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महिला प्रतिनिधित्व की दयनीय स्थिति ?

ललित गर्ग
दिल्ली
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आज़ादी का अमृत महोत्सव मना चुके राष्ट्र में विधायी संस्थानों लोकसभा एवं विधानसभाओं में महिला प्रतिनिधियों की संख्या दयनीय है, नगण्य है। ७५ वर्षों में लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व १० प्रतिशत तक भी नहीं बढ़ा है, जबकि विधानसभाओं में यह स्थिति और भी चिन्तनीय है, वहां ९ प्रतिशत ही है। इस बार हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद यह मुद्दा फिर सुर्खियों में है कि, वहां ६८ सदस्यीय विधानसभा में सिर्फ १ महिला विधायक होगी। मुख्यधारा की राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व क्यों नहीं बढ़ रहा है, क्यों राजनीतिक दल महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के नाम पर उदासीन है ? आखिर क्या वजह है कि जब संसद में बिना बहस के भी कई विधेयक पारित हो जाते हैं, तब भी संसद और विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कानूनी तौर पर सुनिश्चित कराने को लेकर राजनीतिक पार्टियां गंभीर नहीं दिखती हैं ?
दुनिया का सबसे बड़ा एवं सशक्त लोकतंत्र होने का दावा करने वाला भारत महिलाओं के प्रतिनिधित्व के नाम पर ईमानदारी नहीं दिखा पा रहा है। चिन्तनीय पहलू है कि, चुनावी प्रतिनिधित्व के मामले में भारत, अंतर-संसदीय संघ की संसद में महिला प्रतिनिधियों की संख्या के मामले में वैश्विक क्रम में कई स्थान नीचे आ गया है, जिसमें वर्ष २०१४ के ११७ वें स्थान से गिरकर जनवरी २०२० तक १४३वें स्थान पर आ गया। इस बार के गुजरात एवं हिमाचल प्रदेश के चुनाव में महिला प्रतिनिधित्व के लिहाज से देखें तो स्थिति और दयनीय हुई है। गुजरात में भी पिछले विधानसभा चुनाव में तेरह के मुकाबले इस बार सिर्फ २ महिला प्रतिनिधियों की बढ़ोतरी हुई, जबकि वहां विधानसभा की कुल क्षमता १८२ विधायकों की है और इस बार कुल १३९ महिलाएं चुनाव के मैदान में थीं। अमेरिका में राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ चुकीं हिलेरी क्लिंटन का कहना है, “जब तक महिलाओं की आवाज़ नहीं सुनी जाएगी, तब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं आ सकता। जब तक महिलाओं को अवसर नहीं दिया जाता, तब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं हो सकता।“ आदर्श एवं सशक्त लोकतंत्र के लिए महिला प्रतिनिधित्व पर गंभीर चिन्तन एवं ठोस कार्रवाई जरूरी है।
भारत में महिलाएँ देश की आबादी का लगभग आधा हिस्सा हैं। यूँ तो यह आधी आबादी कभी शोषण तो कभी अत्याचार के मामलों को लेकर अक्सर चर्चा में रहती है, कभी सबरीमाला मंदिर में प्रवेश और तीन तलाक पर कानून के मुद्दों को लेकर महिलाओं की समानता का सवाल उठ खड़ा होता है, लेकिन जब भी हम महिलाओं की समानता की बात करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि किसी भी वर्ग में समानता के लिए सबसे पहले अवसरों की समानता का होना बेहद जरूरी है। यह स्थिति तब है, जब महिलाओं को राजनीति के निचले पायदान से ऊपरी पायदान तक जितना भी और जब भी मौका मिला, उन्होंने अपनी योग्यता और क्षमताओं का लोहा मनवाया है। सोनिया गांधी, मायावती, ममता बनर्जी, निर्मला सीतामरण, वृंदा करात, वसुंधरा राजे, स्मृति इरानी, उमा भारती, अगाथा संगमा, महबूबा मुफ्ती ऐसे चमकते महिला राजनीतिक चेहरे हैं, जो वर्तमान राजनीति को नई दिशा देने को तत्पर है।
जाहिर है, जिस दौर में हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए आवाज उठ रही है, सरकारों की ओर से कई तरह के विशेष उपाय अपनाए जा रहे हैं, नीतियां एवं योजनाओं पर काम हो रहा है, वैसे समय में राजनीति में महिलाओं की इस स्तर तक कम नुमाइंदगी निश्चित रूप से सबके लिए चिंता की बात होनी चाहिए, लेकिन यह केवल हिमाचल प्रदेश या गुजरात जैसे राज्यों की बात नहीं है। लोकसभा में सरकार की ओर से पेश आँकड़ों के मुताबिक आंध्र प्रदेश, असम, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, केरल, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, ओड़िशा, सिक्किम, तमिलनाडु और तेलंगाना में १० फीसद से भी कम महिला विधायक हैं। देश की संसद में थोड़ा सुधार हुआ है, लेकिन आज भी लोकसभा और राज्यसभा में महिला सांसदों की हिस्सेदारी करीब १४ फीसद है।
न्यूज़ीलैंड की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व ५० प्रतिशत का आँकड़ा पार कर गया है। न्यूज़ीलैंड दुनिया के ऐसे आधा दर्जन देशों में से एक है जो वर्ष २०२२ तक संसद में कम-से-कम ५० प्रतिशत महिला प्रतिनिधित्व का दावा कर सकता है। बड़ा तथ्य एवं सच है कि, राष्ट्रीय राजनीति में प्रतिनिधित्व की कसौटी पर अगर कोई सामाजिक तबका पीछे रह गया है तो बाकी सभी क्षेत्रों में उसकी उपस्थिति पर इसका सीधा असर पड़ता है। क्यों नहीं विभिन्न राजनीति दल महिलाओं को सम्मानजनक प्रतिनिधित्व देने की पहल करते। चुनाव के वक्त ये दल महिला प्रतिनिधित्व के अपने वायदों एवं दावों से विमुख हो जाते हैं। इस तरह की कोई पहलकदमी तो दूर, संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए ३३ फीसद आरक्षण सुनिश्चित करने का मुद्दा पिछले करीब ढाई दशक से अधर में लटका है।
भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों में महिला कार्यकर्ताओं की भरमार है, परंतु उन्हें चुनाव लड़ने के लिए जरूरी टिकट नहीं दी जाती है और हाशिए पर रखा जाता है।
हालांकि, भारतीय राजनीति में महिलाओं के इस दयनीय प्रतिनिधित्व के लिए और भी कई कारण जिम्मेदार हैं। जैसे चली आ रही लिंग संबंधी रूढ़ियाँ, राजनीतिक सम्पर्क की कमी आदि। भारत शिक्षा प्राप्ति के क्षेत्र में ११२वें पायदान पर है, जिससे पता चलता है कि राजनीति में महिलाओं की सहभागिता में शिक्षा एक गंभीर साझेदारी अदा करती है।
महिलाओं की सामाजिक गतिशीलता, शिक्षा से काफी प्रभावित हो रही है। शैक्षिक संस्थानों में दी जाने वाली औपचारिक शिक्षा, लोगों में नेतृत्व के अवसर और महत्वपूर्ण नेतृत्व क्षमता पैदा करती है। राजनीतिक ज्ञान की कमी के कारण महिलाएं अपने बुनियादी और राजनीतिक अधिकारों से बेखबर है। जरूरत है महिलाएं अपनी सोच को बदलें। उन्हें खुद हिम्मत करनी ही होगी, साथ ही समाज एवं राजनीतिक दलों को भी अपने पूर्वाग्रह छोड़ने के लिए तैयार करना होगा। इससे न केवल महिलाओं का, बल्कि पूरे देश का संतुलित विकास सुनिश्चित किया जा सकेगा। बाबा साहेब आंबेडकर ने भी कहा था कि “मैं महिलाओं के विकास की स्थिति को ही समाज के विकास का सही पैमाना मानता हूँ।” नए भारत एवं सशक्त भारत को निर्मित करते हुए हम राजनीति में महिलाओं की भागीदारी पर सकारात्मक पहल करते हुए उन्हें बराबरी नहीं, तो एक तिहाई हिस्सेदारी दें।

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