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संसदःपक्ष और विपक्ष का अतिवाद

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
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संसद का यह वर्षाकालीन सत्र अत्यधिक महत्वपूर्ण होना था लेकिन वह प्रतिदिन निरर्थकता की ओर बढ़ता चला जा रहा है। कोरोना महामारी, बेरोजगारी,अफगान-संकट,भारत-चीन विवाद,जातिय जनगणना आदि कई मुद्दों पर सार्थक संसदीय बहस की उम्मीद थी लेकिन पेगासस जासूसी कांड इस सत्र को ही लील गया है। लगभग २ सप्ताह से दोनों सदनों का काम-काज ठप्प है। दोनों सदन अनवरत शोर-शराबे के बाद रोज ही स्थगित हो जाते हैं। संसद चलाने का १ दिन का खर्च ४४ करोड़ रु. होता है। लगभग ५०० करोड़ रु. पर तो पानी फिर चुका है। ये पैसा उन लोगों से वसूला जाता है जो दिन-रात अपना खून-पसीना एक करके कमाते हैं और सरकार का कर भरते हैं। ऐसा लगता है कि संसद का सत्र चलाने की परवाह न तो सरकार को है और न ही विपक्ष को ! दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े हुए हैं। ये शायद अड़ते नहीं लेकिन पेगासस जासूसी का मामला अचानक ऐसा उभरा कि पक्ष और विपक्ष दोनों एक-दूसरे के खिलाफ तलवारें भांजने लगे। क्या विपक्ष के लोगों को पता नहीं कि जासूसी किए बिना कोई सरकार क्या,कोई परिवार भी नहीं चल सकता ? वे खुद जब सत्ता में थे तो क्या वे जासूसी नहीं करते थे ? क्या कांग्रेसी शासन में उसके वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने अपने दफ्तर में ही जासूसी यंत्र लगे होने की शिकायत नहीं की थी ? देश के प्रांतों में चल रही विरोधी दलों की सरकारें क्या जासूसी नहीं करतीं ?,लेकिन जासूसी के मुद्दे पर संसद में बहस की मांग बिल्कुल जायज है और सरकार को यह बताना होगा कि फलां-फलां आदमी की जासूसी वह क्यों करती थी ? यदि उसने जानबूझकर या गलती से देश के कुछ निरापद और महत्वपूर्ण लोगों की जासूसी की है या उसके अफसरों ने उस सूची में कुछ मनमाने नाम जोड़ लिए हैं तो वह सार्वजनिक तौर पर क्षमा क्यों नहीं मांग लेती है ? जासूसी के मामले को वह जितना छिपाएगी,उसकी चादर उतनी ही उघड़ती चली जाएगी लेकिन विरोधी दलों को भी सोचना चाहिए कि यदि वे संसद को चलने ही नहीं देंगे तो जासूसी का यह मामला आया-गया-सा ही हो जाएगा। वे संसद का सत्र बाकायदा चलने क्यों नहीं देते ? वे प्रश्न पूछ सकते हैं,स्थगन-प्रस्ताव और ध्यानाकर्षण प्रस्ताव ला सकते हैं। वे बीच में हस्तक्षेप भी कर सकते हैं। विरोधी दल इस मुद्दे पर एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने सांसदों से कह रहे हैं कि वे विरोधियों की पोल खोलें। इसका अर्थ क्या यह नहीं हुआ कि हमारे देश के सभी राजनीतिक दल सतही राजनीति में उलझ रहे हैं और संसद-जैसे लोकतंत्र के प्रकाश-स्तंभ की रोशनी को धुंधला करते चले जा रहे हैं ?

परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

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