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मेरी इच्छा

रत्ना बापुली
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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तू है प्रभु पारस,
कलुषित है मेरा तन-मन
एक बार ही छू ले तू अगर,
मन हो जाए कंचन।

वृक्ष बना ले मुझको प्रभु,
जैसे पेड़ हो चंदन
लिपटी रहूं सर्प सम दुश्मन,
फिर भी न हो परिवर्तन।

मन को बना प्रस्तर सम,
भावहीन व बंजर
कोई वेदना कर न सके,
मन को मेरे जर्जर।

फलदार दरख़्त-सी बनूं मैं,
खाऊँ चोट व प्रहार
बदले में दूँ उसको फल,
मीठे व रसदार।

दीप-सा प्रभु बना मुझे,
जलूं मैं आठों प्रहर
आलोकित करूँ मैं जग,
अंतिम साँस तक जल-जल।

घंटा मुझे बना दे प्रभु,
बनूं समय का साज
चोट खाकर बजती रहूँ,
करूँ मधुर आवाज।

लय-ताल सा छंद गढूँ,
बनूँ तबले की थाप
खाऊँ चांटा औरों से,
पर करूँ न मैं अनुताप।

हरी दूब-सी बनकर मैं,
फैलूं धरणी के वक्ष
पैरों से रौंदा जाऊँ पर,
त्यागूं न अपना स्व कक्ष।

इतनी हिम्मत देना प्रभु,
कभी न त्यागूं आश।
असमय मृत्यु न करूँ वरण,
स्वजन की न बनूं फाँस॥