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स्वप्निल महा छाया

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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ओ अण्ड-ब्रह्माण्ड की सुरभित सरजीके!
नारी, वैभव की सुवासित स्वप्निल महाछाया
मुक्लित केश, उद्विप्त से नयन में कहां खोई है ?
और क्यों श्वेत कमल गुच्छ है ये उर से लगाया ?

यह शुभ्र वदन, स्वर्णिम कान्ति व दिव्य शान्ति,
बताओ, है गेरुआ वसन क्यों तन को ढकाया ?
क्या वैराग है उपजा, या और है कोई परेशानी ?
या मीरा-सा है तुझको भी वह गिरिधर भाया ?

है अजीबो-गरीब-सा ये आकर्षण क्यों तुझमें ?
यह राज है किसी को क्यों न समझ में आया ?
क्या इसी सम्मोहन के चलने ही ओ देवी!तुझको,
कहा, ऋषि-मुनियों और सन्तों ने प्रभु की माया ?

सचमुच तुम हो अद्वितीय सृजन उस सृष्टा का,
मलय सुगंध-सा झोंका हो जैसे नासा से आया
अधरों से उजासे अरुणिम क्षितिजीय लाली,
एक महा-चुम्बक सी लागे तेरी कोमल सी काया।

तू सृष्टा है, तू व्यवस्था है, इस सम्पूर्ण जगत की,
है तुझी से ही हर छोटा-बड़ा इस सृष्टि में आया।
उत्तेजना में लागे है दोपहरी का चमकता हुआ सूरज,
परिणय में लगे हैं पूर्ण चन्द्र की पूर्णमासी की छाया॥

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