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श्रेष्ठ व्यक्ति होता है़ ज्ञान दाता

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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शिक्षक:मेरी ज़िंदगी के रंग’ स्पर्धा विशेष…..

यह सर्वविदित तथ्य है कि शिक्षा से ज्ञान प्राप्ति होती है। यही ज्ञान वर्द्धन व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखार देता है यानि ज्ञान से ही सर्वांगीण विकास सम्भव है। यहाँ सर्वांगीण विकास से मतलब विनय, पात्रता,धन,धर्म व सुख सभी कुछ,और यही सारे तथ्य बहुत पहले ही पूर्वजों ने निम्न श्लोक के माध्यम से हम सभी को समझा दिए थे-
‘विद्यां ददाति विनयं,विनयाद् याति पात्रताम्। पात्रत्वात् धनमाप्नोति,धनात् धर्मं ततः सुखम्॥’ (हितोपदेश-श्लोक ६)
इसलिए ही हमारे जीवन में शिक्षकों का जो योगदन है,वह भुलाया नहीं जा सकता। आज जब अतीत में झाँकता हूँ,तो पाता हूँ सबसे पहले मेरी माँ ने गणेश चतुर्थी को सर्वप्रथम प्रभु श्रीगणेशजी की पूजा कराई और उसके बाद मेरी पाटी (स्लेट) की पूजा ही नहीं करवाई,बल्कि मेरा हाथ पकड़ एक अक्षर भी लिखवाया। इस तरह विद्यार्थी जीवन की शुरूआती पढ़ाई मारजा (शिक्षक) के स्कूल से हुई, जहाँ मारजा ने हम सभी को पहाड़ा खूब बढ़िया ढंग से कंठस्थ करवा दिया। मारजा वाला विद्यालय छोड़ने से पहले ही हम सभी विद्यार्थीयों को मारजा ने बड़े ही प्रेम से निम्न श्लोक अर्थ सहित अनेकों बार खूब बढ़िया ढंग से समझाया, जिसका लाभ मुझे पूरे विद्यार्थी जीवन में मिला। यानि आज हम उसकी महत्ता का जो बखान कर पा रहे हैं,यह उसी खूब बढ़िया ढंग से समझाने का ही परिणाम है-
‘काक चेष्टा बको ध्यानं,श्वान निद्रा तथैव च। अल्पहारी गृह त्यागी,विद्यार्थी पंच लक्षणं॥’
इसके बाद उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में कक्षा ग्यारह तक पढ़ा,जहाँ अनेक शिक्षकों ने अलग अलग विषयों पर पढ़ाया,लेकिन उन सभी शिक्षकों से न तो सम्पर्क रहा,न ही ज्यादा कुछ याद है। इसी बीच याद कर रहा हूँ हमारे घर पर हमारी पढ़ाई पर निगरानी हेतु नियुक्त एक शिक्षक को,जो कक्षा १ से ही आ रहे थे और वो कक्षा ७ तक तो रहे। उनसे भी मैंने बहुत कुछ सीखा।
जब महाविद्यालय में दाखिला लिया,तब प्राचार्य ने सोच-समझकर मुझे न केवल ऑनर्स में दाखिला दिया,बल्कि ३ साल बाद ऑनर्स विषयों पर सब तरह से विशेष ध्यान दिया। उन्होंने अवकाश प्राप्त आयकर अधिकारी को विशेष रूप से रविवार न केवल आय कर,बल्कि श्रम कर पढ़ाने हेतु नियुक्त कर हमें बहुत ही बढ़िया तरीके से इन विषयों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। इस तरह ४ सालों में उनके मार्गदर्शन ने मेरे में जो आत्मविश्वास भरा, वह आज तक सहायक है। इसलिए,चाहकर भी उनके योगदान को भूल नहीं सकता।
स्नातक वाली पढ़ाई के पश्चात मेरी बिरला के शेयर विभाग में नौकरी लग गई। विभागाध्यक्ष ने मूझे समझा दिया कि,’हमेशा ‘श्रद्धावान् लभते ज्ञानम
सूक्ति’ अनुसार व्यवहार रखना यानि नम्रता रख एक छात्र की तरह सिखाने वाले के साथ व्यवहार करोगे तभी सही सीख पाओगे।
इस सीख की पालना के कारण आगे भी अन्य विभागों में भी मुझे बहुत,कुछ सीखने को मिला। फिर मैंने रात्रि कक्षा में शामिल हो कम्प्यूटर वाली पढ़ाई भी पूरी कर लीl। उसके बाद मुझे लेखा विभाग में भेज दिया और वहाँ मैंने रोकड़िया वाला काम संभाला,जहाँ मुझे व्यावहारिक अनुभव बहुत हुआ। कुछ ही सालों में फिर मुझे लेखापाल बना दिया,लेकिन लेखापाल बनाते ही मुझे एक-एक कर सारे विभागों में सभी तरह की कार्यप्रणाली को समझने के लिए भेजा गया। तात्पर्य यही है कि इस पूरे समय में मुझे अनेक साथियों व अधिकारियों ने बहुत कुछ सिखाया,क्योंकि बिरला के यहाँ एक शिक्षक की तरह ही अधिकारी व्यावहारिक ज्ञान सिखा कर फिर निर्धारित कार्य सम्भालने का अधिकार देते हैं। इसलिए लेखापाल तक के सफर में जिन्होंने भी मेरे व्यक्तित्व को निखारने में योगदान दिया,उनको मैं चाहकर भी भूल नहीं सकता। उनके योगदान बिना मेरी सफलता कैसे सम्भव हो सकती थी।
यही बताना चाहता हूँ कि,अभी तक अनेक से बहुत कुछ सीखा ही नहीं है,बल्कि अब तक सीख ही रहा हूँ क्योंकि मेरा मानना है कि ज्ञान-दाता अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति होता है,और सैद्धांतिक ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है व्यावहारिक ज्ञान-अनुभव। इस कारण वेदांत दर्शन,अद्वैतवाद के संस्थापक महर्षि वेदव्यासजी ने ‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः।गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥’
इस श्लोक के माध्यम से मुझे जो समझाया गया है,उसी की पालना करते हुए आज उन सभी का अंतर्हृदय से आभार प्रकट करता हूँ,जिनके चलते मेरे व्यक्तित्व में निखार आया।

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