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हिंदी को बोलियों से मत लड़ाइए

डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय

मुंबई(महाराष्ट्र)

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मनुष्य की भांति भाषाओं का भी अपना समय होता है,जो एक बार निकल जाने के बाद वापस नहीं लौटता। इसे हम संस्कृत,पालि,प्राकृत,अपभ्रंश इत्यादि के साथ घटित इतिहास द्वारा समझ सकते हैं। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि आदिकाल में राजस्थानी मिश्रित डिंगल और पिंगल शैली तथा बुंदेली एवं मैथिली मुख्य रूप से काव्य-भाषा थी। उसी समय अमीर खुसरो ने खड़ी बोली में काव्य-रचना करके अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। इसके बाद सारा सूफी-काव्य अवधी में लिखा गया। इस अवधी में मलिक मुहम्मद जायसी और गोस्वामी तुलसीदास जैसे महाकवि भी आए,जिन्होंने पद्मावत और रामचरितमानस जैसे महाकाव्य लिखकर अवधी को विश्व-स्तरीय काव्य-भाषा बना दिया। इसके समानांतर सूरदास एवं अन्य कृष्णभक्त कवियों ने ब्रजभाषा को काव्य-भाषा का सबसे लोकप्रिय माध्यम बनाकर उसे आगामी समय के लिए भी प्रतिष्ठित कर दिया। अंग्रेजी शासन के दौरान सबसे पहले सत्ता द्वारा हिंदी-उर्दू विवाद पैदा किया गया। जब स्वाधीनता संग्राम के कठिन संघर्ष के दिनों में देश के नेताओं,सेनानियों और साहित्यकारों-पत्रकारों ने हिंदी को लड़ाई की मुख्य भाषा बनाया,तब हिंदी राष्ट्रीय-संवाद का एक व्यापक तथा प्रभावी माध्यम बन गयी। यदि भारत का संविधान लागू होने तक महात्मा गांधी जीवित रहते,तो वह हर हाल में भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा बन जाती।गांधीजी के न होने का खामियाजा उसे राजभाषा बनकर उठाना पड़ा। आज जिस तरह हम लोकतांत्रिक देश के रूप में आगे बढ़ने के बाद वापस राजाओं-महाराजाओं के समय में नहीं लौट सकते,उसी तरह हम हिंदी के अति-विकसित एवं विश्वव्यापी भाषा बनने के बाद वापस उन बोलियों के युग में नहीं लौट सकते,जो किसी समय साहित्य-सृजन का मुख्य माध्यम थीं। यहां तक कि संस्कृत जैसी गौरवशाली भाषा के दौर में प्रत्यावर्तन करना असंभव है। ऐसा करना न केवल आत्मघाती होगा,अपितु संपूर्ण देश में भाषिक अराजकता का माहौल बना देगा।

आज हिंदी के समक्ष त्रिआयामी संकट उपस्थित हो गया है। पहला संकट उसे हर जगह और हर स्तर पर अंग्रेजी के वर्चस्व एवं साम्राज्यवाद से पार पाने का है। दूसरा संकट वायको जैसे कुछ नेताओं द्वारा हिंदी थोपने के विरोध को लेकर है। ऐसे नेताओं को अंग्रेजी थोपे जाने को लेकर कोई आपत्ति नहीं है। इसी क्रम में तीसरा जो सबसे बड़ा संकट है,वह बोलियों से उसे लड़ाने का है। इस समय हिंदी के भविष्य एवं अखंडता के समक्ष इतिहास का सबसे बड़ा संकट उपस्थित है। अंग्रेजों ने दो सौ वर्षों के शासन के दौरान जो सफलता नहीं पायी,उसे हमारे देश के कतिपय स्वार्थी तत्व साकार करने के लिए प्रयासरत हैं। कुछ लोग हिंदी की उन बोलियों को जो सैकड़ों साल से उसकी प्राणधारा रही हैं,संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करवाकर हिंदी की प्रतिस्पर्धा में लाना चाहते हैं। ऐसे लोग उन बोलियों के जो हिंदी का अविच्छिन्न अंग हैं,और जिनके साथ उसका संबंध अंगांगिभाव का है,उन्हें संवैधानिक दर्जा देकर उसे स्वतंत्र व्यक्तित्व देना चाहते हैं। उसे हिंदी की सौतन बनाना चाहते हैं। हम भारतीयों को यह नहीं भूलना चाहिए कि,अमेरिका एवं चीन जैसे राष्ट्रों के रक्षा बजट की तरह अपनी भाषाओं के प्रसार एवं दूसरी भाषाओं के विस्थापन का बजट भी है। जिस नेपाल में हिंदी कभी दूसरी राजभाषा थी,आज वहां हिंदी का स्थान चीन की भाषा मंदारिन ले चुकी है। ठीक इसी तरह अंग्रेजी की समर्थक ताकतें हिंदी को उसकी बोलियों से लड़वाकर दोनों को ही विस्थापित करना चाहती हैं। इसके पीछे एक गहरी सांस्कृतिक साज़िश है,जिसे क्षेत्रीय स्वार्थ में लिप्त लोग नहीं समझ पा रहे हैं। विश्व की बड़ी ताकतें अपनी भाषा एवं संस्कृति के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं और हम इतिहास से कुछ भी न सीख कर आपसी संघर्ष में।

आचार्य चाणक्य कहा करते थे कि,भाषा,भवन,भेष और भोजन संस्कृति के निर्माणक तत्व हैं। किसी भी संस्कृति की निर्मिति इन चारों के समन्वय से होती है। यदि आज नयी पीढ़ी चीनी व्यंजनों,मैकडोनाल्ड के बर्गर और पेप्सी-कोक पर लार टपकाती है,अंग्रेजों जैसा कपड़ा पहनती है,तो भाषा ही एकमात्र साधन है जो हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और संस्कृति की रक्षा कर सकती है,क्योंकि भवन निर्माण के अमेरिकी माॅडल को लगभग पूरे विश्व ने स्वीकार कर लिया है। ऐसी स्थिति में जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं,उसका मूल स्वरूप खतरे में है। अतः संकट को उसकी समग्रता में समझने की जरूरत है।आज फिर से हमारे कुछ नवनिर्वाचित सांसद भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करवाने की बात कर रहे हैं। इसके अलावा हिंदी की ३८ बोलियों के तथाकथित पुरस्कर्ता गृह मंत्रालय के पास उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करवाने के लिए आवेदन कर चुके हैं। इन बोलियों में अवधी,ब्रज,बुंदेली,मालवी,कुमायूंनी,गढ़वाली,हरियाणवी,निमाड़ी,राजस्थानी,छत्तीसगढ़ी,अंगिका,मगही,सरगुजिया,हालवी,बघेली इत्यादि का समावेश है,लेकिन सबसे ज्यादा दबाव भोजपुरी और राजस्थानी की ओर से बनाया जा रहा है। भोजपुरी के समर्थक तो अवधी भाषी जनसंख्या एवं साहित्यकारों को भी अपने अंतर्गत दिखा रहे हैं।
भारत सरकार से आग्रह करता हूँ कि यह भाषाई राजनीति केवल भोजपुरी और राजस्थानी को स्वतंत्र भाषा का दर्जा देने से खत्म नहीं होगी। यह आरक्षण से भी ज्यादा खतरनाक खेल है,जब तक सारी ३८ बोलियों को भाषा का दर्जा नहीं मिल जाएगा,तब तक वे संघर्षरत रहेंगी। इसके बाद मराठी,गुजराती,बांग्ला समेत दूसरी भाषाओं की बोलियां भी स्वतंत्र भाषा का दर्जा हासिल करने के लिए सन्नद्ध होंगी। ऐसी स्धिति में भयावह भाषिक अराजकता फैल जाएगी,जिससे निपटना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं होगा। केवल मत की राजनीति के लिए हिन्द और हिंदी के स्वाभिमान पर चोट न की जाए। उसे तोड़ा न जाए। आज जिस भोजपुरी का कोई मानक रूप नहीं है,कोई व्याकरण नहीं है,कोई साहित्यिक परम्परा नहीं है और जिसमें कोई दैनिक अखबार नहीं निकलता है,उसे हिंदी से अलग करने वाले आखिर किस पात्रता के आधार पर बात कर रहे हैं। इस संदर्भ में महात्मा गांधी का कथन विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि-‘जो वृत्ति इतनी वर्जनशील और संकीर्ण है कि हर बोली को चिरस्थायी बनाना और विकसित करना चाहती हो,वह राष्ट्र विरोधी और विश्व विरोधी है। मेरी विनम्र सम्मति में तमाम अविकसित और अलिखित बोलियों का बलिदान करके उन्हें हिंदी(हिंदुस्तानी)की बड़ी धारा में मिला देना चाहिए। यह देशहित के लिए दी गई कुर्बानी होगी,आत्महत्या नहीं(यंगइंडिया-२७अगस्त १९२५)l
इसी लक्ष्य को साकार करने का कार्य हमारे संविधान निर्माताओं ने किया है। इस महादेश में आंतरिक एकता तथा संवाद का एकमात्र माध्यम बनकर हिंदी ने अपनी उपयोगिता सिद्ध कर दी है। अंतर्राष्ट्रीय भोजपुरी सम्मेलन के प्रथम अध्यक्ष डाॅ. विद्यानिवास मिश्र ने ‘हिंदी का विभाजन’ शीर्षक आलेख में लिखा है कि,-“जो बोलियों को आगे बढ़ाने की बात करते हैं,वे यह भूल जाते हैं कि ये बोलियां एक-दूसरे के लिए प्रेषणीय होकर ही इन बोलियों के बोलने वालों के लिए महत्व रखती हैं,परस्पर विभक्त हो जाने पर इनका कौड़ी बराबर मोल न रह जाएगा। भोजपुरी,अवधी,मैथिली,बुंदेली या राजस्थानी के लिए गौरव होने का अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि हिंदी का अब तक का इतिहास,एक केन्द्र निर्माता इतिहास झूठा हो जाए और इतने बड़े भू-भाग के भाषा-भाषी एक-दूसरे से बिराने होकर देश के विघटन के कारण बन जाएँ।”
आज अपने निहित स्वार्थ के लिए जो लोग हिंदी को तोड़ने का उपक्रम कर रहे हैं,वे देश की भाषिक व्यवस्था के समक्ष गहरा संकट उपस्थित कर रहे हैं। वे यह नहीं जानते हैं कि हिंदी के टूटने से देश की भाषिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी और देश को एकता के सूत्र में पिरोने वाला धागा टूट जाएगा।वस्तुतः,जिसे हम इस देश की राजभाषा हिंदी कहते हैं,वह अनेक बोलियों का समुच्चय है। हिंदी की यही बोलियां उसकी प्राणधारा हैं,जिनसे वह शक्तिशालिनी बनकर विश्व की सबसे बड़ी भाषा बनी है,लेकिन जो बोलियां विगत १३०० वर्षों से हिंदी का अभिन्न अवयव रही हैं,उन्हें कतिपय स्वार्थी तत्त्व अलग करने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमें एकजुट होकर हिंदी को टूटने से बचाना चाहिए,अन्यथा देश की सांस्कृतिक तथा भाषिक व्यवस्था चरमरा जाएगी। यहां विचारणीय है कि हिंदी और उसकी तमाम बोलियां अपभ्रंश के सात रूपों से विकसित हुई हैं,और वे एक-दूसरे से इतनी घुल-मिल गयी हैं कि,परस्पर पूरकता का अदभुत उदाहरण हैं। यह भी सच है कि हिंदी के भाग्य में सदैव संघर्ष लिखा है। वह संतों,भक्तों से शक्ति प्राप्त करके लोक शक्ति के सहारे विकसित हुई है

आज विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा होने के कारण विश्व की नवसाम्राज्यवादी ताकतें हिंदी को तोड़ने का उपक्रम कर रही हैं। वे भली-भाँति जानती हैं कि यदि हिंदी इसी गति से बढ़ती रहेगी तो विश्व की बड़ी भाषाओं मसलन-मंदारिन,अंग्रेजी,स्पैनिश,अरबी इत्यादि के समक्ष एक चुनौती बन जाएगीl इंग्लैंड को आज यह भय सता रहा है कि कहीं ऐसा न हो कि २०५० तक अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी वहां की प्रमुख भाषा न बन जाए। अभी कुछ समय पहले पंजाबी कनाडा की दूसरी राजभाषा बना दी गई है,और संयुक्त अरब अमीरात ने हिंदी को तीसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा दे दिया है। दूसरी ओर आज हिंदी मानव संसाधन की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम बन गयी है। हिंदी चैनलों की संख्या लगातार बढ़ रही है। बाजार की स्पर्धा के कारण ही सही अंग्रेजी चैनलों का हिंदी में रूपांतरण हो रहा है। इस दौर में वेब-लिंक्स और गूगल सर्किट का बोलबाला है। इस समय हिंदी में भी १ लाख से ज्यादा ब्लॉग सक्रिय हैं। अब सैकड़ों पत्र-पत्रिकाएँ इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। गूगल का स्वयं का सर्वेक्षण भी बताता है कि,विगत ३ वर्षों में सोशल मीडिया पर हिंदी में प्रस्तुत होने वाली सामग्री में ९४ प्रतिशत की दर से इजाफा हुआ है,जबकि अंग्रेजी में केवल १९ प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। यह इस बात का द्योतक है कि हिंदी न केवल विश्वभाषा बन गयी है,अपितु वैश्वीकरण के संवहन में अपनी प्रभावी भूमिका अदा कर रही है। हिन्द और हिंदी की विकासमान शक्ति विश्व के समक्ष एक प्रभावी मानक बन रहे हैं। फलतः,कतिपय स्वार्थी तत्व हिंदी को तोड़ने में संलग्न हो गये हैं। वे जानते हैं कि हिंदी बाहर की तमाम चुनौतियों का सामना करने के लिए सन्नद्ध हो रही है। यदि उसे कमजोर करना है तो बोलियों से उसका संघर्ष कराना होगा। इस लक्ष्य से परिचालित होकर इस समय हिंदी की ३८ बोलियां संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने के लिए प्रयासरत हैं। यदि ऐसा होता है तो न केवल हिंदी कमजोर होगी,अपितु हिंदी के बृहत्तर परिवार से कटते ही उन बोलियों का भविष्य भी अनिश्चित हो जाएगा। आखिर जो विषय साहित्य,समाज,भाषा विज्ञान और मनीषी चिंतकों का है,उसे राजनीतिक रंग क्यों दिया जा रहा हैl

अब तो सर्वोच्च न्यायालय ने भी कह दिया है कि कोई भी राजनीतिक दल जाति,धर्म और भाषा के आधार पर मत नहीं मांग सकता। हिंदी का प्रश्न अभिनेताओं,नेताओं के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। इस देश के जन समुदाय ने उसे संपर्क भाषा के रूप में स्वतः स्वीकारा है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि,जब संविधान निर्माताओं ने देश की राजभाषा के रूप में हिंदी का सर्वसम्मति से चयन किया था तो उन्होंने स्वेच्छा से देशहित में बोलियों का बलिदान करवाया था। यह कुछ वैसा ही कार्य था,जैसे देवासुर संग्राम के समय सारे देवताओं ने अपनी-अपनी विशेष शक्तियाँ दुर्गा को सौंप दी थी। फलतः,शक्ति समुच्चय के कारण दुर्गा असुरों के संहार में समर्थ हुईं। हिंदी को इसी तरह के दायित्व का निर्वहन विश्व भाषाओं के समक्ष प्रतिस्पर्धी के रूप में करना है, लेकिन कुछ ऐसी ताकतें जो हिन्द और हिंदी की शुभचिंतक नहीं है,वे हिंदी की उन्हीं बोलियों को उसकी प्रतिस्पर्धी बना रही हैं। यह सारा देश जानता है कि हिंदी अपने संख्या बल के कारण भारत की राजभाषा है,और इसी ताकत के बल पर संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल कर सकती है। लोकतंत्र में संख्या बल के महत्व से सभी परिचित हैं। यदि भोजपुरी राजस्थानी समेत हिंदी की किसी भी बोली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाता है,तो हिंदी चिंदी-चिंदी होकर बिखर जाएगी और संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने का लक्ष्य ध्वस्त हो जाएगा। इससे हिन्द और हिंदी के सांस्कृतिक-भाषिक बिखराव की अंतहीन प्रक्रिया आरंभ हो जाएगी। यहां तक कि गांधी,सुभाष,विनोबा भावे समेत तमाम विभूतियों का संघर्ष और स्वप्न मिट्टी में मिल जाएगा। जो कार्य अंग्रेज दो सौ वर्षों के शासन द्वारा नहीं कर सके,वह हमारे बीच के कतिपय स्वार्थी तत्त्व साकार कर देंगेl अर्थात २०५० तक अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या हिंदी बोलने वालों की संख्या से ज्यादा हो जाएगी और हिंदी को बेदखल करके अंग्रेजी को सदा सर्वदा के लिए प्रतिष्ठित कर दिया जाएगा। हमारी हजारों वर्षों की सभ्यता,संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता अपनी पहचान खो देंगी। इसलिए,देशवासियों को जागने और तत्पर होने की जरूरत है।हिंदी के संयुक्त परिवार के टूटने से देश की सांस्कृतिक व्यवस्था भी बिखर जाएगी,जिसकी फलश्रुति देश की बौद्धिक परतंत्रता में होगी। जिस तरह गंगा अनेक सहायक नदियों से मिलकर ही सागर तक की यात्रा करती है,और अपने साथ उन नदियों को भी सागर तक पहुंचाती है,उसी तरह हिंदी से अलग होते ही बोलियों का अस्तित्व भी संकट में आ जाएगा। हिंदी राष्ट्रीय संपर्क और संवाद का एकमात्र माध्यम है। यदि हम इस माध्यम अथवा आधार को ही कमजोर कर देंगे,तो देश अपने-आप कमजोर हो जाएगा। हमारी भारतीयता कमजोर हो जाएगी।

अतः,देशवासियों से अपील करता हूँ कि यदि हमें भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता को अक्षुण्ण रखना है,तो हिंदी के संयुक्त परिवार को टूटने से बचाना होगा और कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हिंदी के संयुक्त परिवार को तोड़ने वाले अपने स्वार्थवश आगामी संकट को समझ नहीं पा रहे हैं। इतिहास हमें तटस्थ रहने की छूट नहीं देगा। इस समय जो हिंदी का पक्ष नहीं लेगा,उसे भावी पीढ़ियां क्षमा नहीं करेंगी। बोलियों के नाम पर आंदोलन करने वाालों से पुनः अपील करता हूँ कि,हिंदी को बोलियों से मत लड़ाइए। जिस तरह किसी केन्द्रीय सत्ता के टूटने के बाद छोटी ताकतें बाहरी आक्रमण का सामना नहीं कर सकतीं, उसी तरह हिंदी के बिखरते ही अंग्रेजी उसकी बोलियों के साथ-साथ समस्त भारतीय भाषाओं के अस्तित्व के समक्ष भयावह चुनौती बन जाएगी। अतः,जिस हिंदी की प्राचीर के भीतर बोलियां सुरक्षित हैं,उसे टूटने न दें। हमें भारत सरकार से माँग करनी चाहिए कि,वह हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं की समस्त बोलियों के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए एक स्वतंत्र अकादमी का गठन करे।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई )

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