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केवल नक़ल की भाषा से आगे नहीं बढ़ा जा सकता

ई-संगोष्ठी:’भारतीय भाषाओं को रौंदता अंग्रेजी का साम्राज्यवाद’

मुंबई(महाराष्ट्र)।

‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ के तत्वावधान में २४ अक्तूबर को ‘भारतीय भाषाओं को रौंदता अंग्रेजी का साम्राज्यवाद’ विषय पर ‘वैश्विक ई-संगोष्ठी’ का आयोजन किया गया। वरिष्ठ पत्रकार और भारतीय भाषा चिंतक राहुल देव ने कहा कि,केवल नक़ल की भाषा से आगे नहीं बढ़ा जा सकता। हिंदी बचाओ मंच के संयोजक प्रो. अमरनाथ,डॉ. बरुण कुमार(निदेशक-राजभाषा, रेलवे बोर्ड)एवं प्रो. जोगा सिंह विर्क ने भी विषय पर प्रतिभागियों का ज्ञानवर्धन किया।
इस संगोष्ठी का प्रारंभ स्वागत-संबोधन के साथ सम्मेलन की संयोजक डॉ. सुस्मिता भट्टाचार्य ने किया। प्रथम वक्ता के रूप में विषय प्रवर्तन सम्मेलन के निदेशक डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’ ने किया। डॉ. भट्टाचार्य ने कहा कि जब वे छोटे थे तो मातृभाषा में ही पढ़ते थे,ऐसा कैसे हुआ कि शिक्षा का पूरी तरह अंग्रेजीकरण कर दिया गया,इस पर संगोष्ठी में विचार करना आवश्यक है। तत्पश्चात ई-संगोष्ठी का संचालन करते हुए निदेशक डॉ. गुप्ता ‘आदित्य’ ने कहा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश की ९९ प्रतिशत से भी अधिक जनता मातृभाषाओं के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करती थी,लेकिन स्वराज्य प्राप्ति के बाद स्थिति उलट हो गई। संविधान में हिंदी को संघ सरकार की राजभाषा घोषित किया है,विभिन्न राज्यों में भी वहाँ की भाषाएँ राजभाषा घोषित हैं,लेकिन संविधान-विधान के अंतर्गत बने कानूनों आदि के माध्यम से अंग्रेजी संघ और सभी राज्यों की अघोषित राजभाषा बनी हुई है। उन्होंने कहा कि,आज अंग्रेजी अट्टहास करते हुए हमारी तमाम भाषाओं को रौंदते हुए हमारी भाषा-संस्कृति,धर्म-परंपराओं और प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को लीलती जा रही है। राजनीतिबाज अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए भाषाओं के नाम पर हमें लड़ा रहे हैं। आपने कहा कि हम अपने राज्य की संस्कृति की रक्षा के लिए अंग्रेजी के स्थान पर मातृभाषा माध्यम के लिए कोशिश करें। कम से कम प्राथमिक स्तर तक तो अंग्रेजी माध्यम न हो।
प्रो. विर्क(पूर्व विभागाध्यक्ष,पंजाबी विश्वविद्यालय) ने कहा कि भारत एवं भारतीयता की भावना जब नीतिकारों के मन में आएगी,तभी कुछ भाषाओं के बारे में सोचा जा सकता है। अतः उनके पास जाकर उनसे चर्चा कर इस भाषा संकट से उन्हें अवगत कराना बहुत जरूरी है। नौकरी में निचले स्तर की परीक्षा पास करने के लिए भी अंग्रेजी की अनिवार्यता होगी तो भारतीय भाषाओं में पढ़कर अभ्यर्थी कैसे सफल होगा,यह भी एक प्रश्न है।
डॉ. बरुण कुमार ने कहा कि ज्ञान के लिए अंग्रेजी पढ़ने का कहीं कोई विरोध नहीं है, लेकिन इसने सभी भारतीय भाषाओं को गौण कर दिया है,कुछ गिने-चुने लोगों की ही भाषा है। अतः आम जनता उन्हें ठीक से समझ नहीं पाती,कुछ लोग ऐसे नियमों का दुरुपयोग अपनी सुविधा के लिए करते हैं। जनता सरकार की नीतियों से,कार्यों से वंचित रह जाती है। हमें अपने देश में कार्य करने,व्यवहार करने के लिए जितनी अंग्रेजी की जरूरत है उतनी ही रखना चाहिए लेकिन अनावश्यक प्रयोग,विद्वता एवं पढ़े-लिखे होने की निशानी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि हमें अंग्रेजी से लड़ने की जरूरत नहीं,बल्कि अपनी भाषाओं की मौजूदगी बढ़ाने की आवश्यकता है।
भाषा चिंतक राहुल देव ने कहा कि अंग्रेजी वालों एवं इसका समर्थन करने वालों एवं हिंदी का विरोध करने वालों एवं भारतीय भाषाओं का महत्व न समझने वालों से बात किए बिना बात नहीं बनेगी। अतः हमें उनसे बात करनी पड़ेगी,उनकी बातों को सुनना पड़ेगा और उन्हें तथ्यों-आँकड़ों के आधार पर इस भाषा संकट से अवगत कराना होगा। हमें सभी नीति निर्मातों,प्रशासकों,अधिकार सम्पन्न संस्थाओं,विद्यालयों,महाविद्यालयों से विस्तृत चर्चा करनी होगी। जनता भाषाविद नहीं है। ज्यादातर जनता आज बिना जाने अपने बच्चों के लिए अंग्रेजी की माँग कर रही है। उनकी सोच को बदलने की जरूरत है। उन्हें बताना होगा कि केवल नक़ल की भाषा से आगे नहीं बढ़ा जा सकता। उन्होंने कहा कि देश में आजकल ‘हिंग्लिश’ प्रचलित भाषा हो गई है,आज लोग न तो अंग्रेजी में अपनी बात कह पा रहे हैं,न ही देश की या अपनी मातृभाषा में। यह एक अभूतपूर्व संकट है।
इस अवसर पर इलाहाबाद से विद्यार्थी और उत्तर प्रदेश प्रतियोगी छात्र मंच के अध्यक्ष संदीप सिंह ने अपनी व्यथा व्यक्त की कि राज्य की प्रशासनिक परीक्षा तरीकों में जो अनावश्यक बदलाव किए गए हैं,उनसे हिंदी माध्यम के विद्यार्थियों को बहुत कठिनाइयाँ हो रही हैं,इनके कारण अंग्रेजी माध्यम से उत्तीर्ण होने वालों का प्रतिशत बढ़ा है।
प्रो. अमरनाथ ने कहा कि केवल कुछ लोगों की विदेशों में नौकरी के लिए पूरे देश को उस ओर झोंक देना ठीक नहीं। उऩ्होंने कहा कि इसके लिए बचपन से अंग्रेजी माध्यम जरूरी नहीं है। जरूरत के अनुसार कुछ ही समय में अंग्रेजी सीखी जा सकती है। आपने आँकड़ों के आधार पर कहा कि जो विकसित देश हैं, वहाँ जनता,शिक्षा और सरकारी भाषा एक ही है,लेकिन ज्यादातर गरीब-विकासशील देशों में यह देखने में आया है कि वहाँ जनता, शिक्षा और सरकारी भाषा अलग-अलग है। समय के साथ-साथ बदलाव होते हैं लेकिन हमारी संस्कृति,भाषाओं को बचाने की जिम्मेदारी भी हमें निभानी होगी। यह संकट,आज़ादी की दूसरी लड़ाई जैसी बात है,शायद तभी बात बन सकती है। भाषा नीति ग्रामीण लोगों तक अपनी बात पहुँच सके ऐसी होनी चाहिए,न कि कुछ लोग जो विदेशों में रोजगार पाने के लिए इसकी वकालत करते हैं,उन्हें ध्यान में रखकर बनाई जानी चाहिए।
अंत में डॉ. गुप्ता ने ई-संगोष्ठी में शामिल सभी महानुभावों को धन्यवाद दिया।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)

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