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हिन्दी में ‘निर्णय’ का संकल्प:न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त

प्रो. अमरनाथ
कलकत्ता(पश्चिम बंगाल)
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इटावा (उ.प्र.) में जन्मे,इटावा तथा इलाहाबाद में पढ़े-लिखे न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त (१५ जुलाई १९३०-२३ जनवरी २०१३) हिन्दी में फैसला सुनाने वाले अन्यतम न्यायाधीश के रूप में विख्यात हैं। १९७७ में वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर नियुक्त हुए। हिन्दी में कार्य करने और निर्णय देने की प्रेरणा उन्हें न्य़ायमूर्ति कुँवर बहादुर अस्थाना से मिली। न्यायमूर्ति अस्थाना ने १४ सितंबर १९७३ को मीसा से संबंधित एक महत्वपूर्ण मुकदमे में हिन्दी में निर्णय दिया था। इस निर्णय ने उन्हें प्रेरणा के साथ ताकत भी दी थी। गुप्त जी जब एकल पीठ में होते तो सारी कार्यवाही हिन्दी में करते और पीठ के समक्ष समागत वकीलों को हिन्दी में कार्य करने की प्रेरणा भी देते। २५ नवंबर १९७७ को उन्होंने अपना पहला निर्णय हिन्दी में दिया। आगे चलकर उन्होंने हिन्दी को अपनी कार्यप्रणाली का हिस्सा बना लिया।
उच्च न्यायालय में न्यायाधीश बनने से पहले प्रेमशंकर गुप्त शासकीय अधिवक्ता रह चुके थे। अधिवक्ता के रूप में भी अवसर मिलने पर वे हिन्दी में बहस करने से नहीं चूकते थे।
न्यायमूर्ति श्री गुप्त के हिन्दी में निर्णय देने का न्यायपालिका में दूरगामी प्रभाव पड़ा। हिन्दी प्रेमियों के लिए वे प्रेरणा के स्रोत बन गए। इनके हिन्दी प्रेम के कारण उच्च न्यायालय में जहाँ केवल अंग्रेजी में काम होता था,अधिवक्तागण व अधिकारियों ने हिन्दी में कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। न्यायाधीश के रूप में अपने १५ वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने हजार से अधिक फैसले राजभाषा हिन्दी में देकर कीर्तिमान स्थापित किया।
प्रेम शंकर गुप्त के हृदय में हिन्दी के प्रति प्रेम बचपन में ही जग गया था। इटावा के सनातन धर्म विद्यालय में जब वे अध्ययनरत थे,तभी कक्षा के अध्यापक उनके गुरू स्व. शिशुपाल सिंह भदौरिया ´शिशु´ ने राष्ट्रभाषा के प्रति प्रेम पैदा कर दिया था। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान रचित अपनी भावपूर्ण एवं ओजस्वी कविताओं के माध्यम से उन्होंने अपने विद्यार्थियों के मन में राष्ट्र प्रेम एवं उसी के साथ राष्ट्रभाषा के प्रति प्रेम का जो बीज बोया,उसे प्रेमशंकर गुप्त ने जीवन में उतार लिया और पाथेय बना लिया।
निश्चित रूप से न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त ने विधि के क्षेत्र में अपने हिन्दी प्रेम एवं भारतीय संस्कृति के प्रति अपनी निष्ठा का परिचय दिया है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिन्दी के प्रति प्रेम के साथ-साथ साहित्य, संस्कृति,समाज और अध्यात्म के क्षेत्र में भी उनकी सक्रियता बराबर देखी जा सकती थी। वे हमेशा सरल,साहित्यिक व ओजस्वी वाणी से श्रोताओं के हृदय में अपनी जगह बना लेते थे।
सेवानिवृत्ति के पश्चात भी गुप्त जी ने हिन्दी की प्रतिष्ठा के लिए अपना प्रयास जारी रखा। उत्तर प्रदेश सरकार ने उनकी हिन्दी-सेवा के लिए हिन्दी-गौरव सम्मान से अलंकृत किया। सम्मान के साथ उन्हें ५१ हजार ₹ मिले तो न्यायमूर्ति ने अपनी तरफ से २० हजार मिलाकर ‘हिन्दी सेवा निधि’ नाम की संस्था बनाई। यह संस्था उनके गृहनगर इटावा में कार्य करती है। गुप्त जी के न रहने पर भी संस्था उनके मिशन को पूरा कर रही है। श्री गुप्त की पुण्यतिथि पर हम हिन्दी के प्रति उनकी निष्ठा और हिन्दी के हित में किए कार्यों का स्मरण करके श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुम्बई)

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