रत्ना बापुली
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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कितना भी भुलाए,
भूलती कहाँ है
वह बचपन की बातें,
वह आँगन के अहाते
वह गुड़ियों के संग,
विवाह रचाना,
वह मम्मी से छुपकर
नमकीन चुराना,
वह पत्तों से पूरी
पकवान बनाना,
वह मिलकर सब फिर
हँस-हँस के खाना,
न कोई जिद थी
न कोई थी घातें।
वह बचपन की बातें,
वह बचपन की बातें..॥
सुबह उठकर बागों से,
आम को बीनना
न पोंछना-न धोना,
बस चूसते जाना
मजा था कितना,
वह स्वाद पुराना
वह सावन का महीना,
वह झूला झुलाना
पेंग बढ़ाकर,
जैसे नभ को था छूना
वह खुला-सा छत,
वह मस्ती की रातें।
वह बचपन की बातें,
वह बचपन की बातें…॥
न टी.वी. था उन दिन,
न बिस्कुट न टॉफी
अचार व खटाई,
चुराते थे हर दिन
मिलकर सब खाते थे,
जैसे हो कोई अमृत
वह दौड़़ना वह भागना,
वह छुपा-छुपी खेलना
वह पेड़ों की छैया में,
लेना बलैया
कैसे मैं भूलूँ
वह भोली शरारतें।
वह बचपन की बातें,
वह बचपन की बातें…॥