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सबकी कर्मठ दादी

रेणु झा ‘रेणुका’
राँची(झारखंड)
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बचपन से देखा मैंने उस दादी को,वह सभी की दादी थी। हम उन्हें दादी कहते हैं,पापाजी भी दादी कहते हैं। यानी बच्चे,बड़े सभी की दादी। मेहता चाचा ने तो उन्हें सदाबहार, अन्तरराष्ट्रीय दादी की उपाधि दे दी थी। दादी मोहक व्यक्तित्व की धनी और ऊर्जा से सराबोर थी। उनका बस एक बेटा था। मेहनत मजदूरी करके पढ़ाया। अब सरकारी नौकरी में है। बहू और एक पोता भी है। बहू की सास से बिल्कुल नहीं बनती, फिर भी वो दो वक्त का भोजन इन्हें देती। घर के छोटे-छोटे काम, सब्जियां उगाने से लेकर गोबर से उपले बना लेती और व्यस्त रहती। अगर कोई कुछ कह देता तो उसके काम को बड़े मनोभाव से करती,हाँ लेकिन किसी की गलती पर उसके सामने ही सुना देती।किसी के दु:ख-सुख में सदा खड़े होना उनके स्वभाव में था। किसी के घर बच्चा हुआ हो तो,बुलाने से जरूर जाती। महीना-पंद्रह दिन रहकर सब सम्हाल देती। अगर किसी ने रूपये- कपड़े उपहार में दिया तो बहू के हाथ थमा देती,-तुम्हारी मुफ्त की नहीं खाती! उम्र होने के बावजूद दादी ऊर्जावान रहती।
समय के साथ-साथ दादी अब बूढ़ी और बीमार रहने लगी। अब घर में सदस्यों की संख्या बढ़ी थी,लेकिन बूढ़ी दादी के लिए ना तो किसी के दिल में आदर था,न ही वक्त। मुझे उनकी तबियत के बारे में पता चला तो मैं भी माँ के साथ गई उन्हें देखने। घर के बाहर एक छोटे-से कमरे में उन्हें रहने को जगह मिली थी। वहाँ पहुँची तो वो सो रही थी।माँ ने आवाज लगाई,-“दादी,देखिए आपसे मिलने कौन आया है!” वो उठी और गौर से मुझे देखने लगी।बोली,-“अब याद आई है मेरी।” काँपते हाथों से मेरा हाथ पकड़कर रोने लगी,-“देखो न मेरी हालत! कोई मेरी तबीयत भी नहीं पूछता है। ना ही कोई बात करता है मुझसे। बस! खाने को देते हैं। सप्ताह में एक बार कपड़े बदल देते हैं,सबके लिए मैं बोला करती थी,आज मेरे लिए कोई भी नहीं ?” रोती जा रही थी,बच्चों की तरह शिकायत भी कर रही थी। दिल में ख्याल आया कि सचमुच बच्चे और बूढ़े बराबर होते हैं।बातचीत के दरम्यान मेरी नजर ने उनके कमरे का जायजा लिया,गंदा कमरा,पूरी तरह रोशनी भी नहीं। बिस्तर पर मैली चादर बिछी थी। हैरानी तब हुई जब दादी ने करवट बदली ,उसी बिस्तर पर बिल्ली ने तीन बच्चे जने थे। मन बहुत व्यथित हो गया,सोच रही थी कि जिन्होंने पूरे जीवन लोगों की सेवा करने में लगाया,सुख-दु:ख में सबके साथ रही,उनकी ये दशा। कोई अपनों के साथ ऐसा कैसे कर सकता है। खैर! माँ को वहीं बैठाकर,मैं डाक्टर लेकर आई। डॉक्टर ने जांच की,बोले-“कमजोरी बहुत है,भोजन पर विशेष ध्यान दें। इन्हें खुश रखें।” मैंने कमरा साफ करवाया, चादर बदली,कपड़े भी बदल दिए। ढेरों फल, कुछ हेल्थ ड्रिंक लाकर रखी ही थी कि,पोते की पत्नी आई। बोली,-“दीदी आप क्यों परेशान हो रही है,ये हमारे घर का मामला है। देख लेंगे।” मैं ठगी-सी खड़ी रह गई। ऐसे लोगों का क्या कहना ? ढिठाई तो देखिए, उल्टा मुझे ही सुना गयी। ये क्या कभी फिक्र करेंगें! मैं कभी दादी के बहते आँसू,तो कभी बहू को देख रही थी,आखिरकार मैंने दादी को समझाया कि,मैं फिर आपसे मिलने जरूर आऊंगी। दरवाजे से बाहर निकलने के क्रम में वो मुझे अपलक देखे जा रही थी। मैं बोझिल मन से लौट आयी। मेरे जेहन में दादी की कातर आँखें घूम रही थीं। दो दिन बाद माँ ने दूरभाष पर बताया कि दादी नहीं रही!दिल ने कहा,एक सच्चा रिश्ता विदा हो गया। कहाँ दिखती है ऐसी शख्सियत, जो अपना जीवन औरों के लिए खुशी से जीए,बिना किसी स्वार्थ के। सचमुच,काबिले तारीफ थी वो ‘कर्मठ दादी।’

परिचय-रेणु झा का निवास झारखंड राज्य के राँची जिले में स्थाई रूप से है। साहित्यिक उपनाम ‘रेणुका’ लिखने वाली रेणु झा की जन्म तारीख ५ सितम्बर १९६२ एवं जन्म स्थान-राँची है। हिंदी,अंग्रेजी और मैथिली भाषा का ज्ञान रखने वाली रेणुका की पूर्ण शिक्षा-एम ए. और बी.एड. है। आपका कार्यक्षेत्र-शिक्षण(शिक्षक),समाजसेवा एवं साहित्य सेवा का है। सामाजिक गतिविधि के अन्तर्गत नि:शुल्क शिक्षा देने सहित विविध सामाजिक कार्य भी करती हैं। इनकी लेखन विधा-लेख,गीत तथा कविता है। कईं पत्र- पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं प्रकाशित होने का सिलसिला जारी है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार में विशेष रूप से मुख्यमंत्री द्वारा सम्मानित हैं तो अन्य मंचों से कईं साहित्यिक सम्मान मिले हैं। विशेष उपलब्धि-सामाजिक समस्याओं पर लेखन में दैनिक समाचार-पत्र से सम्मानित किया गया है। आपकी लेखनी का उद्देश्य-समस्याओं का निदान,लोगों में जागरूकता लाना और हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार करना है। आपके पसंदीदा हिन्दी लेखक-श्री प्रेमचंद,सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और हरिवंशराय बच्चन हैं। प्रेरणापुंज-माँ है। देश और हिंदी भाषा के प्रति विचार-“मेरा देश विश्व गुरु हो,यही कामना है। हिंदी भाषा देश के हर क्षेत्र,राज्य में बोली और लिखी जाए।”

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