हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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कल ही भारत सरकार के गृह मंत्रालय की अधिसूचना हुई थी कि भारत के तमाम किसानों को ‘कोरोना’ कर्फ्यू के दौरान ‘सामाजिक दूरी’ के नियमों का पालन करते हुए कृषि कार्य करने की इजाजत रहेगी। खबर सुनते ही किसानों के चेहरों की चमक गाँवों के गलियारे में देखने लायक थी। रात बीतते ही लोग अपने-अपने औजार लेकर खेतों में आ धमके और सरकारी हिदायतों का पालन करते हुए अपने कामों में जुट गए। गाँव के एक बूढ़े चाचा भी अपने खेतों में निगरानी करने मेरे घर के पास वाली जमीन पर आए हुए थे। मैं अपने आँगन में बैठ कर सबको देख रहा था। यूँ तो लोग सामाजिक दूरियों का पालन करते हुए खेतों में काम कर रहे थे, पर आ बड़ी सुबह गए थे। मैंने पास के खेत में चाचा को छेड़ते हुए कहा, “क्यों चाचा ? इतनी सुबह क्यों आ निकले हो खेतों में ? खबर नहीं सुनते हो क्या ? जानते हो, सरकार ने ‘कोरोना कर्फ्यू’ लगा रखा है। ऐसे में तुम सुबह-सुबह खेतों में आ धमके हो। पुलिस आई न तो…।”
चाचा ने मेरी बात काटते हुए कहा, “हाँ बेटा सब सुनते हैं। इतने दिनों से सब पालन कर रहे थे। यह तो कल रात सरकारी खबर आई कि सभी किसान अपनी खेती-बाड़ी का काम कर सकते हैं, तो लोग अपनी-अपनी उतावली में सुबह-सुबह निकल आए हैं। फिर दिन को धूप पड़ेगी। उमस में काम नहीं हो पाता। हम किसानों की हालत इन खेतों के बिना पतली हो जाएगी बेटा। यह तो सरकार का शुक्र है, कि हमें रियायत दे दी, वरना देश में जमा किया हुआ अन्न कब तक चलता ?”
चाचा को शायद यह नहीं पता था, कि वह कितनी बड़ी बात कह गए हैं ? सचमुच यदि ऐसे नाजुक दौर में देश का किसान हथियार डाल दे, तो खाने के लाले पड़ जाएंगे। भले ही चाचा अपने परिवार की चिंता के चलते ही यह सब कह गए थे, पर कह गए एक पते की बात। मैंने वक़्त बिताने की नीयत से चाचा को छेड़ते हुए से कहा, “चाचा कोई अपनी पुरानी बात सुना दो। आपके खेतों की रखवाली भी हो जाएगी और वक़्त भी गुजर जाएगा।”
चाचा अपने सलवटों वाले चेहरे पर एक अजब की हँसी ले आते हैं। कहते हैं, “क्या बताऊं बेटा…? जिंदगी संघर्षों में बीत गई। अब क्या रहा सुनाने को ?”
मैंने कहा, “चाचा आप-बीती ही सुना दो।”
“छोड़ो भी बेटा, अब कौन सुनता है हमारी पुरानी कहानियाँ ?” यह कहते-कहते चाचा की आँखों से आँसू निकल आए।
मैंने कहा, “माफ करना चाचा, शायद मैंने तुम्हें गलत छेड़ लिया ?”
“नहीं बेटा, ऐसा कुछ नहीं है। बस पुरानी बातें याद आ गई।”
इन्हीं पुरानी बातों से शुरू होती है चाचा की दर्दीली कहानी। वह चाचा की जवानी का दौर था। जीवन जहाँ मदहोश था, वहाँ सच- झूठ को जानने की भी अंदर ही अंदर एक गजब कश्मकश थी। इन्हीं जिज्ञासाओं का शमन करने चाचा एक दिन पड़ोस की उनकी काकी के साथ सत्संग सुनने गए थे। असल में वे भगवान, सृष्टि, जीवन, मृत्यु और भी न जाने कौन-कौन से सवालों का जबाव पाने की इच्छा से गए थे, पर उन्हें सब सवालों का एक सार जबाव
यह मिला, कि मनुष्य संसार की एक जाति है और मानव धर्म ही एकमात्र धर्म है। बाकी सब अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने वाली बातें हैं।
उस दिन महात्मा जी सत्संग में सुना रहे थे, “प्रिय भक्तों, भगवान का स्मरण, देवताओं का पूजन और धर्म का पालन मनुष्य का सर्वोत्तम कर्तव्य है। इसलिए हमें जीते-जी हर क्षण इनका पालन करना चाहिए।”
चाचा ने जिज्ञासा से पूछ लिया,-“महात्मा जी यह ईश्वर कौन है ? और कैसा दिखता है ? और कैसे मिलता है ?”
महात्मा बड़े खुश हुए, सोचा यह भक्त काम का है, इसके सहारे मैं अपना ज्ञान सबको बांटूंगा। बोले,-“बहुत सुंदर प्रश्न बच्चा। भगवान ब्रह्मा, विष्णु, शिव और माँ दुर्गा आदि शक्तियों को मानो। उनके जैसे चित्र बने होते हैं, वैसे ही दिखते भी हैं वे सब। जिस भाव से आप उन्हें ध्याओगे, वैसे दिख जाते हैं। भक्ति और साधना से वे मिलते हैं। कोई और सवाल हो तो बेझिझक करो। सत्संग में भागवत चर्चा होनी चाहिए।”
उस दिन महात्मा जी राम कथा संक्षेप में सुना रहे थे। चाचा जी ने पूछा,-“महात्मा जी क्या राम भगवान नहीं है तब।”
“कैसी बात करते हो बच्चा ? वे तो साक्षात भगवान हैं।”
चाचा ने फिर पूछा,”तो महात्मन इनमें असली और सबसे बड़ा भगवान कौन है ?”
“ये सभी असल में एक हैं बेटा। ये तो लीला रूप में भिन्न-भिन्न बनते हैं।”
चाचा ने अगला सवाल पूछा,- “क्या ये सबकी रक्षा आज भी कर सकते हैं ? क्या ये हमें आज भी मुसीबत से बचाने के लिए हमारे सामने प्रकट होते हैं ?”
अब महात्मा अपने-आपको कुछ असहाय महसूस कर रहे थे। कुछ झुंझलाते हुए से बोले,-“कैसी बातें कर रहे हो बच्चा ? भगवान तो सर्वत्र है और हर क्षण हमारे साथ रहते हैं। हमेशा तो वे ही हमारी रक्षा करते हैं। उन्हें ही दिखते हैं, जो भक्ति करते हैं और उन्हें देखने के लिए प्रयत्न करते हैं ?”
चाचा ने निवेदन किया,”महात्मन गुस्सा क्यों कर रहे हो ? मैं तो यह पूछ रहा था, कि भगवान मुझे कैसे दिखेंगे ? मैं देखना भी चाहता हूँ और प्रयत्न भी करना चाहता हूँ।”
महात्मा बड़े जोर से हँस दिए,- “भगवान को पाना कोई खाला जी का बाड़ा है क्या ?, जो तू इसी क्षण उन्हें देख ले। उन्हें पाने के लिए तप करना पड़ता है तप।”
यह सब वे बड़ी ऐंठ के साथ बोले।
“तो महात्मन मुझे बताओ कि वह कैसे किया जाता है ? मैं सब करने को तैयार हूँ।”
अपना पीछा छूटता देख महात्मा ने कुछ कठोर धार्मिक क्रियाओं के साथ कुछ मंत्र भी जपने को कहा। चाचा ने ४ साल कठिन पालन करके अपना धर्म निभाया। जब कोई दर्शन ही नहीं हुए, तो चाचा पुनः महात्मा के वहाँ चले गए। उन्होंने अपनी जिज्ञासा पुनः प्रगट की,-“गुरु जी मैंने वे सब नियम निभाए, जो आपने बताए, पर भगवान नहीं दिखे। ऐसा क्यों हुआ गुरुवर ?”
अपनी लाज बचाते हुए महात्मा बोले,-“देखो बच्चा, तुम्हारी भक्ति में कोई चूक हुई है। इसलिए एक साल और प्रयत्न करो।”
चाचा ने पुनः दिल से क्षमा-याचना के साथ प्रयास किया, पर फिर से वही ढाक के तीन ही पात। पुनः जब महात्मा के वहाँ गए तो उनसे एक विधि आँख मूंद कर करवाई गई। उन्हें यह भी बताया गया कि अपनी आँखों को भींच कर देखो, कोई प्रकाश या ज्योति दिख रही है।
चाचा ने कहा,-“गुरुवर यह तो मैं परेशानियों में आँखें भींचते हुए भी देखता हूँ, पर मुझे अपने प्रभु राम के दर्शन करने हैं।”
“मूर्ख वही तो बार-बार प्रभु तुझे अपनी उपस्थिति परेशानी में देता रहा और तुझे रास्ता दिखाता रहा। तुझे मालूम ही नहीं था। आज यह समझ ले और उस प्रभु का शुक्रगुजार हो। वे निराकार हैं। ऐसे ही दिखते हैं।”
चाचा ने पूछा,-“गुरुवर जब उनका आकार ही नहीं है, तो फिर यह सब मुझसे क्यों करवाया गया ? बिना आकार की कोई चीज जब हम देख ही नहीं सकते, तो फिर यह नाटक क्यों ?”
चाचा के सवालों में फंसे महात्मा ने उन्हें वहाँ से भगा दिया था। इन वर्षों के अंतराल में चाचा जवानी के दौर से गुजरते हुए महात्मा के एक भक्त की जवान बेटी से नयन लड़ा बैठे थे। वह लड़की भी प्रेमपाश में बंध गई थी। बाधा थी तो महात्मा द्वारा परमात्मा प्राप्ति के लिए बताया तीव्र ब्रह्मचर्य का पालन। इसलिए, यह बात किसी को पता ही नहीं थी कि वे दोनों प्यार करते हैं। आज चाचा जी महात्मा के नियम से पूरी तरह आजाद थे। रास्ते में जाते-जाते उन्हें एक बुजुर्ग मिल गया था, जो उन्हें सलाह दे गया था कि बेटा ईश्वर सत्य है और वह किसी के सामने नहीं आता। वह हमेशा सबकी रक्षा करता है। वही जन्म से मरण तक सबको कर्मों के हिसाब से पालता है। माँ-बाप सब तो निमित्त मात्र हैं। चाचा ने उनसे भी अपनी जिज्ञासा रखी,-“दादा तो क्या राम भगवान नहीं थे…?”
“नहीं बेटा, वे भी एक इंसान ही थे, परन्तु भगवान जैसे नेक कर्म करने से और सेवा, तप व त्याग से वे भगवान कहलाए। यही हमारी पवित्र संस्कृति का सार है। मानवता ही परम धर्म है, यही सन्देश राम जी दे गए। हम उसी का पालन कर रहे हैं। विपरीत दशा में भी मानवता को न छोड़ना यही उनका सन्देश था। बाकी सब नियति का खेल है बेटा। नहीं तो वे भगवान होकर क्यों कष्टों पर कष्ट झेलते ? क्यों अंत में वे भी पानी में डूब कर इस दु:ख भरे संसार से मुक्ति पाते हैं ? भले ही उनके इस व्यवहार को लोगों ने फिर जल समाधि का नाम दिया, पर असल में तो वह भी आत्महत्या ही हुई न। “यह संसार दुखों का घर है”, बुद्ध भी तो यही कह गए। जब स्वयं राम-कृष्ण यहाँ सुखी नहीं रह सके, तो हम क्या रहेंगे बेटा…?”
इन बातों को सुनकर चाचा ने बूढ़े दादा से सवाल किया,-“दादा, तो क्या कोई भगवान है ही नहीं ?”
“नहीं बेटा, इस पूर्ण ब्रह्माण्ड को चलाने वाला कोई तो है। शायद हमें उसका ज्ञान नहीं है। हम उसे नियति कहते हैं। वरना कोई बताए कि राम-कृष्ण तो द्वापर-त्रेता में आए, उससे पहले सतयुग में कौन भगवान था ? जो यह सब संभालता था। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दुर्गा आदि का जिक्र भी पुराण रचयिता महर्षि अपने-अपने ग्रंथ की महिमा करने के उद्देश्य से विशेष प्रतिष्ठित रूप से करते हैं। वेदों व गीता जी में इनको भी उस भगवान के अधीन बताया गया है, पर आज धर्म पर जनक जैसी नीर-क्षीर बात करने की फुर्सत किस हुक्मरान को है, जो जनता को ठगने से बचाए ? असल में तो हम तमाम उम्र यही तय नहीं कर पाते, कि इन सबमें कौन बड़ा भगवान है। इधर, गोवर्धन उठाने वाले को बड़ा मानें या फिर द्रोणागिरी उठाने वाले को ? बहुत उलझन है बेटा।”
चाचा ने पूछा,-“तो दादा ये जाति-धर्म सब काल्पनिक है ?”
“ये तो मानव मन की निर्मितियों का जाल है बेटा। असल में भगवान एक है, जातियाँ २ और धर्म एक।”
“वे कौन-कौन-सी जातियाँ और धर्म है दादा ?” चाचा ने पूछा।
“प्रकृति ने पुरुष और स्त्री २ ही जाति इस सृष्टि को चलाने के लिए बनाई है बेटा, और उनमें अन्य जीवों से लहदा एक धर्म भर दिया, जिसका नाम ‘मानवता’ है। उससे वह दूसरों पर दया कर सकता है और सेवा कर सकता है, लेकिन उसने उलटा करना शुरू किया।तभी तो वह इतना दुखी है।”
चाचा, दादा के पास हर रोज बैठता था। दादा को कई कहानियाँ याद थी और चाचा को जुबानी सुनाया करता था, पर आज जो असर दादा की बात का चाचा पर हुआ था, वह अप्रत्याशित था। चाचा की धर्म-आध्यात्म की गुत्थियाँ तो सुलझ ही गई थी, पर जाति-पाति की डोर भी टूट गई थी।
चाचा ने निर्णय कर लिया कि मेरे और राधा के बीच जो प्रेम उपजा है, उसे दबाना ठीक नहीं है। भले ही वह उच्च जाति की है और में निम्न जाति का, पर प्रेम के आगे इन सामाजिक बंधनों को झुकना ही होगा। चाचा ने अपनी प्रेम कहानी को और ताव दिया। वहाँ राधा काकी तो जवानी की मस्ती में चाचा के गदराए बदन की पहले ही कायल थी। चाचा जब सत्संगों में भजन गाया करते थे, तो वह बेचारी वहीं उनकी आवाज पर लट्टू हो गई थी। इस बीच उसने लड़की हो कर भी चाचा को प्रेम निवेदन दे डाला था, ताकि चाचा नीची जाति का होने से अपनी हेठी की हिचक से बाहर आए। यह श्रावणी नवरात्रों के सत्संग के दौरान हुआ था। पंडाल में भीड़ के बीच राधा नाम की उस लड़की ने चाचा को कुछ कह दिया था। चाचा ने उसे शाम के भजन-कीर्तन के दौरान पीपल के नीचे मिलने को कहा था।
संध्या का झिलमिलाता-सा अंधेरा, चारों ओर धुंधला-सा ही दिख रहा था। घने कोहरे की वजह से तो कुछ भी नहीं दिख रहा था। उसी कोहरे के बीच से एक युवती को आता देख चाचा जान गए, कि राधा आई है।
“क्यों री इतनी देर क्यों लगा दी आने में ?” चाचा ने पूछा।”
“धत तेरे की। पंडाल में सभी न देख रहे थे।” राधा काकी बोली।
“तो फिर कैसे मारा बंक ? अब नहीं देख रहे होंगे कोई क्या ?” चाचा ने कहा।
“हाँ देख रहे होंगे, पर मैं माँ से कह आई हूँ कि मेरा सर दु:ख रहा है, सो मैं सोने चली गई।” काकी बोली।
“अच्छा सत्संग शाला में झूठ और वह भी माँ से। पाप लगेगा तुझे। गुरु जी की बातें नहीं सुनती है क्या ?” चाचा ने कहा।
“सुनती हूँ, पर जब कृष्ण और गोपिकाओं का प्रेम प्रसंग सुनते हो ना, तो मुझे लगता है तब तुम्हारा ध्यान नहीं होता है उनकी बातों पर।” काकी बोली।
“खैर छोड़ भी अब। ये बता क्यों मिलने आई हो ?” चाचा ने कहा।
“मैं मिलने आई हूँ या तुमने मुझे बुलाया है! शातिर कहीं के।”
काकी जवानी की शर्माती हुई स्त्री सुलभ मुस्कान बिखेरते हुए अपने चेहरे से चाचा को मुखातिब होते हुए बोली।
“धत तेरे की । मान न मान मैं तेरा मेहमान। तू ही तो कहती थी दोपहर को मिलने को। अब मुझ पर डोरे डाल रही है। सीधे-सीधे बोल काम क्या है। मैं गुरु जी के आदेश का पालन कर रहा हूँ। मुझे ब्रह्मचर्य का पालन करना है। सो मुझे मत भटकाओ। फिर हमारी बिरादरी भी तो ऊपरी-हेठी है। मुझे नहीं पड़ना किसी इस झमेले में।” चाचा बोला।
काकी की आँखों से अनचाहे आँसू निकल पड़े। वह कुछ न बोल पाई। उसके सारे अरमान चाचा की बेरूखी भरी बातों ने जला डाले थे। यह घटना उस दौर की थी, जब चाचा को १ साल का साधना का वक़्त गुरु जी ने और दिया था। इसी बीच इन दोनों के बीच यह सब हुआ था। पहले इनका परिचय नहीं था। अब कभी-कभी चाचा को भी भजन गाने का मौका मजलिस में मिल जाता था। उस मौके में चाचा खुदा को मानने के लिहाज से ऐसे-ऐसे दर्दीले भजन गाया करते थे, कि दिल को छू जाया करते थे। बस काकी भी यहीं जख्मी हो गई थी बेचारी। क्या करती ? जवानी तो है ही ऐसी कमीनी चीज कि रोके नहीं रुकती।
चाचा का लक्ष्य था भगवान पाना तो काकी का प्रेम को पाना। दया तो चाचा के हृदय की सहचरी ही थी। काकी की जवान व चंचल आँखों से आँसू बहते न देख सका। समझ गया कि यह तो मुझ पर फिदा हो गई है। धीमे से कहता है,-“रोती काहे को है री राधिका ? पगली तू समझती क्यों नहीं ? ये बिरादरी वाले हमें जिंदा नहीं छोड़ेंगे। जब तेरे बाबू जी को पता चलेगा न, अपनी हेठी के खयाल से वे तुझे ही मार डालेंगे। मेरा जो होगा, सो तो होगा। फिर मेरी भक्ति में भी तो बाधा होगी पगली।”
काकी के तो मानो पुनः साँस लौट आई थी।
“भक्ति में बाधा क्यों कर आएगी भला ? मैं थोड़े न भक्ति करने को रोक रही हूँ।” काकी बोली।
“देख जब हम यूँ जाल में फंस गए तो मेरा ब्रह्मचर्य खंडित हो जाएगा । गुरु जी कहते हैं कि किसी स्त्री को ऊँची नजर से देखना भी नहीं। बतियाना तो दूर की बात।” चाचा बोले।
“सो मुझसे क्यों बतियाए दिन को ?” काकी बोली।
“सो तो तुम बोली, कि मुझे तुमसे काम है। तब मैं बोला और तुमसे मुझे कोई खतरा भी तो नहीं जान पड़ा, क्योंकि तुम ठाकुर की लड़की और मैं कोली का लड़का। सोचा तुम तो मुझे कभी जाल में नहीं डालोगी। समाज की यही तासीर है। एक लड़की से, वो भी उच्च जाति की लड़की से सबके सामने बतियाना उचित न समझा। इसलिए यहाँ बुला लिया। तुम इसे प्यार समझ बैठी।” चाचा बोले।
“हाँ मैं प्यार समझ बैठी। समझ नहीं बैठी, कर बैठी हूँ। मैं तो तुम्हें पहली कीर्तन संध्या पर सुनते ही चाहने लगी थी। महीनों तुमसे बोल न पाई। मौका ही नहीं मिला। तुम लड़कियों की ओर देखते ही कहाँ थे ? सो तो आज भीड़ में तुम्हें कहने की हिम्मत हुई।” काकी बोली।
“अरी ओ पगली! मीरा बनने की कोशिश मत कर, वरना निभाना मुश्किल होगा।” चाचा ने कहा।
“मैं तुम्हें दिल ही दिल अपना चुकी हूँ जमलू। अब तुम ठुकरा दो तो मुझे दुखी करने के दोष में भगवान तुम्हें क्या माफ करेगा ?” काकी बोली।
चाचा गजब की उधेड़-बुन में फंस से गए। सोचा इस सालभर की साधना के बीच अब १ ही मास का समय रह गया है। तब तक इसे कैसे न कैसे मना लूँ। बस फिर तो भगवान के दर्शन हो जाएंगे। उनसे पहला वर यह मांगूँगा कि इसकी बुद्धि ठीक कर दो।
“सुन तू आज सोने चली जा। मुझे भी भजन-कीर्तन में जाना है। नहीं तो गुरु जी नाराज हो जाएंगे। फिर बात कर लेंगे।” चाचा जाते हुए बोले।
भजन मंडली से पंडाल भरा पड़ा था। बीच में जब चाचा की उपस्थिति लोगों ने देखी तो एक भजन गाने के लिए उन्हें भी कहा गया। गुरु जी ने हामी भरी। “हाँ भाई जमलू सब बोल रहे हैं तो गा ले।”
चाचा ने भजन गाया,-“तन-मन में तुम बसे हो रसिया, अब तो मान भी जा।
भूल पड़ी है हमसे आज बस, दया कर माफ करा।”
ये शब्द काकी को तीर की तरह चुभ गए। उन्होंने सोचा कि चाचा ये शब्द उनको बोल रहे थे, क्योंकि काकी घर नहीं गई थी। पीछे से पंडाल में आ कर बैठ गई थी।
संध्या खत्म हुई और सब अपने- अपने घर को चल दिए। चाचा भी पंडाल से बाहर निकल पड़े। अंधेरे में काकी ने चाचा का हाथ पकड़ा और कान में धीरे से बोली,-“जा माफ किया, पर आगे से ऐसे मत सताना।”
“तुम! तुम… घर नहीं गई क्या ?” चाचा धीरे से बोले।
“नहीं।” काकी बोली।
“क्यों ?” चाचा बोले।
“तुम्हारा भजन जो सुनना था।
“अच्छा चलती हूँ। माँ घर में कहीं पहले न पहुंच जाए!”
उस दिन से चाचा के भी ऐसी गदराई जवानी में आग बराबर लगी थी, पर जात-बिरादरी के डर से सब दबा रखा था। और सामने अपना लक्ष्य भी था, पर आज दादा की बातें सुन कर और गुरु जी की कैद से मुक्त होकर उनके मन में उस प्रेम वेदना ने पुनः अंगड़ाई ले ली थी। उसी शाम जंगल में पशुओं को चराने गए थे। इधर, राधा काकी भी पशुओं को चराने आई थी। जंगल में पुनः नयन मटक्का हुआ और आग धीरे-धीरे बेकाबू होती गई।
एक दिन काकी की सगाई पास के गाँव के ठाकुर सोहन से तय की गई, जो काकी से १५ साल बड़ा और विधुर था। ऊपर से २ बच्चों का बाप। काकी उनके पिता की पहली पत्नी की लड़की थी, जो उनके पिता को छोड़ कर किसी और संग भाग गई थी। इस बात की सूचना देने उस दिन काकी बिना झिझक चाचा के घर आधी रात को आ पहुंची। दरवाजे की सांकल खटखटाई।
“कौन ?” अंदर से आवाज आई।
“मैं हूँ।” काकी बोली।
“कौन मैं है भाई आधी रात को ?” चाचा की माँ बड़बड़ाते हुए दरवाजा खोलती है।
“अरे राधिका तुम ?” चाचा की माँ बोली।
राधिका का नाम सुन कर चाचा उठ खड़े हो गए।
“अरे राधिका तुम ? ऐसे आधी रात को ?” चाचा चौंक कर बोले।
काकी बस रोए ही जा रही थी।
“पगली कुछ बोल भी तो सही, हुआ क्या है?” चाचा बोला।
“तुमने तो इस के साथ कुछ उलटा-फुल्टा नहीं किया है, जमलू ?” चाचा की माँ बोली ।
“नहीं काकी।” काकी आँसू पोंछते हुए बोली।
“क्या बात है ? तेरी सौतेली माँ ने कहा कुछ क्या ?” चाचा की माँ बोली।
“नहीं काकी।” काकी बोली।
अब काकी ने सारी बात खुल कर बात दी थी। चाचा की माँ ने दोनों के प्यार की कहानी जब सुनी तो हक्की-बक्की सी रह गई।
“ठाकुर की बेटी है ये जमलू। ऐसा भी नहीं सोचा तूने क्या ? इसका बाप जो करेगा सो तो बाद की बात है, पर तेरा बाप आते ही तुझे मार डालेगा। जानता नहीं वह ऊँची जाति वालों का क्या अदब रखता है ?” चाचा की माँ झुंझलाते और रोते हुए बोली।
“यह नौबत नहीं आएगी काकी। उससे पहले ही मैं कूद कर जान दे दूंगी, पर उस बूढ़े से शादी नहीं करूंगी। मैंने जमलू से प्यार किया है काकी, उसका कोई दोष नहीं है। उसे मत फटकारो। जो कहना है सो मुझे कहो।” राधिका नीची आवाज में सिसकते हुए बोली।
“तुझे क्या कहूँ बेटी ? तू तो बड़ी जात की बेटी है। तुझे कहने की हमारी हिम्मत नहीं है।” चाचा की माँ ने कहा।
इधर, चाचा तो हतप्रभ ही बैठे थे। उनके लिए यह अप्रत्याशित घटना थी। वे कुछ भी निर्णय नहीं ले पा रहे थे। चाचा की माँ ने दोनों की पूछताछ के पश्चात पाया कि ये दोनों अपनी ही जान गवां देंगे। यदि अलग करने की कोशिश करूं तो ये आत्महत्या न कर डाले! और यदि इन्हें शादी करवा कर यहाँ रखूँ तो इनके बाप और समाज इनकी जान लेने में देरी न लगाएंगे। आगे कुआँ और पीछे खाई देख कर चाचा की माँ ने उन्हें भाग जाने की राय दी ।
“अपने पिता और भाई के आने से पहले-पहले यहाँ से भाग जाओ, वरना वे पता लगते ही तुम्हें स्वयं मार डालेंगे। ठाकुर तो पता नहीं क्या कर ले ?” चाचा की माँ बोली।
“नहीं माँ, हम अभी और इसी वक़्त भाग जाएंगे। बस तुम हमें कुछ पैसे दे दो।” चाचा बोला।
माँ अंदर से २ ₹ ले आई और बोली, “ले बेटा यही है मेरे पास। राधिका को दुखी मत रहने देना। ठाकुरों की बेटी है। ख्याल रखना।” दोनों को माथे से चूमती हुई और रोते-रोते विदा करती है।
उस रात वे पहाड़ियों को फांदते हुए बहुत दूर निकल गए थे। सुबह गाँव में यह हल्ला मचा कि जमलू और राधिका भाग गए। निगोड़ों ने किसी को कानों-कान खबर नहीं लगने दी। गाँव की नाक कटवा दी, पर उस समय तक वे दोनों दूसरे जिले की सीमा में प्रवेश कर चुके थे। काका ने यूँ कुछ अपनी आप-बीती मुझे सुनाई थी।
“फिर तुम्हारी आँखों में मेरे कहने पर आँसू क्यों आए चाचा ?” मैंने पूछा।
“इसलिए आए बेटा, कि मैं टी.वी. पर देख रहा था कि कई गरीब बेचारे सड़कों पर इस महामारी के दौर में भूखे-प्यासे भटक रहे हैं। उनके पास कमाने को काम नहीं और खाने को अन्न नहीं।” चाचा की बात पर मैंने कहा,-“इसमें आँसू क्यों?”
“तुम नहीं समझोगे बेटा। यह दोहरी मार क्या होती है…? बाहर बीमारी और अंदर भूख। बड़ी वेदना होती है इससे।” चाचा बोले।
चाचा ने बताया कि जब हम घर से भागे थे तो २ ₹ जब तक चले, तब तक तो खाए पर उसके बाद हम महीना भर भूखे-प्यासे गाँव व व शहर से दूर-दूर इस डर से रहते थे, कि कहीं हमको खोजते हुए घर वाले हमें पकड़ न लें। इसी बीच काकी उन जंगलों में ही रह-रह कर बीमार भी हो गई थी। इस दोहरी विडम्बना ने चाचा की जिंदगी को झकझोर कर रख दिया था। एक दिन वे हमारे गाँव में काम और काकी के इलाज की मदद मांगने आए तो खुद भी भूख से तड़प रहे थे। तब गाँव की एक बूढ़ी दलित दादी ने शरण दी थी। उसके कोई संतान न थी और बेचारी अकेली रहती थी। कुछ दिन पहले उसकी मृत्यु वृद्धत्व के चलते हुई थी। शायद यह भी चाचा के दु:ख का कारण था, क्योंकि उनकी जिंदगी का मसीहा अब उन्हें छोड़ कर चला गया था।
“आपने तो उस समय जात-पात को चुनौती दी चाचा, पर हम तो आज भी नहीं दे पा रहें हैं।” मैंने कहा।
“दे भी नहीं पाओगे बेटा।” चाचा ने कहा।
“क्यों ?” मैंने पूछा।
“अब तो जातियों के प्रमाण-पत्र कानून द्वारा बांटे जा रहे हैं बेटा। ऐसे में जाति-पाति का झगड़ा और गहराएगा देखना।” चाचा बोले।
“वह तो संवैधानिक अधिकार है काका। इसमें क्या बुराई है ? वह तो बाबा साहब ने दलित समाज को आरक्षण संजीवनी दी है, ताकि दलित समाज का उद्धार हो सके।” मैंने कहा।
“ख़ाक संजीवनी बेटा! किसने मानी बाबा साहब की ? उन्होंने १० साल आजादी के बाद तक यह आरक्षण चलाने की बात की थी, और ये चालाक लोग इसे लगातार अपने फायदे के लिए बढ़ाते गए।बाबा साहब को पता था कि ज्यादा देर तक चलने से यह आरक्षण दलितों को उलटा दुखी करेगा।” चाचा ने कहा।
“पर वह कैसे ?”
“देख बेटा, इस आरक्षण से उन्हीं तथाकथित दलितों को लाभ हो रहा है, जो इस देश के ६० फीसद सवर्णों से सैकड़ों गुना अमीर हो गए हैं। किसी उठे हुए दलित ने अपना आरक्षण किसी गरीब दलित को दिया है क्या ? कोई दलित नेता अपनी चुनावी टिकट किसी गरीब दलित को देता है क्या ? कोई सरकारी नौकरी या लाभ प्राप्त प्रतिष्ठित दलित अपना आरक्षण किसी गरीब दलित को देता है क्या ? उनके पास पैसे हैं, रसूख है। वे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला रहे हैं और तरक्की कर रहे हैं। उनसे तुम्हारा उच्च जातियों का समाज भी भेद भाव नहीं करता। सब जुल्म गरीबों पर होता है बेटा। वह चाहे दलित हो या स्वर्ण। यही होता आ रहा है। आज भी वही गरीब भूखे-प्यासे सड़कों पर हैं। इनकी कोई जाति पता करेगा क्या ? ये सब गरीब हैं बस, यही इनकी जाति है। चाचा बड़े दुखी मन से कह रहे थे।
“तो क्या करना चाहिए इस जात- पात को दूर करने को काका ?”
“संविधान से जब तक यह जात- पात का जहर न हटाया गया, तब तक हमारे बीच में यूँ आग लगती रहेगी बेटा। ये स्वार्थी लोग गरीबों को भड़काते रहेंगे और लाभ उठाते रहेंगे।”
मैं हँस दिया।
“यह सच है बेटा। यदि संविधान में इन जाति-पाति का जिक्र ही न किया होता तो आज को भारत में एक भी जाति न रही होती। हमारे-तुम्हारे बच्चे आपसी शादियाँ करके हिंदुस्तान में एक ही जाति स्थापित कर चुके होते-मानव जाति। और वही हमारा धर्म हो गया होता। सब सियासी इस्तेमाल बस। अब तुम ही बताओ, कि यह सब आखिर क्यों ?” चाचा बड़ी गंभीरता से कह रहे थे।
इसी बीच चाचा के पोते ने आवाज लगाई।
“दादाsssssss! ओ दादा ssssss! खाना खाने आओ।”
इधर, मुझे भी ऊपर से खाना खाने के लिए बुलावा आ गया था।