कुल पृष्ठ दर्शन : 309

भाषा-लिपि की विविधता और एकरूपता तथा निदान

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
*****************************************************
इंडिया में भाषा की लड़ाई लड़ते हुए लगभग १०० वर्ष से अधिक हो गए हैं,और स्वतंत्र हुए ७० वर्ष से अधिक,भाषा जैसे इस देश में कोई रोग हो गया हैl ऐसा संक्रामक रोग,जिसका इलाज़ सरकारों के पास नहीं हैं और जनता तो जहाँ लाभ देखती है वहां जाती हैl जैसे आज संस्कृत को कोई नहीं पढ़ना चाहता, कान्वेंट संस्कृति ने हिंदी की हालत बहुत दयनीय कर दी हैl
आज जब हम ३ वर्ष के पहले से बच्चों के.जी. में डालते हैं तो वहां अंग्रेजी का माहौल बनाकर उन बच्चों में अंग्रेजी के संस्कार डालते हैं,तो वहां वे अंग्रेजी के अभ्यस्त होते हैं,पर माध्यम, श्रेणी और सामान्य वर्ग में हिंदी का माहौल घर में रहता हैl इस प्रकार अधकचरे ज्ञान वाले हो जाते हैं,और उसी वातावरण में रहकर आगे पढ़ते जाते हैं,जिससे उन्हें अंग्रेजी सुगम महसूस होती है और हिंदी को लेकर उनके मन में उपेक्षा का भाव आने लगता हैl यह बहुत गंभीर समस्या बनती जा रही हैl
भारत जैसी बहुभाषी व बहुलिपि वाले देश में भाषाई समस्या के मद्‍देनजर कई बार कश्मीर से कन्याकुमारी और अरुणाचल से कच्छ तक एक ही लिपि अपनाने की बात कही जाती रही है। राष्ट्रीय एकीकरण और संवाद के सरलीकरण के दृष्टिकोण से प्रथम दृष्ट्‍या यह सोच सही मानी जा सकती है। शायद इसीलिए,इस देश के महान सपूतों ने अपनी लेखनी,अपनी वाणी के माध्यम से इस बात का पुरजोर समर्थन किया हैl राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने ‘हरिजन सेवक’ में लिखा है-‘बंगाली में लिखी हुई गीतांजलि को सिवा बंगालियों के और पढ़ेगा ही कौन ?’ यह निर्दयता नहीं तो और क्या है कि देवनागरी के अतिरिक्त तमिल,तेलुगू,कन्नड़,मलयालम,उड़िया तथा बंगाली इन छ: लिपियों को सीखने में दिमाग खपाया जाए।
आचार्य विनोबा भावे के अनुसार देवनागरी लिपि हमारे लिए रक्षा कवच है। इसी बात को समझाते हुए वे लिखते हैं ‘यदि हम सारे देश के लिए देवनागरी को अपना लें,तो हमारा देश बहुत मजबूत हो जाएगा,फिर तो देवनागरी ऐसा रक्षा कवच सिद्ध हो सकती है,जैसी कोई भी नहीं हो सकती।’
पंडित जवाहरलाल नेहरू का मत थोड़ा-सा जुदा हैl वे लिखते हैं-‘देवनागरी को समूची भारतीय भाषाओं के लिए अतिरिक्त लिपि के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए। इससे एक राज्य के निवासी दूसरे राज्य की भाषाएँ आसानी से सीख सकेंगे,क्योंक‍ि असली कठिनाई भाषा की उतनी नहीं है,जितनी लिपि की है।’ पंडितजी का वक्तव्य उनकी राजनीतिज्ञ-कूटनीतिज्ञ की छवि से बहुत कुछ मेल खाता है। एक शब्द ‘अतिरिक्त’ का प्रयोग कर उन्होंने मध्यम मार्ग अपना लिया है। एक अन्य महान् व्यक्तित्व दयानंद सरस्वती कहते हैं-‘मेरे नेत्र तो वे दिन देखना चाहते हैं,जब कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक नागरी अक्षरों का ही उपयोग और प्रचार होगा।’ जाहिर है स्वामीजी की सोच वर्तमान भारत में देवनागरी के उपयोग के बजाय तत्कालीन भारत जिसमें पाकिस्तान,अफगानिस्तान और बांग्लादेश के बारे में भी रही होगी। कुछ पाश्चात्य दृष्टिकोण वाले विद्वतजन रोमन लिपि के उपयोग के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हैं। वे उपमहाद्वीपीय सोच के बजाय अंतरराष्ट्रीय उपयोगिता के बारे में ज्यादा चिंतित हैं।
ब्रह्मा ने अपनी अक्ल से विभिन्नता का सृजन किया है-वनस्पति जगत और जीव जगत की विविधता से तो आप सब लोग वाकिफ हैं ही। सांस्कृतिक विविधताएँ हमारा मन मोह लेती हैं। सामाजिक विभिन्नताएँ हमें प्रवास करने को उत्प्रेरित करती हैं। हम कुछ नया देखने के लिए नया सुनने के लिए आतुर हो जाते हैं।
सा‍माजिक सरोकार के हर कदम पर नए की जरूरत रहती है तो नई भाषा सीखना भी तो नयापन है,एक सामाजिक जरूरत है, जो मुख और लिपि दो माध्यमों से व्यक्त होती है। हम क्यों बचना चाहते हैं इस नएपन से,जो सामाजिक आवश्यकता के अलावा एक नई चुनौती भी हैl जरूरत है दो चीजों की-लिपि सीखने का व्यवस्थित तरीका और पूर्व ज्ञान का स्थानांतरण(ट्रांसफर और लर्निंग)l दूसरे,यदि हम एक ही लिपि की कोशिश करते हैं तो कुछ वर्ष बाद या ऐसा कहें कुछ पीढ़ियों के बाद लोग अपनी भाषा की मूल लिपि भूल जाएँगे और मूल लिपि में लिखा गया सब कुछ सिंधु घाटी की सभ्यता की लिपि की मानिंद हो जाएगा।
भारत जैसे देश में हमारी मानसिक स्थिति ऐसी नहीं है कि हम दूसरों की चीज आसानी से पचा लें। हमारे लिए दूसरों की खान-पान अपचन का कारण बन जाती है। दूसरों की सांस्कृतिक विरासत सिर्फ नएपन के तौर पर अच्छी लगती है,पर रोजमर्रा की जिंदगी में सिर्फ अपना और सिर्फ अपना ही चाहिए,तब लिपि भी कहाँ अछूती है। हम क्यों छोड़ें अपनी दूसरों के लिए। हर वाक्य हर आम और खास को प्रेरित करेगा सिर्फ अपनी ही अपनाने के लिए।
लिपि के मामले में अंतिम महत्वपूर्ण बात,जो हमारे सामाजिक परिवेश से जुडी हुई है ‘किसी भी प्रांत में मुस्लिम या अन्य धर्म बहुल मोहल्ले में चले जाइए,हर जगह उर्दू या उसी भाषा में लिखे पोस्टर चिपके मिल जाएँगे। इन हर्फों को समझना आपके-मेरे लिए नामुमकिन होगा। जब कुछ लोग अपनी बात कुछ अपनों से ही कहना चाहते हैं,दूसरों के साथ बाँटना नहीं चाहते हों तो क्यों करेंगे नागरी का उपयोग।
लिपि के मामले में समानता की बात करना सिर्फ बेमानी है। पूर्णतया आकाश कुसुम तोड़ने की तरह है,क्योंकि भाषा सीखना न तो ब्रायन लारा की ४०० रनों वाली मैराथन पारी है,न ही एडमण्ड हिलेरी-तेनसिंह नोरके की एवरेस्ट पर चढ़ाई की तरह। यह तो एक छोटी-सी चुनौती है। अज्ञात को ज्ञात करने का अनुभव है,दूसरों की बगलों में झाँकने की कोशिश है,बेगानों को अपना बनाने की स्वैच्छिक प्रक्रिया है। इस चुनौती को खिलाड़ी भावना से ग्रहण करने पर सीख की प्रक्रिया में आनंद आएगा,नए रस का संचार होगा और एकीकरण की प्रक्रिया में सब कुछ गड्‍ड-मड्‍ड हो जाएगा।
इस सबके पीछे मूल कारण जैसे ही देश स्वतंत्र हुआ था उसी समय अन्य राष्ट्रों जैसे हिंदीभाषा को राष्ट्रभाषा घोषित करना था,पर अंग्रेजित मानसिकताधारी नेताओं के कारण नहीं सकाl दूसरी सबसे बड़ी भूल इंडिया की जगह भारत,भारतवर्ष या हिंदुस्तान नामकरण होना थाl अभी भी हम भारतीय असभ्य,गंवार,अशिक्षित और लड़ाकू माने जाते हैं,भरोसा नहीं हो तो आप इंडियन का अर्थ ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोष में ढूंढ लेंl क्या हम अन्य प्रान्तवासियों के कारण हिंदी राष्ट्रभाषा का सपना ही देख पाएंगेl इस कारण अंग्रेजी का बोलबाला बढ़ता जा रहा हैl

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

Leave a Reply