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राजनीतिक गुस्से का प्रतिशोध प्रतिमाओं से क्यों ?

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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राजनीतिक आक्रोश या हताशा का प्रतिशोध महापुरूषों की प्रतिमाओं से लेना नई बात नहीं है,लेकिन देश की राजधानी नई दिल्ली में प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में स्थापित स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा को तोड़े जाने का कोई औचित्य समझ नहीं आता,क्योंकि विवेकानंद न तो किसी दल के संस्थापक या प्रचारक थे,न ही आज के सियासी आग्रह-दुराग्रहों से उनका कोई लेना-देना था। वे तो इस देश में पुनर्जागरण के अग्रदूत थे। उनकी मूर्ति को खंडित करके हम किस बौद्धिकता का संदेश देना चाहते हैं,समझ से परे है। अपनी विचारधारा और मान्यताओं के अनुरूप सभी को प्रतिमाएं लगाने और पूजने का हक है,लेकिन जड़बुद्धि होकर किसी भी प्रतिमा को तोड़ना और उसमें अपनी वीरता समझना बाप के अपराध का बदला बेटे से लेने जैसा है।
बेशक,इन दिनों जेएनयू में फीस वृद्धि को लेकर छात्र आंदोलित हैं। फीस वृद्धि के खिलाफ उनके अपने जायज तर्क और प्रबंधन से नाराजी भी है। छात्र आंदोलन के बाद विवि ने फीस कुछ कम भी की है। यह पूरी तरह पहले के बराबर हो या न हो,इस पर बहस और बातचीत की गुंजाइश है, लेकिन जो छात्र अपनी मांगों को लेकर अपने ‍ही विवि में तोड़-फोड़ कर रहे है, उसे कैसे जायज माना जा सकता है ? इसी तोड़-फोड़ की चपेट में स्वामी विवेकानंद भी आ गए,जबकि उनकी इस आदमकद प्रतिमा का अनावरण भी नहीं हुआ है। उत्पाती तत्वों ने प्रतिमा के नीचे बेहद अभद्र भाषा में नारे भी लिखे,जिसमें स्वामी विवेकानंद को ‘भगवा’ प्रतीक बताया गया है। यह सही है कि आजादी के बाद भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देश के जिन महापुरूषों को ‘हाई जैक’ किया,उनमें स्वामी विवेकानंद भी हैं,लेकिन सिर्फ इसी आधार पर तो विवेकानंद के विरोध का कोई औचित्य नहीं है,क्योंकि विवेकानंद के समय में न तो भाजपा थी और न ही रास्सं था। अगर हिंदुत्व की ही बात करें तो स्वामी जी प्रगतिशील और तार्किक हिंदुत्व के पक्षधर रहे हैं न कि पोंगापंथी हिंदुत्व के। हालांकि,अभी यह स्पष्ट नहीं है ‍कि विवेकानंद की प्रतिमा किसने तोड़ी,लेकिन जिसने भी तोड़ी,उसका विवेक से सम्बन्ध नहीं होगा,यह तय मानिए।
अभी ज्यादा समय नहीं हुआ,जब कोलकाता में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की चुनाव रैली के दौरान नामी विद्यासागर काॅलेज में १९वीं सदी के महान दार्शनिक, समाज सुधारक और लेखक ईश्वरचंद विद्यासागर की मूर्ति तोड़ दी गई थी,जिसके लिए टीएमसी ने भाजपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों पर आरोप लगाया था। वहां मुख्‍यमंत्री ममता बैनर्जी और भाजपा ने भी इसे चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की थी। अलबत्ता मूर्ति जिस किसी ने भी तोड़ी,उसकी मानसिकता जरूर उजागर हो गई। हालांकि,दो महीने बाद मुख्यमंत्री ने वहां विद्यासागर जी की नई प्रतिमा लगवा दी है। उन्हीं विद्यासागर की पंच धातु की प्रतिमा लगवाने का वादा प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने किया था,उसका क्या हुआ,पता नहीं चला।
इसी तरह वैचारिक विद्वेष का निशाना देश के २ और महापुरूष बने। ये हैं ब्राह्मणवाद के घोर विरोधी तमिल नेता रामास्वामी पेरियार और हिंदुत्व के पैरोकार श्यामाप्रसाद मुखर्जी। पिछले दिनों इनकी प्रतिमाअों को विरूपित करने की निंदनीय कोशिश हुई। इतना ही नहीं,प्रतिमाअों के माध्यम से अपनी सोच थोपने और दूसरे की सोच को खारिज करने का अजब कोण मप्र की राजधानी भोपाल में देखने को मिल रहा है। यहां एक तिराहे पर क्रांतिकारी चंद्र शेखर आजाद की प्रतिमा की जगह पर कांग्रेस के दिग्गज नेता व पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह की मूर्ति लगवाई जा रही है। मजे की बात यह है कि,आजाद की प्रतिमा को अपने मूल स्थान से हटाकर बाजू में इसलिए स्थापित किया गया, क्योंकि इससे यातायात में बाधा उत्पन्न हो रही थी। अब यह समझना कठिन है कि,उसी जगह नई प्रतिमा लगने से यातायात सुचारू कैसे चलने लगेगा ? इससे भी विचित्र बात यह है कि नई स्थिति में अर्जुनसिंह की आदमकद प्रतिमा की तरफ में लगी आजाद की प्रतिमा हैरानी से तकती नजर आ रही है। यह शायद इतिहास का भी मजाक बनाना है। भोपाल में अर्जुनसिंह की भव्य प्रतिमा लगे,समुचित स्थान पर लगे, इसमें दो राय नहीं,क्योंकि भोपाल के विकास में उनका बड़ा योगदान है, लेकिन एक क्रांतिवीर का प्रतिस्थापन दूसरे विकास वीर से करने की कोशिश को आप क्या कहेंगे ?
कई बार सत्ता परिवर्तन प्रतिमाअों के लिए भी शामत का संदेश लेकर आता है। मसलन, पिछले साल त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में भाजपा की शानदार जीत के बाद राज्य में लगी मार्क्सवादी नेता लेनिन की प्रतिमा को बुलडोजर से ढहा दिया गया और जय श्री राम के नारे लगे। यह भी सही नहीं था। राज्य में सरकार भले बदल गई हो, लेकिन इतिहास से लेनिन को कैसे मिटाया जा सकता है ? हालांकि,यह बात भी उतनी ही सच है कि जिस सोवियत रूस में पहली साम्यवादी क्रांति हुई,वहीं अब उस क्रांति के महानायक लेनिन का कोई नामलेवा नहीं बचा है। ३ दशक पहले तक देश भर में लगी,लेनिन की ७ हजार प्रतिमाएं या तो ढहा दी गई हैं या फिर कहीं कबाड़खाने में हैं। सोवियत रूस से अलग हुए देशों ने तो लेनिन की प्रतिमा को कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद का प्रतीक मानकर सभी स्थानों से हटा या ढहा दिया।
दरअसल,राजनीतिक झड़प और वैचारिक प्रतिद्वंद्विता में उन विभूतियों की प्रतिमाओं की बलि चढ़ना या चढ़ाना,जिन्हें देश का बहुत बड़ा वर्ग अपना प्रेरणा स्रोत मानता है,अत्यंत संकुचित सोच और घोर असहिष्णुता का लक्षण है। हालांकि,यह तय करना भी आसान नहीं है कि आखिर किसे महान माना जाए और किसे नहीं। सबके अपने-अपने महानायक और प्रेरणा पुरूष हो सकते हैं। यूँ भी किसी नए विचार का प्रतिपादन तो कोई एक व्यक्ति ही करता है,बाद में उसके अनुयायी केवल उसमें आडम्बर जोड़ कर विचार को कर्मकांड में बदलने लगते हैं। महानायक को भगवान की तरह पूजने और उसे सर्व स्वीकार्य बनाने की कोशिश की जाती है। ऐसा करते समय तर्क में अंध श्रद्धा और अंध श्रद्धा में तर्क इस तरह गड्डमड्ड हो जाते हैं,जैसे गंध और गुलाब। बावजूद इसके भारतीय विचार शैली में विचारों और प्रतिमाअों के मंडन और खंडन की ऐसी विध्वंसक और शत्रुतापूर्ण परम्परा नहीं रही है। यानी,हम जिसे नहीं मानते,उसे सिरे से खारिज भी नहीं करते। ‘मैं ही सही और तू ही गलत’,की सोच उन प्रतिमाओं में भी नहीं झलकती,जिनकी स्थापना हमारे पूर्वज करते आए हैं। वस्तुत: जीवन के समूचे कार्य व्यापार को एक ही चश्मे से देखना और उसे ही सम्पूर्ण दृष्टि मान लेना वैचारिक भेंगापन है। वैसे भी प्रतिमाएं तो निर्जीव होती हैं। हमारे मन का भाव उन्हें सजीव बनाता है। आजाद भारत में दो ऐसे महापुरूष हैं,जिनकी प्रतिमाओं को अक्सर तोड़ा या छेड़ा जाता रहा है,ये हैं महात्मा गांधी और दूसरे हैं बाबा साहब आम्बेडकर,क्योंकि ये दो हस्तियां ऐसी हैं,जो हर वैचारिक दुराग्रह को खुलकर चुनौती देती प्रतीत होती हैं। जो और जिस मानसिकता के लोग इन दो विभूतियों का वैचारिक विध्वंस नहीं कर पाए,वो शायद उनकी प्रतिमाएं तोड़कर ही खुश हो लेते हैं। क्या स्वामी विवेकानंद के मूर्ति भंजन के पीछे भी यही सोच है ?