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राहुल की विपश्यना:रण में जूझने और रण तजने का फर्क…

 

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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राजकपूर की ‍यादगार फिल्म ‘बरसात’ का गाना है-‘छोड़ गए बालम मुझे हाय अकेला छोड़ गए…।’ देश की सबसे पुरानी और सर्वाधिक सत्ता में रही कांग्रेस पार्टी में कुछ ऐसा ही आलम है। कहने को देश में २ राज्यों महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव हो रहे हैं,लेकिन कांग्रेस इसी में उलझी है कि घर के चिरागों से ही लगी आग को कैसे बुझाया जाए ? क्योंकि यह आग कम होने की बजाए बढ़ती ही जा रही है। पूरी पार्टी ‘माँ’ सोनिया और ‘बेटे’ राहुल के खेमे में बंटी दिखती है। एक तरफ रणक्षेत्र में जूझने की चुनौती है,तो दूसरी तरफ रण से भागने में मुक्ति का संतोष है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भाजपा से निपटने के बजाए कांग्रेस नेता एक-दूसरे को ही निपटाने में लगे हैं। पार्टी इन राज्यों में विधानसभा चुनाव में जीतेगी या नहीं,इससे भी बड़ा सवाल यह है कि पार्टी जिंदा रहेगी या नहीं ? सवाल यह भी है कि क्या राहुल का अलिप्त भाव और उनके बंदों के बागी तेवर राहुल की वापसी की नई व्यूह रचना है,या फिर यह राहुल युग के समापन के साथ कांग्रेस का वजूद बचाने की अंतिम लड़ाई है ?

अमूमन संकट की घड़ी में शेर और बकरी भी साथ रह लेते हैं,पर कांग्रेस में ऐसा नहीं होता। वहां संकट पार्टी को और ज्यादा विखंडित करता है। वहां राजनीतिक पत्थरबाजी अपनों को ही घायल करने लगती है। लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गांधी ने नैतिक जिम्मेदारी लेकर इस्तीफा देने की एक अच्छी परम्परा शुरू की थी,लेकिन बैसाखियों की आदी पार्टी ने राहुल को ‘रणछोड़दास’ ठहराने में कसर नहीं छोड़ी। राहुल के इस्तीफे को नियति मानने वाला खेमा सोनिया के नेतृत्व में ज्यादा मजबूत हुआ। बूढ़े सिपहसालारों ने नए अलमबरदारों को अपने ढंग से निपटाना शुरू कर दिया।सोनिया के वफादार यह साबित करने में जुटे हैं कि कांग्रेस पार्टी बूढ़े और अनुभवी हाथों में ही सुरक्षित है। पार्टी की इस अंतर्कलह में ताजा पलीता वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व‍ विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने यह कहकर लगाया कि लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल गांधी द्वारा पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफे से संकट और बढ़ा है। उनके इस फैसले के चलते पार्टी हार के बाद जरूरी आत्मनिरीक्षण भी नहीं कर पाई। उन्होंने कहा कि,हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमारे नेता ही साथ छोड़ गए। सलमान के इस तीखे बयान पर कांग्रेस के ही एक और नेता राशिद अल्वी ने पलटवार किया कि कि कांग्रेस को अब बाहरी दुश्मनों की जरूरत नहीं रह गई है।

जब पार्टी को भाजपा से मुकाबले के लिए एकजुट होना चाहिए,तब हर जगह से अलग-अलग सुर सुनाई पड़ रहे हैं। उधर पार्टी के एक और वरिष्ठ नेता और महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इस आग को यह कहकर और हवा दी ‍कि अब कांग्रेस को आत्म चिंतन करना चाहिए। कांग्रेस की इस बेबसी पर केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा ने जमकर मजे लिए। पार्टी प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा कि-“खुर्शीद मानते हैं कि राहुल गांधी ‘छोड़ गए’ और सोनिया गांधी सिर्फ ‘फौरी इंतजाम’ देख रही हैं। इसका मतलब है कि कांग्रेस में कोई नेता,नीति और नीयत नहीं बची है।”

राहुल गांधी इस मायने में कांग्रेस के शायद अकेले ऐसे नेता हैं,जिनकी निजी और सार्वजनिक जिंदगी में ताल मेल बिठाना और उसमें कोई स्पष्ट अंतर्सबंध ढूंढना एक अनबूझ पहेली है। कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने पिछले दिनों एक साक्षात्कार में माना था कि भारत जैसे देश में जहां नेताओं से २४ × ७ राजनीति करने की अपेक्षा की जाती है, वहां राहुल गांधी जैसे नेता इस परिभाषा में अनफिट हैं। दूसरे शब्दों में कहें,तो पार्ट टाइम पाॅलिटिक्स हमारे यहां मंजूर नहीं है। जब पार्टी को राहुल की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होती है,वो किन्हीं दूसरे खयालों में मगन रहते हैं। जब उनसे खुद गाड़ी ड्राइव करने की अपेक्षा की जाती है,वो गाड़ी को धक्का लगाने वालों को ढूंढ रहे होते हैं। जब राहुल से किसी राजनीतिक अभियान के प्रबल नेतृत्व की उम्मीद की जाती है,वो अपना जिरह बख्तर और तलवार किसी और को सौंपने की जिद कर रहे होते हैं। जब-तब विदेश चल देना,उनकी खास कार्यशैली और जीवन शैली का हिस्सा रहा है। हाल में जब वो अचानक पूर्वी एशियाई देश कम्बोडिया की यात्रा पर गए तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं को समझ नहीं आया कि वो दो राज्यों में चुनावी युद्ध के नगाड़ों पर झूमें या फिर राजनीतिक धर्म से विरक्ति का सारंगी वादन सुनें। यह जानते हुए भी कि आज कांग्रेस नीति,रणनीति और नीयत के हिसाब से भी लकवाग्रस्त है, राहुल ने खुद को मुख्‍य धारा से अलग कर लिया और अपने समर्थकों को भी उनकी किस्मत पर छोड़ दिया।

राहुल की ताजा यात्रा के बारे में कहा जा रहा है ‍कि वह विपश्यना के लिए बौद्ध देश कंबोडिया गए थे। यह भी कहा गया कि वो ‘अज्ञातवास’ पर गए हैं। इसी ‘अज्ञातवास’ का सियासी सिरा तलाश कर चतुर मोदी सरकार ने राहुल जैसे नेताओं को एसपीजी सुरक्षा मुहैया कराने का ऐलान कर डाला। बताया जाता है कि यदि सम्बन्धित व्यक्ति एसपीजी सुरक्षा लेने से इंकार करे तो सरकार उसकी विदेश यात्राओं पर कैंची चला सकती है। वैसे राहुल को एसपीजी सुरक्षा अभी भी हासिल है,पर विदेश यात्रा के दौरान ये सुरक्षाकर्मी एक सीमा तक ही उनकी सुरक्षा में रहते हैं। बाकी समय राहुल अपनी मर्जी से आ-जा सकते हैं। नई व्यवस्था के तहत अब राहुल पर एसपीजी का पूरा‍ शिकंजा रहेगा,फिर चाहे वो विपश्यना ही क्यों हो। वैसे कोई कोई कहां रहे,कहां जाए,किसलिए जाए,यह उसका निजी मामला है। इस नाते राहुल गांधी को भी पूरा हक है कि वो चाहे तो विपश्यना करें या ‍राजनीतिक भंडारा करें। चाहे तो वो यह भी जताते रहें कि सियासत उनके लिए साधन है,साध्य नहीं।

इस बार फर्क यह है ‍कि, सलमान खुर्शीद जैसे गंभीर कांग्रेस नेता ने राहुल गांधी के लिए ‘छोड़ जाने’ शब्द का इस्तेमाल किया है। खुर्शीद के बयान में छिपी हताशा साफ दिखती है कि राहुल ने संकट की घड़ी में सेना के सूत्र संभालने के बजाए खुद ही शस्त्र रख दिए हैं। अपने कवच कुंडल उतार दिए हैं। इस ‘सेनानायक’ के मैदान छोड़ जाने की अनुगूंज उन रण क्षेत्रों में साफ सुनाई दे रही है,जहां तलवारें खनकने के पहले ही राहुल के ‘आदमियों’ के सिर बड़ी सफाई से कलम किए जा रहे हैं। महाराष्ट्र में मुंबई प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्‍यक्ष संजय निरूपम हों,हरियाणा में पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राजेन्द्र तंवर हों या फिर त्रिपुरा प्रदेश कांग्रेस अध्‍यक्ष पद छोड़ने वाले प्रद्योत डेबरमैन हों,ये सभी कांग्रेस में आज अपने को सोनिया समर्थकों की ‘निरकुंशता’ के शिकार मान रहे हैं। तंवर ने तो यहां तक कह दिया कि,-‘मेरा मसीहा ही मेरा कातिल निकला’,लेकिन यही ‘मसीहा’ खुद अपनी मुक्ति ‘विपश्यना’ में खोज रहा है। एक साक्षात्कार में राहुल गांधी ने कहा था कि मोदीजी को आम पसंद हैं और मुझे विपश्यना। दरअसल विपश्यना( विपस्सना) एक बौद्ध योग साधना है,जिसका अर्थ है विशेष प्रकार से देखना। विपश्यना जीवन की सच्चाई से भागने के बजाए सच्चाई को उसके वास्तविक रूप में स्वीकारने की प्रेरणा देता है, पर राहुल की कार्य-शैली विपश्यना में निहित भाव से मेल नहीं खाती। वो जो कर रहे हैं,वह मुक्ति का आध्यात्मिक मार्ग तो हो सकता है,लेकिन सत्ता की साधना का नहीं हो सकता।

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