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पेट की आग

ताराचन्द वर्मा ‘डाबला’
अलवर(राजस्थान)
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कौन सुने गरीबों के हित,
पेट की आग सबसे बड़ी है
सूना पड़ा है मन का आँगन,
मंहगाई सिर पर चढ़ी है।

सुलग नहीं रहे हैं चूल्हे,
हांडी भी खाली पड़ी है
भूख से बिलख रहे हैं बच्चे,
कानी कुतिया द्वार खड़ी है।

भूख से लड़ने की ताकत,
अब मुझमें नहीं बची है
दुबके पड़े हैं एक कोने में,
कैसी मुसीबत आन पड़ी है।

अब तो आ जाओ रघुवर,
आँसुओं की लगी झड़ी है
संकट सारे दूर करो तुम,
परीक्षा की विकट घड़ी है।

चोंच दी है चुगने को तुमने,
बस चुग्गे की आस जगी है।
गरीबों के अब तुम ही साथी,
हृदय भीतर तस्वीर जड़ी है॥