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शांति निकेतन

डॉ. स्वयंभू शलभ
रक्सौल (बिहार)

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भाग -२…..

शहरी कोलाहल से दूर शांति निकेतन के हरे भरे परिसर में आकर व्यक्ति का प्रकृति के साथ सीधा संवाद स्थापित हो जाता है…सांसारिक भाव कहीं लुप्त होने लगता है…प्रतिक्षण आसपास एक नैसर्गिक संगीत सुनाई देता है…विचारों के अंकुर भी यहां अनायास फूटने लगते हैं…। इस वातावरण में आकर मेरे मन में भी कई भाव उपजे…पेड़ों और फूलों की बातें… पंछियों का कलरव…हवाओं का संगीत.. यह सब मुझे आगे भी बहुत कुछ लिखने के लिए प्रेरित करता रहेगा…बहरहाल,अभी बात छातिमतला की…। छातिमतला,शांति निकेतन का एक प्रमुख अंग है। यह स्थल कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर के पिता महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर द्वारा कला और ध्यान साधना के लिए बनाया गया था। वे अक्सर यहां छातिम (सप्तपर्णी) वृक्ष के नीचे ध्यान किया करते थे।सप्तपर्णी मूलतः संस्कृत शब्द है। बांग्ला भाषा में इसे छातिम कहते हैं। इसमें सात पत्तों के गुच्छे होते हैं और इन्हीं के बीच से फूल निकलते हैं। पत्तियां एक गोल समूह में सात-सात के क्रम में सजी होती हैं और इसी कारण इसे सप्तपर्णी कहा जाता है। टैगोर ने ‘गीतांजलि’ के कुछ अंश सप्तपर्णी वृक्ष के नीचे ही लिखे थे। यहां विश्वभारती के दीक्षांत समारोह में स्नातक होने वाले हर छात्र को सप्तपर्णी वृक्ष की पत्तियां दी जाती हैं। छातिम सदाबहार वृक्ष है। बारहों महीने हरा-भरा रहने वाला,लेकिन शरद ऋतु में इसकी सुंदरता निखर कर सामने आती है। शायद ही ऐसा कोई फूल होगा,जिसकी गंध इतनी मादक हो। सप्तपर्णी के साथ शरद ऋतु का संबंध भी एक पहेली जैसा है।एक कवि का मन तो यह सोचता रहता है कि शरद के स्वागत के लिए सप्तपर्णी खिलती है या सप्तपर्णी के लिए ही शरद आता है…लेकिन यह वनस्पति विज्ञानियों के लिए शोध का विषय हो सकता है कि पूरे साल सामान्य सुगंध बिखेरने वाला यह फूल शरद आते-आते इतना मादक कैसे हो जाता है। इसके गंध में इतनी मादकता कैसे और कहाँ से समा जाती है…। इसे ‘यक्षिणी का वृक्ष’ भी कहते हैं। संभवतः इसके पीछे तर्क यह है कि सप्तपर्णी पहले अपनी सुंदरता से रिझाती है और फिर उसके करीब जाने पर अपनी मादकता से मदहोश कर देती है..।

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