वाणी वर्मा कर्ण
मोरंग(बिराट नगर)
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इस सुंदर पृथ्वी पर,
एक मानव ही है
जिसकी खोती जा रही पहचान,
भूलता जा रहा अपना अस्तित्व।
संपूर्ण जगत में,
प्रत्येक प्राणी में
उनका अपना स्वाभाविक गुण है,
बस मानव ही ऐसा है
जिसमे मानवता नहीं।
केवल मस्तिष्क है,
एक विकृत सोच है
अमानवीय व्यवहार है,
दोहरा चरित्र है
भावनाएं शून्य है,
आचार विचार भ्रष्ट है
रिक्त सम्बंध है।
मार-काट करने को आतुर,
ये कैसा मानव है
जिसमें मानवता नहीं,
पशु से भी नीच स्तर का
ये कैसा मानव है ?
क्या ऐसा ही था इसका स्वरूप,
धरा का सबसे बुद्धिजीवी प्राणी
इस प्रकार क्यों परिवर्तित हुआ,
सोचें हम,विचारें हम।
देवत्व से दानवता की ओर,
क्यों हमने रुख किया
स्वयं का सर्वनाश किया।
फिर से सतयुग लाएं,
मानवता बचाएँ॥