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विडम्बना:गहन संघर्ष करना पड़ रहा भारतीय भाषाओं के लिए

प्रो.जोगा सिंह विर्क

पटियाला(पंजाब)

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भारतीय भाषाओं की साझा चुनौतियाँ व समाधान परिसंवाद……..

यह अत्यंत दुर्भाग्य की बात है कि स्वतंत्रता के ७२ वर्ष बाद भी भारतीय भाषा-भाषियों को भारतीय भाषाओं के लिए गहन संघर्ष करना पड़ रहा हैl इस किसी भी भाषा का जीवन इस बात पर निर्भर है कि उसका सभी मातृ-भाषा कार्य-क्षेत्रों में प्रयोग व वर्चस्व कितना हैlआज के समय में सबसे महत्वपूर्ण भाषा कार्य-क्षेत्र शिक्षा का माध्यम हैl हर बच्चा शिक्षा ग्रहण कर रहा है और बच्चे कीशिक्षा के माध्यम की भाषा ही उसकी पहली भाषा बन जाती है। इसलिए,भारतीय भाषाओं का विद्यालय स्तर पर भी शिक्षा के माध्यम के रूप में विस्थापन निश्चित रूप से भारतीय भाषाओं के संहार की ओर ले जा रहा है।

भारतीय भाषाओं के भाषा कार्यक्षेत्रों से निष्कासन का कारण वो भ्रम हैं,जो औपनिवेशिक स्थिति और सभ्रांत वर्ग के अल्पदृष्टीय स्वार्थ ने भारतीय नीतिकारों और भारतीय जनमानस के दिमागों में बिठा दिए हैं। ये भ्रम कुछ इस तरह के हैं- अंग्रेजी ही ज्ञान-विज्ञान, तकनीक और उच्चतर ज्ञान की भाषा है,अंग्रेजी ही अंतरराष्ट्रीय आदान-प्रदान और कारोबार की भाषा हैं,भारतीय भाषाओं में उच्चतर ज्ञान की भाषाएं बनने का सामर्थय नहीं है,अंग्रेजी सीखने का सही और पक्का तरीका इसका शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रयोग है।

अंग्रेज़ी भाषा के महत्व को मैं कम करके पेश नहीं करना चाहता,इसलिए उपरोक्त में अंतिम भ्रम की बात पहले करना चाहता हूँ।

यह बहुत हैरानी वाली पर सत्य बात है कि,अंग्रेज़ी सीखने के लिए भी मातृ-भाषा माध्यम अंग्रेज़ी माध्यम से बेहतर है(यदि बाकी चीज़ें एक सी हों तो,दुनियाभर में अंग्रेजी पढ़ाने वाली बर्तानिया सरकार की संस्था ब्रिटिश काउंसिल की पुस्तक से यह कथन इस बात पर शक की कोई गुंजाईश नहीं छोड़ता)l इंग्लिश लैंगुएज एंड मीडियम आफ़ इंस्ट्रक्शन इन बेसिक एजुकेशन,२०१७,पन्ना ३): “चारों ओर यह समझ फैली हुई है कि अंग्रेजी भाषा पर महारत के लिए अंग्रेजी एक विषय के रूप में पढ़ने से अंग्रेजी माध्यम में पढ़ना बेहतर तरीका है,पर इस समझ के लिए कोई प्रमाण हासिल नहीं हैl”

इस संदर्भ में यूनेस्को की २००८ में छपी पुस्तक (इम्प्रूवमेंट इन द कुआलटी आफ़ मदर टंग – बेस्ड लिटरेसी एंड लर्निंग, पन्ना १२) से यह टूक बहुत महत्वपूर्ण है- “हमारे रास्ते में बड़ी रुकावट भाषा एवं शिक्षा के बारे में कुछ अंधविश्वास हैं और लोगों की आँखें खोलने के लिए इन अंधविश्वासों का भंडा फोड़ना चाहिए। ऐसा ही एक अंधविश्वास यह है कि विदेशी भाषा सीखने का अच्छा तरीका इसका शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रयोग हैl दरअसल,अन्य भाषा को एक विषय के रूप में पढ़ना ज्यादा कारगर होता हैl दूसरा अंधविश्वास यह है कि विदेशी भाषा सीखना जितनी जल्दी शुरू किया जाए,उतना बेहतर हैl जल्दी शुरू करने से लहजा तो बेहतर हो सकता है,पर लाभ की स्थिति में वह सीखने वाला होता है जो मातृ-भाषा में अच्छी महारत हासिल कर चुका हो। तीसरा अंधविश्वास यह है कि मातृ-भाषा विदेशी भाषा सीखने के राह में रुकावट हैl मातृ -भाषा में मजबूत नींव से विदेशी भाषा बेहतर सीखी जा सकती हैl स्पष्ट है कि ये अंधविश्वास हैं और सत्य नहीं,लेकिन फिर भी यह नीतिकारों की इस प्रश्न पर अगुवाई करते हैं कि प्रभुत्वशाली (हमारे संदर्भ में अंग्रेज़ी –ज.स.)भाषा कैसे सीखी जाएl

अब आपके सामने उपरोक्त पहले भ्रम से होने वाले भयावह नुकसानों को भी ब्रिटिश काउंसिल की उपरोक्त पुस्तक से टूक के रूप में ही रखना चाहता हूँ। ब्रिटिश काउंसिल का कहना है(पन्ना ३) कि,-“छ: से आठ साल लगते हैं कि कोई बच्चा इतनी-एक अंग्रेजी सीख ले कि उसे पाठ्य-क्रम में शामिल विषय-वस्तु की समझ आ सकेl इतने साल लगा कर भी वह अंग्रेजी इतनी अच्छी तरह नहीं सीख सकता कि,वह उच्च श्रेणियों के पाठ्यक्रम को अच्छी तरह समझ सकेl”

आदरणीय, यदि उच्च श्रेणियों को छोड़ भी दें तो किसी बच्चे की शिक्षा के छह:-सात वर्ष के नुकसान के शैक्षिक,आर्थिक,और भाषिक मायने क्या हैं,आप अनुमान लग सकते हैं। इसी लिए किसी भी अपरिचित भाषा को जब शिक्षा का माध्यम बनाते हैं तो वो ज्ञान की नहीं,एक तरह से अज्ञानता की भाषा बन जाती है,और अंग्रेज़ी भाषा हमारे बच्चों के सन्दर्भ में अज्ञानता की भाषा के आगे कुछ नहीं है। समयाभाव के कारण मैं आँकड़ों में नहीं जाना चाहता,पर शिक्षा के बारे में विश्व के विभिन्न देशों की सापेक्षिक स्थिति यही प्रमाणित करती है कि,मातृ-भाषा में शिक्षा देने वाले देश ही शिक्षा में आगे हैं। विश्वभर की खोज और विश्वभर का सफ़ल व्यवहार भी यही साबित करता है।

आदरणीय, यह भी मिथ्या धारणा है कि यदि आप अधिक अंग्रेज़ी जानते हैं तो आप अंतर्राष्ट्रीय कारोबार में आगे होंगे। आदरणीय, अमेरिका का पिछले साल का चीन के साथ वार्षिक व्यापारिक घाटा तीन सौ लाख करोड़ रूपए का रहा हैl यानि कि,पंजाब के दो सौ साल के बजट से भी अधिक और हमारा कोई पांच लाख करोड़ का। आप जानते हैं कि, चीन अपनी भाषा में पढ़ाता है।

अंत में मैं इस भ्रम के बारे में कुछ कहना चाहता हूँ कि,भारतीय भाषाओं में उच्चतर ज्ञान की भाषाएं बनने का सामर्थ्य नहीं है। आदरणीय,हर भाषा में यह सामर्थ्य है कि उसमें दुनिया के बड़े से बड़े ज्ञान की बात हो सके,क्योंकि अंग्रेजी जैसी विकसित भाषा की आज की सारी शब्दावली भी उन मूल धातुओं से बनी है,जो हजारों साल पहले भाषा में मौजूद थेl लगभग इन सभी धातुओं के समतुल्य हर भाषा में प्राप्त हैंl चिकित्सा विज्ञान से निम्न शब्द इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं:Haem-रक्त; Haemacyte-रक्त-कोशिका;Haemagogue-रक्त-प्रेरक;Haemal-रक्तीय; Haemalopia-रक्तीय-नेत्र;Haemngiectasis-रक्तवाहिनी-पासार;Haemangioma -रक्त-मस्सा;Haemarthrosis-रक्तजोड़-विकार;Haematemesis-रक्त-वामन; Haematin-लौहरकतीय;Haematinic-रक्तवर्धक;Haematinuria–रक्तमूत्र; Haematocele-रक्त-ग्रन्थि/सूजन;Haematocolpos-रक्त-मासधर्मरोध; Haematogenesis-रक्त-उत्पादन;Haematoid-रक्तरूप;Haematology -रक्त-विज्ञान;Haematolysis-रक्त-ह्रास;Haematoma-रक्त-ग्रन्थि।

उपरोक्त सभी तथ्यों की रोशनी में मैं भारतीय भाषाओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती उस अज्ञान को मानता हूँ,जो भारतीय नीतिकारों और परिणामतय भारतीय जनमानस में व्याप्त है। भारतीय नीतिकारों की जानकारी की स्थिति कितनी दयनीय है,इसका आंकलन इस बात से हो जाता है कि,जानकारी की यह स्थिति इक्कीसवीं सदी के लगभग तीसरे दशक में है,उस समय में जिसे सूचना क्रांति का युग कहा जाता है। साथ की साथ उन वैधानिक,प्रशासनिक,और बाज़ारी आधारों को गिराना होगा जो अंग्रेज़ी भाषा को सत्ता की भाषा बनाते हैं,और भारतीय भाषाओं को सत्ताविहीन किए हुए हैं।मेरी समझ में यह सब इस भ्रम-अवस्था को तोड़ कर ही हो सकेगा,क्योंकि यह स्थितिसभी भारतीय भाषाओं की है(हिंदी समेत),इसलिए सभी मातृ-भाषा कर्मियों के प्रयत्नों को एक सूत्र में पिरोने की नितांत आवश्यकता है।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन मुंबई)

 

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