राधा गोयल
नई दिल्ली
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समय खराब होता है या नहीं,इस बारे में सबकी अलग-अलग सोच हो सकती है। कोई परिस्थितियाँ अनुकूल न होने पर समय खराब है,कहकर हिम्मत हार कर बैठ जाता है तो कोई उन समस्याओं में से ही समाधान ढूँढ लेता है। सामान्य व्यक्ति तनाव और आतंक के दौर को बुरा समय घोषित करता है तो समझदार उससे सीख लेकर उससे दो-दो हाथ करने की योजना बनाता है।
आज विश्व में एक महामारी आई है। असंख्य लोगों की जिन्दगियाँ लील चुकी है। आज हालत यह है कि हमें प्राणवायु तक विदेशों से खरीदनी पड़ रही है। विकास के नाम पर हमने अनगिनत पेड़ काट डाले,तालाब पाट डाले। कांक्रीट के महल खड़े कर दिए। प्रकृति का इतना दोहन किया कि वो त्राहि माम-त्राहि माम कर उठी। अमीर हो या गरीब, आज हर कोई त्राहि माम-त्राहि माम कर रहा है। क्या हम नहीं जानते कि वृक्षों से हमें फल-फूल, छाया व प्राणवायु मिलती है। तप्त धूप में शीतल छाँव मिलती है। पंछियों को वृक्षों की कोटर में बसेरा मिलता है।
आज हमें यह सोचना पड़ेगा कि हमारी सबसे बड़ी जरूरत क्या है ? प्रगति के नाम पर विनाश करना या प्रकृति की रक्षा करना ?
हमारे वेदों में पृथ्वी को माता और अग्नि,जल, पर्वत,वायु और वृक्षों को देवता माना गया है। यहाँ तक कि अन्न को भी हम अन्न देवता कहते हैं,लेकिन मनुष्य अपनी धनलोलुपता के कारण प्रकृति का अंधाधुंध दोहन कर रहा है…, यह जानते हुए भी कि इनके बिना किसी प्राणी मात्र के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। पृथ्वी हमारी माता है और हम सभी इसके पुत्र हैं। यह हमें रहने का आधार देती है। ये सभी हमें सदा देते ही रहते हैं,बदले में कभी कुछ नहीं माँगते,लेकिन हमने क्या किया ? हमने तो केवल लेना ही सीखा।
क्या वायु के बिना एक दिन भी जीवित रहा जा सकता है ? शुद्ध वायु हमें वृक्षों से ही मिलती है। वृक्ष धरा के श्रृंगार हैं। धरती की विषैली गैसों का शोषण करके जीवनदायिनी गैसों का उत्सर्जन करते हैं। क्या हमारे द्वारा इन्हें इस तरह क्रूरता से काटा जाना चाहिए ? सही मायने में हमें इन्हें पूजना चाहिए। प्राचीन लोगों की तरह इन्हें देवतुल्य मानकर इनका रक्षक बनना होगा। पेड़ काटने के बजाए नए पेड़- पौधे लगाने होंगे,तभी धरा पर जीवन बच पाएगा।
आज सारा विश्व अपनी करनी का फल भुगत रहा है,आज सबको समझ आ रहा है कि अगर अब भी नहीं सुधरे और जल,जंगल,जमीन का इसी तरह दोहन होता रहा…तो वह दिन दूर नहीं…जब सम्पूर्ण संसार नष्ट हो जाएगा।
आज सारा विश्व हमारे प्राचीन जीवन मूल्यों का महत्व भी पहचान गया है। देशवासियों को भी समझ आ गया है कि दूसरे देशों पर निर्भर होने की बजाय अपने देश में ही इतना उत्पादन करना चाहिए कि देश आत्मनिर्भर बन सके।
जरूरत है फिर से अपनी प्राचीन संस्कृति अपनाने की,प्रकृति की रक्षा करने की,पर्यावरण को संतुलित करने की,धरा का अनावश्यक दोहन रोकने की। इनकी रक्षा करो,इनका दोहन मत करो,उसका संतुलन मत खत्म करो,आधुनिकता की चकाचौंध में अंधी हुई औलादों…,विश्व को विनाश के गर्त में मत ढकेलो।
दूसरे नक्षत्रों पर जीवन-पानी खोजने से बेहतर है कि इस धरा पर जीवन और पानी के संरक्षण पर ध्यान दो।आज यही सबसे पहली आवश्यकता है। कोई देश,किसी अन्य देश की सीमाओं पर अनावश्यक गतिविधियाँ न करे। दलगत राजनीति को छोड़कर विश्व के हित में सोचें। जियो और जीने दो में विश्वास रखें।
माना कि महामारी आई है,लेकिन जल्द ही चली जाएगी। जागरूकता और इच्छाशक्ति हो तो व्यक्ति हर आपदा को झेल सकता है। जैसे हर रात के बाद सवेरा आता है,वैसे ही सुख और दु:ख भी नश्वर हैं। बेहतर है कि दु:ख में एक-दूसरे का सहारा बनो। आज यही समय की सबसे बड़ी जरूरत व समझदारी है।