे। इसके सदस्यों में विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर, गुरुदास बनर्जी,महाराजा बहादुर प्रतापनारायण सिंह (अयोध्या),श्रीधर पाठक,बालकृष्ण भट्ट आदि मनीषी थे। उस दौर की हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सरस्वती’ के ‘विविध विषय’ स्तंभ के अंतर्गत आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने परिषद् की नियमावली को ‘उपयुक्त और उचित’ घोषित किया था।
आगे चलकर १९०७ में इस संस्था की ओर से जस्टिस शारदाचरण मित्र ने ‘देवनागर’ नामक पत्र निकाला,जो कुछ बाधाओं के बावजूद १९१७ ई. तक निकलता रहा।
परिषद के गठन से पूर्व जस्टिस शारदाचरण मित्र ने कलकत्ता विश्वविद्यालय इंस्टीटयूट के ऐतिहासिक सभागार में ए यूनिफार्म अल्फाबेट एंड स्क्रिप्ट फॉर इंडिया शीर्षक से अंग्रेजी में व्याख्यान दिया थाl संगोष्ठी की अध्यक्षता गुरुदास बनर्जी (तत्कालीन कुलपति,कलकत्ता विश्वविद्यालय) ने की थीl अध्यक्षीय वक्तव्य में गुरुदास बनर्जी ने शारदाचरण मित्र के राष्ट्रलिपि देवनागरी से संबंधित विचारों का पूर्ण समर्थन किया थाl शारदाचरण मित्र का यह लेख बाद में डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा द्वारा संपादित दि हिन्दुस्तान रिव्यू एंड कायस्थ समाचार के जनवरी १९०५ तथा संयुक्तांक अप्रैल-जून १९०५ के अंकों में प्रकाशित हुआ था। उसी वर्ष इस लेख का हिन्दी अनुवाद ‘भारत मित्र’ (साप्ताहिक) के २ अंकों में छपा था। बाद में न्यायमूर्ति शारदाचरण मित्र के विचारों का सारांश बालकुकुंद गुप्त ने अपने शब्दों में ‘जमाना’ (उर्दू)के अंक में ‘हिन्दुस्तान में एक रस्मुलखत’ शीर्षक लेख के माध्यम से व्यक्त किया था और उनकी प्रशंसा की थी।
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ के फरवरी १९०५ के अंक में अपनी विस्तृत प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा था, “कलकत्ता हाइकोर्ट के न्यायमूर्ति शारदाचरण मित्र एम.ए., बी.एल. चाहते हैं कि इस देश में जितनी भाषाएं हैं,सब एक ही प्रकार की लिपि में लिखी जाएं, यह लिपि संस्कृत की वर्णमाला की भित्ति पर होनी चाहिए अर्थात् देवनागरी अक्षरों में सब प्रान्तिक भाषाएं लिखी जानी चाहिए…अपने प्रस्ताव के समर्थन में न्यायमूर्ति शारदाचरण मित्र ने प्राय: वही बातें कही हैं जो हम अपने ‘देशव्यापक’ के भाषा संबंधी लेख में कह चुके हैं.. लक्षण अच्छे हैं…इस मामले में, जब तक बंगवासी अगुआ न होंगे,तब तक सफलता की कम आशा है।”
न्यायमूर्ति शारदाचरण मित्र का विचार था कि भारत के विपरीत यूरोप और अमेरिका में लिपि की एकरूपता है। लिपि की एकरूपता भारत में भी अनिवार्य है। भारत की वह लिपि देवनागरी ही होनी चाहिए। यूरोप और अमेरिका में रोमन लिपि का जो स्थान है, भारत,वर्मा,श्रीलंका,थाईलैंड और जापान में भी देवनागरी लिपि का वही स्थान होना चाहिए।
तृतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन,कलकत्ता ( दिसंबर १९१२) के तेरहवें प्रस्ताव पर बोलते हुए शारदाचरण मित्र ने कहा था कि भाषा का पार्थक्य देशकाल के अनुसार हुआ है। देश के भेद से भाषा का भेद अपरिहार्य है,पर साहित्य की भाषा एक होनी चाहिए। मैं ८ वर्षों से यह चेष्टा कर रहा हूँ कि नागरी लिपि सारे भारत में प्रचलित हो। संभव है कि हिन्दी भाषा सारे भारत में प्रचलित होने के लिए इसमें परिवर्तन की आवश्यकता हो,पर इस रूपान्तर से हिन्दी की कोई हानि नहीं हो सकती।
निश्चित रूप से ‘देवनागर’ एक अनोखा प्रयोग था। इसमें सभी भारतीय भाषाओं की रचनाएं देवनागरी लिपि में लिप्यंतरित होकर प्रकाशित होती थीं। इसकी ख्याति सम्पूर्ण भारत में थी। उस समय भारत का भूगोल भी आज जैसा नहीं था ‘देवनागर’ में भारत के विस्तार को कश्मीर से कुमारिका अंतरीप और ब्रह्मदेश से गांधार पर्यंत कहा गया है। इस विशाल भू-भाग को एकता के सूत्र में बाँधना ही जस्टिस शारदाचरण मित्र का संकल्प था।
‘देवनागर’ के पहले ही अंक में उसके उद्देश्यों की घोषणा करते हुए विस्तार से लिखा गया है, “जगद्विख्यात भारतवर्ष ऐसे महाप्रदेश में जहाँ जाति-पाँति,रीति-नीति,मत आदि के अनेक भेद दृष्टिगोचर हो रहे हैं,भाव की एकता रहते भी भिन्न-भिन्न भाषाओं के कारण एक प्रांतवासियों के विचारों से दूसरे प्रांतवालों का उपकार नहीं होता। इसमें संदेह नहीं कि भाषा का मुख्य उद्देश्य अपने भावों को दूसरे पर प्रकट करना है,इससे परमार्थ ही नहीं समझना चाहिए,अर्थात मनुष्य को अपना विचार दूसरे पर इसलिए प्रकट करना पड़ता है कि इससे दूसरे का भी लाभ हो किन्तु स्वार्थ साधन के लिए भी भाषा की बड़ी आवश्यकता है। इस समय भारत में अनेक भाषाओं का प्रचार होने के कारण प्रांतिक भाषाओं से सर्वसाधारण का लाभ नहीं हो सकता। भाषाओं को शीघ्र एक कर देना तो परमावश्यक होने पर भी दुस्साध्य सा प्रतीत होता है।
इस पत्र का उद्देश्य है भारत में एक लिपि का प्रचार बढ़ाना और वह लिपि देवनागराक्षर है। देवनागर का व्यवहार चलाने में किसी प्रान्त के निवासी का अपनी लिपि या भाषा के साथ स्नेह कम नहीं पड़ सकता। हाँ,यह अवश्य है कि अपने परिमित मण्डल को बढ़ाना पड़ेगा।”
‘देवनागर’ में बंगला,उर्दू, नेपाली,पंजाबी आदि की रचनाएं देवनागरी में लिप्यंतरित होकर छपती थीं। इसमें पं. रामावतार शर्मा, डॉ. गणेश प्रसाद,शिरोमणि अनंतवायु शास्त्री जैसे मनीषियों की रचनाएं आमतौर पर प्रकाशित होती थीं। गोपालकृष्ण गोखले, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी व मोतीलाल घोष जैसे मनीषियों ने देवनागर की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है।
१९१३ में जस्टिस शारदाचरण मित्र और उनके सहयोगियों द्वारा भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को एक ज्ञापन भी दिया गया था। इसमें कहा गया था कि १९११ की जनगणना के अनुसार भारत की संपूर्ण जनसंख्या ३१५१३२५३७ में से २९४८७५८११ व्यक्ति निरक्षर थे। यद्यपि लिंग और धर्म के अनुसार इस निरक्षरता के प्रतिशत में उतार-चढ़ाव था,फिर भी ९० प्रतिशत पुरुष और ९९ प्रतिशत महिलाएं निरक्षर थीं। ऐसी दशा में भारतीय भाषाओं के लिए एक सार्वजनिक लिपि के प्रश्न पर विचारार्थ भारतीयों और भारतीय हितों का पूर्ण प्रतिनिधित्व करने वाले आयोग का गठन सरकार को करना चाहिए।
शारदाचरण मित्र ने संपूर्ण भारत वर्ष के लिए नागरी लिपि के प्रयोग का प्रस्ताव और उसके लिए संघर्ष उस वक्त चलाया,जिन दिनों रेवरेंड जे. नोल्स जैसे लोग लंदन से संपूर्ण भारत के लिए रोमन लिपि का प्रयोग प्रस्तावित कर रहे थे और ईसाई मिशनरियाँ भारत के कोने-कोने में इसके प्रचार में लगी हुई थीं। बनारस के प्रतिष्ठित पादरी एडविन ग्रीव्ज ने तो शारदाचरण मित्र के प्रस्ताव का तीव्र विरोध किया था,किन्तु शारदाचरण मित्र अपने विचारों पर अंत तक अडिग रहे। उन्होंने भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि ही नहीं, फारसी और अरबी लिपियों का भी अनिवार्य रूप से बहिष्कार करने का सुझाव दिया था।
४ सितंबर १९१७ को शारदाचरण मित्र का देहावसान हो गया। उनके निधन पर ‘सरस्वती’ ने उनके महान योगदान का स्मरण करते हुए लिखा, “देवनागरी लिपि को समस्त भारत में प्रचलित करने के लिए आपने ही यह पहला,और दु:ख है कि अंतिम प्रयास किया। यदि यह जारी रहता तो इससे हिन्दी का ही नहीं,देश का भी बहुत कल्याण होता।”
निधन के बाद जस्टिस शारदाचरण मित्र और उनके योगदान को बंगाल के लोगों ने ही नहीं, हिन्दी भाषियों ने भी तेजी से भुला दिया। हमें खुशी है कि कोलकाता की ‘अपनी भाषा’ संस्था ने वर्ष २००० में उनकी स्मृति में ‘जस्टिस शारदाचरण मित्र स्मृति भाषा सेतु सम्मान’ का शुभारंभ किया। यह सम्मान अपने रचनात्मक अवदान और अनुवाद कार्य द्वारा हिन्दी तथा किसी अन्य भारतीय भाषा और साहित्य के बीच सेतु निर्मित करने वाले साहित्यकार को दिया जाता है। सिद्धेश, शंकरलाल पुरोहित,चंद्रकांत बांदिवडेकर,बी. वै.ललिताम्बा, बी.रा.जगन्नाथन,चमन लाल,ए. अरविन्दाक्षन,बिन्दु भट्ट व बीना बुदकी आदि साहित्यकार इस सम्मान से विभूषित हो चुके हैं। जन्मदिन के अवसर पर इस मनीषी और चिंतक के महान योगदान का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)

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