कुल पृष्ठ दर्शन : 232

‘चुनावी गुप्तदान’ में छिपे पारदर्शी सवाल….

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

*****************************************************************

राजनीतिक दलों की चंदा उगाही में पारदर्शिता लाने के नाम पर मोदी सरकार द्वारा पिछले साल जारी चुनावी (इलेक्टोरल बांड)अनुबंध को लेकर संसद के दोनों सदनों में सियासी बवाल मचा है। कारण पारदर्शिता के नाम पर इसकी अपारदर्शिता,चंदा कौन दे रहा है,कैसे दे रहा है,यह बताने की जरूरत नहीं। बैंकों से बांड खरीदो और राजनीतिक दलों को दो। पार्टी पन्द्रह दिनों में इस पैसे को अपने खाते में जमा कर लेती है। आम भाषा में कहें तो यह एक तरह का सियासी ‘गुप्तदान’ है। न देने वाला बोलता है,और न ही लेने वाला। लोकसभा में कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने चुनावी बांड का मुद्दा उठाते हुए कहा कि इसके जरिए सरकारी भ्रष्टाचार को स्वीकृति दे दी गई है। बकौल तिवारी इस देश में २०१७ से पहले(राजनीतिक चंदा उगाही का) एक मूलभूत ढांचा था,जिसके तहत धनी लोगों का पैसे के माध्यम में भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप पर एक नियंत्रण था,लेकिन जब से मोदी सरकार ने ये अज्ञात चुनाव बॉन्ड जारी करने की व्यवस्‍था लागू की है,तब से न दानदाता का पता है,और न ही दान लेने वाले का। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे ‘न्यू इंडिया’ की नई रिश्वत और कमीशनखोरी करार दिया है। कांग्रेसी सांसद शशि थरूर ने आशंका जताई कि,चुनावी बांड के जरिए कारोबारी और अमीर लोग सत्ताधारी दल को चंदा देकर राजनीतिक हस्तक्षेप करेंगे। इसी पार्टी के धीर रंजन चौधरी ने चुनावी बांड को बड़ा घोटाला बताया। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सिब्बल का सवाल था ‍कि,चुनावी बॉन्ड का ९५ फीसदी पैसा भाजपा को गया,ये क्यों हुआ ? विपक्ष के हंगामे के पीछे असली कारण भी यही है ‍कि,चुनावी बांड के तहत मिले चंदे का बड़ा हिस्सा सत्तारूढ़ भाजपा की अंटी में गया है, जबकि बाकी दल पैसे के लिए तरस रहे हैं। गौरतलब है कि,मोदी सरकार ने राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता लाने के दावे के साथ पिछले साल चुनावी बांड व्यवस्था की शुरूआत की थी। इसके लिए इलेक्टोरल बांड फाइनेंस एक्ट २०१७ पारित किया गया था। तब कहा गया था कि इससे राजनीतिक दलों के बटुए में साफ-सुथरा धन आएगा। उपलब्ध जानकारी के मुताबिक मार्च २०१८ से अक्टूबर २०१९ तक देश में कुल १२३१३ बॉन्ड जारी किए गए,जिनके जरिए राजनीतिक दलों को ६१२८ करोड़ रुपए का चंदा दिया गया। भाजपा ने चुनाव आयोग को जो जानकारी दी,उसके मुताबिक वर्ष २०१८-१९ में उसे कुल ८०० करोड़ रू. का चंदा मिला। यह पैसा आनलाइन भुगतान और चेक से मिला था,जबकि कांग्रेस के हिस्से में मात्र १४६ करोड़ रू. का चंदा आया।
यहां सवाल पूछा जा सकता है कि, राजनीतिक दलों को चंदा आखिर मिलता कहां से है ? चुनाव बांड आने के पहले यह पैसा किस तरीके दिया और लिया जाता था ? चुनावी बांड के पहले तक देश में राजनीतिक दल स्वैच्छिक दान,क्राउड फंडिंग ,कूपन व प्रचार स‍ाहित्य के विक्रय,सदस्यता शुल्क और कारपोरेट चंदे से पैसा जुटाते थे। तब भी माना जाता था ‍कि,राजनीतिक दलों को चंदे की आड़ में काला धन खपाया जाता है। लिहाजा,मोदी सरकार ने पारदर्शिता के नाम पर राजनीतिक चंदे की प्रक्रिया में तीन बड़े बदलाव किए। इसके मुताबिक कोई भी राजनीतिक पार्टी विदेशी चंदा भी ले सकती है,कोई भी कम्पनी मनचाही रकम चंदे के रूप में किसी भी दल को दे सकती है,तथा कोई भी व्यक्ति या कम्पनी गुप्त रूप से चुनावी बॉन्ड के जरिए किसी पार्टी को चंदा दे सकती है। साथ ही बेनामी नकद चंदे की सीमा २० हजार से घटाकर २ हजार रू. कर दी गई।
जाहिर है कि,चंदे के रूप में दलों के पास सबसे ज्यादा पैसा कारपोरेट क्षेत्र से आता है। यह चंदा भी कोई धर्मादा या नि:स्वार्थ दान न होकर एक तरह का निवेश होता है,जिसके बदले में दान दाता सरकारों से दूसरे तमाम लाभ और रियायतें उठाता है और राजनीतिक दलों को खुश रखता है,लेकिन सियासी दलों को दिया गया चंदा किन स्रोतों से आता है,इसकी सही जानकारी किसी को नहीं होती। पिछले दिनों आई एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट में कहा गया कि देश की ५ राष्ट्रीय दलों को चंदे के रूप में जो पैसा मिला,उसमें से ५३ फ़ीसदी रकम का स्रोत अज्ञात था। दलों की ३६ फ़ीसदी आय ही ज्ञात स्रोतों से आई थी। यहां अज्ञात स्रोतों से मतलब काले धन से है।
अब ये चुनावी बॉन्ड हैं क्या ? चुनावी बॉन्ड एक ऐसा बॉन्ड है,जिसमें एक करेंसी नोट लिखा रहता है,जिसमें उसका मूल्य(वैल्यू) होता है। ये बॉन्ड पैसा दान करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसके जरिए कोई भी व्यक्ति किसी राजनीतिक दल,व्यक्ति या किसी संस्था को पैसे दान कर सकता है। चुनावी बॉन्ड १ हजार,१० हजार,१ लाख,१० लाख और १ करोड़ रुपए के मूल्य में उपलब्ध हैं। सरकार के मुताबिक चुनावी बॉन्ड पारदर्शी इसलिए है,क्योंकि दानदाता इसे डिजीटल या चेक के जरिए भुगतान करके ही खरीद सकता है। जिसके खाते में यह रकम जाएगी,उसका नाम भी पता चल जाएगा,लेकिन इसमें यह कहीं भी स्पष्ट नहीं है कि बांड खरीदने के लिए पैसा किस स्रोत से आया। विडंबना यह है कि बॉन्ड व्यवस्था वही भारतीय जनता पार्टी लेकर आई, जिसने २०१४ के लोकसभा चुनाव में काले धन को अहम मुद्दा बनाया था,पर जो नई व्यवस्था आई वह खुद संदेह के घेरे में है। इस तरह धन जुटाने पर चुनाव आयोग ने भी आपत्ति की थी। मोदी सरकार द्वारा चुनावी बॉन्ड बिल लाने से कुछ दिनों पहले ही रिजर्व बैंक ने एक चिट्ठी लिखकर सरकार को चेताया था कि,सियासी पार्टियों द्वारा चंदा लेने की प्रचलित व्यवस्था को बदलने की जरूरत नहीं है। आरबीआई के मुताबिक चुनावी बांड एक तरह का ‘बेयरर बांड’ है। इससे चंदे की पारदर्शिता खत्म होगी,साथ ही यह मनी लांड्रिंग एक्ट को भी कमजोर करेगा,पर लेकिन सरकार ने इस आपत्ति को खारिज कर दिया। उल्टे अधिनियम में यह संशोधन कर ‍दिया कि कोई भी कम्पनी अपने लाभ का चाहे जितना पैसा चुनावी बांड में लगा सकती है।
तमाम बवाल के बावजूद सरकार का मानना है कि,चुनावी बांड एक बेहतर और पारदर्शी व्यवस्था है। यह स्वाभाविक भी है,क्योंकि इसके जरिए सबसे ज्यादा चंदा भाजपा के खाते में ही आया है। वैसे भी जो दल सत्ता में होती है,चंदा उसी को मिलता है। पहले यह कांग्रेस को मिला करता था। यहां सवाल ये है कि जिन राजनीतिक दलों पर संवैधानिक व्यवस्था के तहत सरकारें चलाने की जिम्मेदारी होती है, वो स्वयं किसी भी तरह की पारदर्शिता और जवाबदेही से क्यों बचती हैं ? इसमें चुनावी चंदा भी शामिल है। हमारे देश में राजनीतिक दलों को अपनी अाय का ब्योरा तो देना होता है,लेकिन आय किन स्रोतों से हुई,यह बताना जरूरी नहीं होता।
माना कि,हिंदू और कुछ दूसरे धर्मों में भी ‘गुप्त दान’ पुण्यदायी माना गया है, क्योंकि इसके मूल में आसक्ति,अहंकार और प्रचार से मुक्ति का भाव है,लेकिन राजनीतिक मकसद से लिया गया ‘गुप्तदान’ तो शुद्ध सांसारिक कर्म है, जिसका मकसद केवल सत्ता के प्रति गहरी आसक्ति और उसे किसी भी तरीके से हासिल करने का आग्रह है। ‍जिसका पुण्य फल नेताओं के खाते में ही ज्यादा जमा होता है,बजाए जनता के। ऐसा ‘चुनावी गुप्तदान’ वाजिब होता,अगर इससे चुनावी अर्थतंत्र में सचमुच कुछ पारदर्शिता आती। जो हो रहा है,उससे तो ऐसा नहीं लगता।

Leave a Reply