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परिंदों को मिलेगी मंज़िल यक़ीनन

डॉ.चंद्रेश कुमार छतलानी 
उदयपुर (राजस्थान) 
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वैसे तो हर विधा को समय के साथ संवर्धन की आवश्यकता होती है, लेकिन लघुकथा एक ऐसी क्षमतावान विधा बन कर उभर सकती है जो स्वयं ही समाज की आवश्यकता बन जाये,इसलिए इसका विकास एक अतिरिक्त एकाग्रता मांगता है। हालांकि,इस हेतु न केवल नए प्रयोग करना बल्कि इसकी बुनियादी पवित्रता का सरंक्षण भी ज़रूरी है। विधा के विकास के साथ-साथ बढ़ रहे गुटों की संख्या,आपसी खींचतान में साहित्य से इतर मर्यादा तोड़ते वार्तालाप आदि लघुकथा विधा के संवर्धन हेतु चल रहे यज्ञ की अग्नि में पानी डालने के समान हैं।
कुछ ऐसी ही चिंता वरिष्ठ लघुकथाकार कृष्ण मनु व्यक्त करते हैं अपने आलेख तभी नई सदी में दस्तक देगी लघुकथा में,जो उन्होंने बतौर अतिथि सम्पादक लिखा है परिंदे पत्रिका के लघुकथा विशेषांक (फरवरी-मार्च १९)में। पत्रिका ने साहित्य की सड़कों पर लगातार बढ़ रहे लघुकथाओं के छायादार वृक्षों द्वारा अन्याय-विसंगति आदि की तपाती हुई धूप में भी प्रज्ज्वलित चाँदनी का एहसास करा पाने की क्षमता को समझ कर इस विशेषांक का संकल्प लिया होगा,और उसे मूर्त रूप भी दे दिया और यही संदेश मैंने पत्रिका के आवरण पृष्ठ से भी पाया है।
अपने आलेख में कृष्ण मनु ने कुछ बातें और भी ऐसी कही हैं, उदाहरणस्वरूप,-“विषय का चयन न केवल सावधानीपूर्वक होना चाहिए बल्कि जो भी विषय चुना हो,चाहे वह पुराना ही क्यों न हो उस पर ईमानदारी से प्रस्तुतिकरण में नयापन हो-कथ्य में ताज़गी हो। लघुकथा के मूल लाक्षणिक गुणों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए।” आदि।
यहाँ मैं एक श्लोक उद्धृत करना चाहूँगा,-
“स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम्॥”
अर्थात किसी व्यक्ति को आप चाहे कितनी ही सलाह दे दो,किन्तु उसका मूल स्वभाव नहीं बदलताl ठीक उसी तरह जैसे ठन्डे पानी को उबालने पर तो वह गर्म हो जाता है,लेकिन बाद में वह पुनः ठंडा हो जाता है।“
यही बात लघुकथा पर भी लागू होती है और इस पत्रिका के अतिथि सम्पादक के लेख के अनुसार भी लघुकथा के मूल गुणों को सदैव लघुकथा में होना चाहिए,अर्थात प्रयोग तो हों लेकिन मूलभूत गुणों से छेड़खानी ना की जाये,पानी को उबालेंगे तो वह गरम होकर ठंडा होने की प्रकृति तो रखता ही है,लेकिन यदि पानी में नमक मिला देंगे तो वह खारा ही होगा जिसे पुनः प्रकृति प्रदत्त पानी बनाने के लिए मशीनों का सहारा लेना होगा हालांकि,उसके बाद भी प्राकृतिक बात तो नहीं रहती। शब्दों के मूल में जाने की कोशिश करें तो अपनी यह बात श्री मनु ने कहीं-कहीं लेखन की विफलता को देखते हुए ही कही है,जिसे लघुकथाकारों को संग्यान में लेना चाहिए।
१९७० से २०१५ के मध्य अपने लघुकथा लेखन को प्रारम्भ करने वाले ६३ लघुकथाकारों की प्रथम लघुकथा और एक अन्य अद्यतन लघुकथा (२०१८ की) से सुसज्जित पत्रिका के इस अंक में प्रमुख सम्पादक डॉ.शिवदान सिंह भदौरिया ने स्वच्छता पर अपने सम्पादकीय में न केवल देश में स्वच्छता की आवश्यकता पर बल दिया है,बल्कि जागरूक करते हुए कुछ समाधान भी सुझाए हैं। हालांकि,उन्होंने लघुकथा पर बात नहीं की है लेकिन फिर भी स्वच्छता पर ही जो कुछ लिखा है,उस पर लघुकथा सृजन हेतु विषय प्राप्त हो सकते हैं।
पत्रिका के प्रारम्भ में अनिल तिवारी द्वारा लिए गए दो साक्षात्कार हैं- पहला श्री बलराम का और दूसरा राम अवतार बैरवा का। दोनों ही साक्षात्कार पठन योग्य हैं,और चिंतन-मनन योग्य भी। सभी लघुकथाओं से पूर्व लघुकथाकार का परिचय दिया गया है,जिसमें एक प्रश्न मुझे बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत हुआ-“लघुकथा आपकी प्रिय विधा क्यों है ?” यह प्रश्न लघुकथा पर शोध कर रहे शोधार्थियों के लिए निःसन्देह उपयोगी है और यह प्रश्न पत्रिका के इस अंक का महत्व भी बढ़ा रहा है।
इस पत्रिका में दो तरह की लघुकथाएं देने का उद्देश्य मेरे अनुसार यह जानना है कि,लघुकथा विधा में एक ही साहित्यकार के लेखन में कितना परिवर्तन आया है ? केवल नवोदित ही नहीं,बल्कि वरिष्ठ लघुकथाकारों में से भी कुछ लेखक जो चार-पाँच पंक्तियों में लघुकथा कहते थे,समय के साथ वे न केवल शब्दों की संख्या बढ़ाकर भी कथाओं की लाघवता का अनुरक्षण कर पाये,बल्कि अपने कहे को और भी स्पष्ट कर पाने में समर्थ हुए। हालांकि,इसके विपरीत कुछ रचनाकार ऐसे भी हैं जो लघुकथा के अनुसार अधिक शब्दों में लिखते हुए कम (अर्थाव लाघव) की तरफ उन्मुख हुए। कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि,सामान्यतः परिपक्वता बढ़ी है और बढ़नी चाहिए भी।
एक और विशिष्ट बात,जो मुझे प्रथम और अद्यतन लघुकथाओं को पढ़ते हुए प्रतीत हुई,वह यह कि समय के साथ लघुकथाकारों ने शीर्षक पर भी सोचना प्रारम्भ कर दिया है जो लघुकथा लेखन में हो रहे परिष्करण का परिचायक है।
पत्रिका की छ्पाई गुणवत्तापूर्ण है,लघुकथाओं में भाषाई त्रुटियाँ भी कम हैं जो सफल और गंभीर सम्पादन की निशानी है। कुल मिलाकर यह एक संग्रहणीय अंक है और आश्वस्त हूँ कि साहित्य,संस्कृति एवं विचार के इस द्वैमासिक के “परिंदों को मिलेगी मंज़िल यक़ीनन,ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं।”

 परिचय-डॉ.चंद्रेश कुमार छतलानी का कार्यक्षेत्र उदयपुर (राजस्थान) स्थित विश्वविद्यालय में सहायक आचार्य (कम्प्यूटर विज्ञान)का है। इसी उदयपुर में आप बसे हुए हैं। इनकी लेखन विधा-लघुकथा,कहानी, कविता,ग़ज़ल,गीत,लेख एवं पत्र है। लघुकथा पर आधारित ‘पड़ाव और पड़ताल’ के खंड २६ में लेखक, अविराम साहित्यिकी,लघुकथा अनवरत (साझा लघुकथा संग्रह),लाल चुटकी(साझा लघुकथा संग्रह), नयी सदी की धमक(साझा लघुकथा संग्रह),अपने-अपने क्षितिज (साझा लघुकथा संग्रह)और हिंदी जगत(न्यूयॉर्क द्वारा प्रकाशित)आपके नाम हैं। ऐसे ही विविध पत्र-पत्रिकाओं सहित कईं ऑनलाइन अंतरतानों पर भी रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। 

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