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मानव जीवन में योग साधना का महत्व

डॉ.धारा बल्लभ पाण्डेय’आलोक’
अल्मोड़ा(उत्तराखंड)

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सृष्टि के समस्त प्राणियों में मानव जीवन सर्वश्रेष्ठ और सर्वगुण सम्पन्न है। सभी योनियों में भोग लीला की समाप्ति के बाद मानव जीवन धर्म और कर्म करने के लिए प्राप्त होता है, जिसका मूल लक्ष्य दुःख निवृत्ति एवं नित्य सुख की प्राप्ति है। यह नित्य सुख अपने कारण स्वरूप को जानने और साक्षात्कार होने पर प्राप्त होता है किन्तु यह कार्य साधनाओं के फलस्वरूप ही सम्पन्न होता है। सुवर्ण बार-बार पिटकर, आग में तपकर, संस्कारों में ढल कर तथा बालू में मँजकर ही गले का हार बनकर चमकता है। मृदा खुदकर, छनकर, भीगकर, पिटकर व साँचे में ढल कर ही घट का स्वरूप प्राप्त करती है तथा आवड़े में पक कर ही स्थिरता, सशक्ता, शुद्धता व उपयोगिता प्राप्त कर जल ग्रहण करने की क्षमता तथा होंठों से लगकर प्यास बुझाने की क्षमता प्राप्त करती है। इसी तरह मानव जीवन भी उच्चता अर्थात् अपने कारण स्वरूप ईश्वर का ज्ञान, साक्षात्कार तथा नित्य सुख विभिन्न साधनाओं द्वारा ही प्राप्त करता है। साधनाओं का ज्ञान अनुभवों तथा साधना तत्वों की सरलतम विवेचना से प्राप्त होता है।
साधनाओं का जीवन में बहुत अधिक महत्व है। लौकिक सुख-शांति, ऐश्वर्य, समृद्धि, आनन्द, सफलता तथा पारलौकिक सुख-अन्तर्शुद्धि, आत्मसाक्षात्कार, स्वर्ग, मुक्ति, ब्रह्मदर्शन एवं अमृतत्व आदि की सभी सफलताएं साधना से ही संभव है। साधनाओं के बिना दैव के भरोसे बैठे रहने से कोई सफलता नहीं मिलती है क्योंकि मनुष्य कर्म प्रधान है। उसे निष्काम भाव से फलेच्छा के बिना सोद्देश्य एवं उपयोगी कर्म निरन्तर करते रहना चाहिए। दैव फल तो संचित कर्मों का फल है। वह अच्छा हो या बुरा अनचाही स्थिति में भी मिलकर ही रहेगा। यह भी निसंदेह सत्य है कि निरन्तर सत्कर्मों में प्रवृत्ति होने से दैव के शुभ फल प्रबल तथा अशुभ फल दुर्बल हो जाते हैं, लेकिन निरन्तर दुष्कर्मों में प्रवृत्ति होने से अशुभ फल प्रबल तथा शुभ फल दुर्बल हो जाते हैं। यही कारण है कि मानव कभी अपने को सफलताओं की ही श्रंखला में पाता है और कभी असफलताओं की श्रंखला में। इसीलिए प्राचीन काल से ही मनीषियों ने निरन्तर सत्कर्म करने एवं साधना परायण होने का उपदेश दिया है। बालक, युवा, वृद्ध, रोगी, स्वस्थ, व्यस्त, निवृत, प्रवृत्त सभी अपनी-अपनी स्थिति के अनुकूल तथा सामर्थ्य के अनुसार साधना कर सकते हैं और ऐच्छिक सफलताएं प्राप्त कर सकते हैं।
साधना का मुख्य स्तम्भ-चित्त (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) सूक्ष्म शरीर है। यही चित्त स्थूल शरीर को अपनी इच्छाओं के अनुकूल यंत्रवत उपयोग करता है तथा यही चित्त कारण शरीर पर अधिपत्य जमाकर स्वयंभू शासक बनना चाहता है। इसी की सत्प्रवृत्तियों या दुष्प्रवृत्तियों के कारण जीवन (तीनों शरीरों का समन्वित रूप) सन्मार्गी या कुमार्गी बनता है। आत्मा प्रबल अथवा दुर्बल बनती है तथा शरीर स्वस्थ अथवा रोगी बनता है। अतः चित्त-वृत्तियों का निरोध एवं चित्त व शरीर की शुद्धता ही साधना का मुख्य लक्ष्य है। इसी से परम शांति एवं नित्य सुख की प्राप्ति होती है।
साधना द्वारा आत्म कल्याण की आकांक्षा करने वाले श्रेय-मार्गियों के लिए यह आवश्यक है कि वे वासना व तृष्णा का निरन्तर त्याग करना सीखें। आध्यात्मिक संपदाओं का महत्व समझते हुए उनकी ओर प्रेम बढ़ाएं। जिसके मन में लोभ, मोह, वासना, तृष्णा आदि जितनी प्रबल होती है उसका मन भगवान की ओर एवं सत्कर्मों व आत्मचिन्तन की ओर उतना ही कम लगता है। यदि लौकिक वासनाएं एवं तृष्णाएं अधिक होंगी तो आत्मोद्धार की तत्परता कहाँ से होगी और यदि आत्मकल्याण ही जीवन का लक्ष्य हो तो वासनाओं एवं तृष्णाओं की तृप्ति कैसे होगी। अतः ये दोनों लक्ष्य विरोधी हैं। एक की प्राप्ति हेतु दूसरे के प्रति विमुख होना ही पड़ेगा। जीवन का शाश्वत लक्ष्य आत्मोद्धार है। केवल मानव जीवन ही नहीं, वरन पूरी सृष्टि की मर्यादा ही उर्ध्वमार्गी, सुखकारी, निर्मलता, स्वच्छंदता एवं बंधन मुक्त होना है, लेकिन मानव भ्रम, स्वार्थ, अज्ञान एवं संकीर्णताओं के कारण असत्, अधर्म, अशुद्ध व बंधनों को सत्य एवं सुखकारी मान कर उनमें लिप्त हो जाते हैं। यही भ्रम संसार मोह का कारण एवं कर्मजाल बन बैठता है। चूंकि आत्म-कल्याण की भावना से उन्नत कर्म करना ही साधना है। इसलिए साधना किसी भी तरह की हो वह जीवन के लिए उपयोगी ही है।
भक्तिमार्गीं, ज्ञानमार्गीं, कर्त्तव्यपरायणता, सेवासाधना, आत्मचिन्तन, इन्द्रियनिग्रह, व्रतोपवास, संध्योपासना, जप एवं ध्यान साधना आदि सभी साधना कल्याणकारी ही हैं, लेकिन योग साधना का इन साधनाओं के क्षेत्र में विशेष महत्व है। योग साधना के अन्तर्गत सभी साधनाओं को सम्मिलित किया गया है।
यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो योग उस वृक्ष के मूल की भाँति प्रतीत होता है जिसकी शाखाओं, उपशाखाओं व पत्तियों की भाँति सभी साधनाएं उससे जुड़ी हुई हैं। मंत्रयोग, हठयोग, लययोग और राजयोग इसकी चार मुख्य शाखाएं हैं, जो क्रमशः भक्ति, कर्म, ध्यान व ज्ञान की प्रधानताओं से जुड़ी है। यही साधना की क्रमशः ४ अवस्थाएं भी कही जा सकती हैं। इन्ही चार अवस्थाओं के क्रमिक अभ्यास से साधक स्वयं अनुभव के द्वारा तत्वज्ञान प्राप्त करता है।
मानव जीवन में योग का महत्वपूर्ण स्थान है। मनुष्य को आध्यात्मिक उन्नति का पूर्ण अधिकारी बनाने के लिए योग का साधन परम आवश्यक है। योग के द्वारा मन स्थिर, उन्नत तथा स्वस्थ शरीर होकर आध्यात्म मार्ग पर चलने के योग्य होता है। अध्यात्ममार्ग भवबंधनों से मुक्ति दिलाने वाला, ज्ञान प्राप्ति कराने वाला तथा नित्य सुख व परमानन्द की प्राप्ति कराने वाला है। यही कारण है कि सृष्टि के आरंभ से आज तक यह शाश्वत योग किसी न किसी रूप में अनवरत रूप से चला आ रहा है।
मानव जीवन सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ और देव दुर्लभ है।
साधना से ही वृत्तियों का निरोध होता है, क्लेश क्षीण होते हैं, विवेक ख्याति की प्राप्ति होती है और चित्त समाहित होकर सन्मय, चिन्मय व आनन्दमय तत्त्व को प्राप्त होता है। इस तरह साधना से प्राप्त निर्मल और आनन्दमय तत्त्व को प्राप्त होता है। साधना से प्राप्त निर्मल अन्तःकरण में उज्जवल निर्मल और शीतल ईश्वरीय ज्योति आविर्भूत होती है। यह ईश्वरीय ज्योति जीवात्मा की आवरण रहित, बंधन मुक्त, शुद्ध, प्रकाशमान एवं तेजीमय अवस्था है। यही अवस्था मोक्ष, योग एवं समाधि की प्राप्ति है। इसी अवस्था को प्राप्त करके परमानन्द की अनुभूति एवं नित्य सुख की प्राप्ति होती है। यही पूर्णयोग विष्णु परमधाम व वैकुण्ठकी प्राप्ति है, जहाँ योग का सरल अर्थ है मिलन।
योग से ही संयोग और वियोग शब्द उत्पन्न हुए हैं। संसार का मोह जाल इसी संयोग और वियोग का कारण है। परिवार, समाज, रिश्ते-नाते, धन-संपत्ति आदि का मनुष्य के साथ जो संयोग है उसके साथ ही वियोग भी लगा है। जिस योग के पीछे वियोग लगा हुआ है वह योग स्थाई नहीं रहता अर्थात् उसका वियोग निश्चित है, परन्तु जो योग चिरस्थाई और शाश्वत है उसके साथ मिलन व संयोग भी स्थाई होता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि संसार की प्रत्येक वस्तु नश्वर है। केवल ईश्वर ही शाश्वत, सर्वशक्तिमान और नित्य है। अतैव ईश्वर के साथ जीवन का जो मिलन होता है वही वास्तविक योग है। यही योग मानव जीवन का चरम लक्ष्य, भवबन्धन मुक्ति तथा अमरत्व की प्राप्ति है।
व्यक्तिगत जीवन में चरित्र, शरीर, मस्तिष्क, स्वास्थ्य आदि की दृष्टि से, सामाजिक जीवन में सभ्यता, व्यवहारिकता, परोपकारिता, समाजसेवा, कर्तव्यनिष्ठा आदि की दृष्टि से और पारलौकिक जीवन में परमशांति, शाश्वत सुख, आत्म चिन्तन, आत्म निरीक्षण, ईश्वर दर्शन, स्वर्ग एवं मोक्ष प्राप्ति आदि की दृष्टि से ये ८ अंग अत्यन्त उपयोगी हैं। इन्हीं साधनांगों की साधना से योगी क्रमशः सफलता की ओर गमन करते हुए सिद्धावस्था व कैवल्यावस्था की प्राप्ति करता है।
चित्तवृत्तियों का निरोध करने से पूर्व चित्त का स्वरूप जानना अति आवश्यक है। योग दर्शन में चित्त का अभिप्राय मन, बुद्धि और अहंकार इन तीनों से है। ये तीनों का समूह रूप चित्त सदा चंचल, हठीला और बलवान है जो निरन्तर स्वतंत्र रखने पर जल की भाँति निचले सतह की ओर ही चलता है। अतः उसे अधोमार्ग से रोक कर उर्ध्वमागी बनाने के लिए निरन्तर प्रयत्न करना पड़ता है ताकि यह चित्त कभी भी आत्मा से दूर और विमुख न हो। यही प्रयत्न योग में अभ्यास कहा है। इस अभ्यास के अन्तर्गत साधना की सभी क्रिया आ जाती है।
श्रीमद्भागवद् गीता में अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण से कहते हैं ‘हे कृष्ण, यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन (हठीला) और दृढ़ है इसको कैसे वश में करना है ?’ श्रीकृष्ण समझाते हैं, ‘हे महाबाहु निश्चय ही यह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। इसलिए हे कौन्तेय, अभ्यास और वैराग्य से यह वश में होता है। अतः इसे अवश्य वश में करना चाहिए क्योंकि मन को वश में न करने वाले पुरुष के लिए योग दुष्प्राप्य है। स्वाधीन मन (आत्मा के अधीन) वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन करने से यह योग प्राप्त होना स्वाभाविक और सहज है यह मेरा मत है।’
योग का प्रधान लक्ष्य एक ही है किन्तु मार्ग कई हैं। भगवान हिरण्यगर्भ द्वारा उपदिष्ट योग ब्रह्म योग और कर्म योग दो भागों में विभक्त हुआ जो क्रमशः ‘विहंगम मार्ग’ और ‘पिपीलिका मार्ग’ कहे जाते हैं। इन्हीं दो मार्गों से क्रमशः सद्योमुक्ति और क्रममुक्ति की प्राप्ति होती है, किन्तु सनातन ब्रह्म योग (अव्यय योग) सर्व सुलभ नहीं है क्योंकि समस्त जन संसार में स्वभावतः बर्हिमुख ही उत्पन्न होते हैं। उनमें कोई विरला योगी ही अमृतत्व की कामना से अर्न्तमुख होकर प्रत्यगात्मा को देखता है। कहने का भाव यह है कि संसार चक्र में इस मानव देह में अधिकांश वही आते हैं जो निम्न योनियों में अपने पापकर्मों का भुगतान किए होते हैं। अतः योग के मार्ग पर चलने हेतु उनके लिए कर्म योग ही उचित माना जाता है। कुछ सीमित एवं विरले लोग ही ऐसे होते हैं जो समाहित चित्त वाले होते हैं। ऐसे मानवों की योग की पूर्व साधनाएं अर्थात् अष्टांग योग व कर्मयोग की साधनाएं पूर्व जन्मों में ही हो चुकी होती है। रामकृष्ण परमहंस, शुकदेव मुनि, ईसा मसीह, गुरुनानक, मुहम्मद साहब, महावतारयोगी ऐसे ही समाहित चित्त के योगी समझे जाते हैं। अतः स्वभावतः बहिर्मुख मानव अथवा व्यित्थत चित्त योगी के लिए यह कर्मयोग शाखा ही महत्वपूर्ण है। इसी के क्रमशः निरन्तर अभ्यास से साधक समाहित चित्तावस्था को प्राप्त कर ब्रह्मयोग का साधक बन सकता है।
आज विश्व इस महामारी के दौर से गुजर रहा है। कोरोना की इस वैश्विक आपदा में भी योग शरीर में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने तथा अंगों को सशक्त बनाने में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है। सामान्य जनजीवन में योग के कुछ अंग व उपांग यथा- स्वच्छता, शुद्धता, मिताहार, पोषाहार, विभिन्न आसन व मुद्रायें, विभिन्न प्राणायाम, धारणा व ध्यान का निरंतर अभ्यास वर्तमान परिस्थितियों में जीवन रक्षा के लिए अत्यंत उपयोगी है। इस महामारी से बचने के लिए सरकार द्वारा दिए गए निर्देशों का पूर्णतः पालन और इस प्रकार योग हर दृष्टिकोण से मानव जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। यह योग शरीर, मन और आत्मा में शुद्धता, शांति, सद्भाव, स्वस्थ व सुखी जीवन के लिए लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार से बहुत लाभप्रद है। अतः नित्य योग करें और स्वस्थ व सुखी रहें।

परिचय–डॉ.धाराबल्लभ पांडेय का साहित्यिक उपनाम-आलोक है। १५ फरवरी १९५८ को जिला अल्मोड़ा के ग्राम करगीना में आप जन्में हैं। वर्तमान में मकड़ी(अल्मोड़ा, उत्तराखंड) आपका बसेरा है। हिंदी एवं संस्कृत सहित सामान्य ज्ञान पंजाबी और उर्दू भाषा का भी रखने वाले डॉ.पांडेय की शिक्षा- स्नातकोत्तर(हिंदी एवं संस्कृत) तथा पीएचडी (संस्कृत)है। कार्यक्षेत्र-अध्यापन (सरकारी सेवा)है। सामाजिक गतिविधि में आप विभिन्न राष्ट्रीय एवं सामाजिक कार्यों में सक्रियता से बराबर सहयोग करते हैं। लेखन विधा-गीत, लेख,निबंध,उपन्यास,कहानी एवं कविता है। प्रकाशन में आपके नाम-पावन राखी,ज्योति निबंधमाला,सुमधुर गीत मंजरी,बाल गीत माधुरी,विनसर चालीसा,अंत्याक्षरी दिग्दर्शन और अभिनव चिंतन सहित बांग्ला व शक संवत् का संयुक्त कैलेंडर है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बहुत से लेख और निबंध सहित आपकी विविध रचनाएं प्रकाशित हैं,तो आकाशवाणी अल्मोड़ा से भी विभिन्न व्याख्यान एवं काव्य पाठ प्रसारित हैं। शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न पुरस्कार व सम्मान,दक्षता पुरस्कार,राधाकृष्णन पुरस्कार,राज्य उत्कृष्ट शिक्षक पुरस्कार और प्रतिभा सम्मान आपने हासिल किया है। ब्लॉग पर भी अपनी बात लिखते हैं। आपकी विशेष उपलब्धि-हिंदी साहित्य के क्षेत्र में विभिन्न सम्मान एवं प्रशस्ति-पत्र है। ‘आलोक’ की लेखनी का उद्देश्य-हिंदी भाषा विकास एवं सामाजिक व्यवस्थाओं पर समीक्षात्मक अभिव्यक्ति करना है। पसंदीदा हिंदी लेखक-सुमित्रानंदन पंत,महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’,कबीर दास आदि हैं। प्रेरणापुंज-माता-पिता,गुरुदेव एवं संपर्क में आए विभिन्न महापुरुष हैं। विशेषज्ञता-हिंदी लेखन, देशप्रेम के लयात्मक गीत है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का विकास ही हमारे देश का गौरव है,जो हिंदी भाषा के विकास से ही संभव है।”

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