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राष्ट्र के पुनरुत्थान में साहित्य की भूमिका

सपना सी.पी. साहू ‘स्वप्निल’
इंदौर (मध्यप्रदेश )
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‘साहित्य का कर्तव्य ज्ञान देना ही नहीं है, परन्तु नया वातावरण देना भी है।’ डाॅॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
राष्ट्र के पुनरुत्थान में साहित्य की भूमिका का आंकलन करने के लिए हमें ज्ञात है कि, भारत एक राष्ट्र है और इसका लोकतांत्रिक होना इसे पूर्ण राष्ट्र के रूप में निरूपित करता है। यहाँ दूसरा शब्द ‘पुनरुत्थान’ है, जिसका सरल अर्थ पतन होने के पश्चात् पुनः स्वयं को जागृत करने की क्रिया है।
अब साहित्य जिसका अर्थ-परहित के उपदेशों, विचारों व ज्ञान का एक साथ लिखित शास्त्र या पुस्तक के रूप में होना है।
हमें यहाँ यह जानना महत्वपूर्ण है कि, किसी भी राष्ट्र के जनमानस की भावनाओं, स्थितियों व विचारों को वहाँ के समान वर्ण, भाषा, भौगोलिक एकता, धर्म, संस्कृति, इतिहास, राजनीतिक आकांक्षाएं, सामान्य हित व अर्थव्यवस्था वाले तत्व प्रभावित करते हैं और इन सभी तत्वों पर साहित्य का प्रभाव पड़ता ही है। तभी राष्ट्र में जब-जब सुप्तावस्था आती है तो, साहित्य द्वारा महती भूमिका निर्वहन कर राष्ट्र का पुनरुत्थान परिलक्षित होता है।
हमारा प्राचीन साहित्य सदैव से विश्व के अन्य राष्ट्रों की अपेक्षा अधिक समृद्ध था। तभी हमारे देश को विश्व के लोग ‘जगदगुरु’ कहते थे। यहाँ वेद-पुराण, ऋचाएं, मनु स्मृति, रामायण, गीता, महाभारत, रघुवंशम्, कादम्बरी, अभिज्ञान शांकुतलम्, चाणक्य का अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र आदि जैसे अनेक समृद्ध साहित्य रहे। लगभग सभी राष्ट्रों के लोग यहाँ शिक्षा ग्रहण करने आते थे। हम विद्या और बुद्धि, कौशल, शक्ति और साहित्य में जगत के सिरमौर व धर्मज्ञाता रहे। हमारे साहित्य ने सभी देशों की अज्ञानता नष्ट कर उन्हें ज्ञानलोक दे मार्गदर्शन किया। यही कारण है कि, तब इंग्लैंड और जर्मन वासियों ने भारत आकर संस्कृत साहित्य का गहन अध्ययन किया। संस्कृत साहित्य का अक्षुण्ण कोष हमारे भारतवर्ष की अमूल्य निधि है। इसी उच्च कोटि के साहित्य के कारण हमारा राष्ट्र उन्नतिशील था।
हमें ज्ञात है कि, वर्तमान में लिखित साहित्य में ४ युगों की बात की जाती (आदिकाल, पूर्व मध्यकाल, उत्तर मध्य काल, आधुनिक काल) है, परन्तु साहित्य से ज्ञानार्जन की परंपरा सत्य युग, त्रेता युग, द्वापर युग से लेकर कलयुग में देखने को मिलती रही है। हमारे देश में गुरूकुल व्यवस्था में ऐसे वेद-पुराणों का अध्ययन करवाया गया कि, श्री राम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम, श्रीकृष्ण जैसे महानायक हुए, तो कलयुग में सम्राट विक्रमादित्य, साहित्यकार कालिदास से प्रभावित हुए। ऐसे ही चंद्रगुप्त जैसा सम्राट निचले स्तर से उठकर राष्ट्र की सर्वोच्च पदवी पर अपने गुरू चाणक्य के साहित्य से शिक्षा ग्रहण कर पहुंचा, वहीं सम्राट पुरु पर चाणक्य के साहित्य व नीतियों का प्रभाव था। चंद्रगुप्त के पौत्र अशोक (अखण्ड भारत की नींव रखी) के मन में कलिंगा के युद्ध को जीतने के बाद इतनी मार्मिकता उत्पन्न हो गई कि, वह अहिंसा व शांति अपनाकर बौद्ध धर्म का अनुयायी हो बौद्ध साहित्य के प्रचार में लग गया तो महावीर स्वामी ने समाज में फैली कुरीतियों को मिटाने के लिए महान साहित्यिक उपदेश दिए। सम्राट हर्षवर्धन के काल में भी उत्कृष्ट साहित्य सृजन से जागृति आई।
राष्ट्र में समय-समय पर साहित्यिक विचारों द्वारा क्रांति के बिगुल बजते रहे हैं। भारत के ऐश्वर्य, धन-धान्य समृद्धि और अनन्त महिमा सम्पन्नता ने विदेशी आक्रान्ताओं को प्रभावित किया। हमारे साहित्य में प्रारंभ से ही लिखा जा चुका है ‘अतिथि देवो भवः।’ इसी कारण हमारे देश में समय-समय पर जो लोग भी बसने आए, हमने उन्हें पलक पर बैठाया, पर विदेशी आक्रमणकारियों के आने से देश का भास्कर-भाग्य प्रभावित हुआ। वे जानते थे कि, किसी भी राष्ट्र को परतंत्रता में बाँधना है तो उसकी साहित्य, भाषा, सभ्यता व संस्कृति को नष्ट करो, ताकि वो जाति अपनी श्रेष्ठता के आधार से अनभिज्ञ रहे। हमारे देश में तक्षशिला और नालंदा के विश्व-प्रसिद्ध पुस्तकालय आक्रांताओं द्वारा जला दिए गए। इसका परिणाम यह हुआ कि, साहित्य के अभाव में हमारी राष्ट्रीयता विलुप्त-सी हो गई। हम ज्ञान निराश्रित हो स्वयं को तुच्छ मान विदेशियों के अत्याचार सहते रहे, परन्तु साहित्यकारों, महान विचारकों ने देश के जन-जीवन में नई चेतना और स्फूर्ति लाकर जागरण का
उद्घोष किया। स्थितियों से विवश ना होने वाली आर्य जाति फिर वेग से उठी।
पृथ्वीराज चौहान के शौर्य को बढ़ाने में चंदबरदाई का साहित्य, तो महाराणा प्रताप के ओज व मातृभूमि की रक्षा में भी साहित्य का योगदान रहा। शिवाजी ने रोटी और बेटी की रक्षा करने की शपथ ली। भूषण जैसे राष्ट्रकवियों का जन्म हुआ। भूषण ने अपनी अनेक मार्मिक उक्तियों द्वारा आर्यधर्म की रक्षा के लिए शिवाजी को सचेत किया। उस समय सबसे बड़ी समस्या साहित्य ह्वास व भाषा की थी, क्योंकि सारे देश में विभिन्न भाषी होने के कारण लोगों का संगठन कठिन था। साहित्य समाज की उन्नति और विकास की आधारशिला रखता है। कबीर, तुलसी, सूर ,मीरा, दादू, कबीर, चैतन्य महाप्रभु, नानक, अमीर खुसरो, जायसी , रहीम, प्रेमचंद, भारतेन्दु, निराला व नागार्जुन आदि ने विभिन्न भाषाओं का आश्रय लेकर अपने साहित्य द्वारा एकता, धर्म-संस्कृति, मानवता की रक्षा व जनमानस में व्याप्त संकीर्णता को दूर किया। तुलसीदास जी ने राम कथा द्वारा रामजी की शक्ति, शील व मर्यादा जनचेतना जागृत की, जो अद्वितीय रही। मुस्लिम आक्रांता भारतवर्ष में उपद्रवी बनकर आए, पर इन महापुरुषों के प्रयत्नों और उपदेशों से प्रभावित होकर आर्यों के साथ मिल-जुल गए।
इसके उपरांत देश में अंग्रेजों के पदार्पण ने भारतीय जनता में देश-प्रेम की भावना को और भी बढ़ा दिया। समय-समय पर महान साहित्यकारों व विचारकों द्वारा लिखे समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं से प्रभावित हो अनेक देशभक्त हुए। भारतीयों की अनन्त साधनाओं, तपस्याओं का मूल साहित्यकारों का देश-प्रेम पूर्ण साहित्य रहा। फलस्वरूप देश, विदेशियों से मुक्त हुआ। आज हम स्वतंत्र भारत के निवासी हैं। हम इस बात का गहन चिंतन करने के बाद पाएंगे कि, एकता परिलक्षित होने का एकमात्र कारण यहां प्राचीन काल से साहित्य की समृद्धि ही रही है, जो नष्ट होने के बाद भी पुनः साहित्यकारों के प्रयासों से पुनर्जीवित हुई है। जब भी राष्ट्र दिग्भ्रमित हुआ है तो, साहित्य पुनरुत्थान करता ही है।
प्रत्येक राष्ट्र का साहित्य वहाँ के जनमानस की मनोवृत्तियों का संचित कोष है। जैसे-जैसे समाज में घटित घटनाओं का प्रभाव जनमानस पर पड़ता है, वैसा ही साहित्य का स्वरूप होता जाता है। इसका सबसे सटीक उदाहरण वर्तमान का ‘कोरोना’ काल रहा। इस समय साहित्यकारों ने साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन कर जनमानस में जागरूकता फैलाई। इसलिए, यह कहना अतिश्योक्ति ना होगी कि, साहित्य समाज का दिग्दर्शन करता है।
भारत में महान ऋषि-मुनियों का रचित साहित्य और योग दर्शन आज भी पथप्रदर्शन करता है। हमारे धार्मिक साहित्य गीता को पढ़कर विदेशी भी अपने जीवन में शांति पाने के लिए स्वभाषा में अनुवाद या हमारी संस्कृत, हिंदी को सीखकर अध्ययन करते हैं, साथ ही हम वर्तमान में हुए एक उदाहरण को लेते है जो टोक्यो ओलम्पिक में हमने देखा कि, वहां ‘सूर्य नमस्कार’ करवाया गया, जो हमारे योग साहित्य में लिखा एक महत्वपूर्ण अंग है।
साहित्य समाज का वह सदृश्य आईना है, जो वर्तमान का प्रतिबिम्ब रेखांकित करता है और भविष्य के लिए इतिहास बन जाता है। अब पुनः साहित्य समृद्धि हेतु देश की राष्ट्रभाषा के सिंहासन पर हिन्दी को प्रतिष्ठित किया जा चुका है। राष्ट्रभाषा के अभाव में राष्ट्रीय संगठन में जो बाधाएं उपस्थित हो रही थी, अब वे समाप्त हो जाएंगी। हम भारतीय यहाँ बहुत सौभाग्यशाली है कि, हमारे राष्ट्र में इतनी भिन्नता होने के बाद भी हिंदी साहित्य से एकता के दर्शन होते हैं। जब-जब राष्ट्र में पतन, परतंत्रता और प्रेमाभाव आता है तो महान व्यक्तियों के लिखे साहित्यिक विचारों से पुनरुत्थान संभव होता है। जिस राष्ट्र का साहित्य उन्नत व उत्कृष्ट होता है, वहाँ की सभ्यता-संस्कृति का लोहा संसार में माना जाता है। साहित्यविहीन राष्ट्र चिरस्थायी नहीं रह सकता, वह राष्ट्र हृदयस्पंदन रहित है। इसलिए, यहाँ यह सिद्ध होता है कि, राष्ट्र के पुनरुत्थान में साहित्य की भूमिका अग्रणी थी, है और सदैव रहेगी, साथ ही वर्तमान साहित्यकारों का भी कर्तव्य बनता है कि, वे ऐसे साहित्य का निर्माण करें, जिससे राष्ट्र के गौरव में गरिमामयी वृद्धि हो। राष्ट्र का सर्वांगीण विकास और सामूहिक चारित्रिक पुनरुत्थान हो, तथा हमारा राष्ट्र पुनः विश्वगुरू बने।