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वृक्षों के कटने का दर्द

मानकदास मानिकपुरी ‘ मानक छत्तीसगढ़िया’ 
महासमुंद(छत्तीसगढ़) 
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हमसे पूछो वृक्षों के कटने से दर्द कैसा होता है,
कोई हमारा घर जलाता है,उजाड़कर सोता है।
काटता है-जलाता है,दूर बड़ा घर बनाता है,
हमें मार-भगा,हमारे वन को,अपना बताता है।
हम बेघर हो भटकते हैं,ओ तो लूट-पाटकर खाता है,
खोद-खोद कर धरती माँ को,खोखला करता जाता है।
निज स्वार्थ में आकर जग में,प्रदूषण बहुत फैलाता है,
विकास और आराम के मोह में मौत का जाल बिछाता है।
बेमौत जब मौत आती है,तब ओ चिल्ला-चिल्ला कर रोता है,
तो फिर हमसे पूछो मानव,वृक्षों के कटने का दर्द कैसे होता है…॥

पेड़-पौधा घास-पात,हमारे जीने का सहारा है,
जल,जंगल,हरी भूमि हमें प्राणों से भी प्यारा है।
मैं चिड़िया हूँ पेड़ बिना,अपना घोंसला कहां बनाऊं !
मैं गिलहरी बिना फल-फूल,क्या खाऊं..क्या खाऊं,
तुम्हें क्या पता! मैं अपना जीवन कैसे कैसे बिता रही हूँ ?
गोमाता हूँ,घास को तड़प रही,जूठा झिल्ली खा रही हूँ।
हे मानव आज तू वृक्ष लगा दे,तुझको भी ए कुछ देता है,
तू भी तो साँस,इन पेड़-पौधों से ही लेता है।
हमारी जिंदगी ही पेड़-पौधों से है,तू तो बस एक पेड़ खोता है,
हे मानव हमसे पूछो वृक्षों के कटने ‌से दर्द कैसे होता है…॥

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