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बाल साहित्य लेखन एवं चुनौतियाँ

राजकुमार जैन ‘राजन’
आकोला (राजस्थान)
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बालक किसी भी देश,समाज,संस्कृति का ही नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव जाति की पूंजी होता है। बच्चों में हमारा भविष्य
दिखाई देता है। वे कल की उम्मीद बंधाते हैं। बालक ईश्वर की बनाई वह अनुपम कृति है,जिससे कायम है जीवन धारा,संस्कृति और शाश्वत मूल्य। बालक जितने सुकोमल होते हैं,उतने ही जिज्ञासु भी। यही कारण है कि बालमन सबसे अधिक संवेदनशील होता है। अपने आस-पास की घटनाओं से सबसे पहले यही प्रभावित होता है।
बच्चों के मानसिक विकास के लिए साहित्य की अनिवार्यता स्वयं सिद्ध है। सवाल यह है कि बाल साहित्य किसे कहें ? बाल साहित्य के मनस्वी रचनाकार निरंकारदेव सेवक के शब्दों में कहें तो,-“जिस साहित्य से बच्चों का मनोरंजन हो सके,जिसमें वे रस ले सकें और जिसके द्वारा वह अपनी भावनाओं और कल्पनाओं का विकास कर सके….वह बाल साहित्य है।” साहित्य की अनेक परिभाषाएं विद्वान विचारक अत्यंत प्राचीनकाल से करते आए हैं,पर किसी एक को भी बाल साहित्य की सम्पूर्ण परिभाषा नहीं कहा जा सकता। बच्चों का मन इतना चंचल और कल्पनाएं इतनी तेज होती है कि किन्हीं निश्चित नियमों में बंधा हुआ साहित्य उसके लिए लिखा नहीं जा सकता।
बालक जिस अवस्था में बोलना,सुनना और जानना शुरू करता है,उस अवस्था में उसके मनोविज्ञान में बराबर एक जैसी स्थिति बनी होती है। बच्चे के लिए पहली रचना का जन्म उसी दिन शुरू हो जाता है,जब उसके मन में जिज्ञासा का जन्म होता है। बाल साहित्य की परम्परा वाचन और श्रवण से शुरू होती है। बाद में `पंचतंत्र` व `हितोपदेश` की कहानियों के माध्यम से लिखित रूप से बाल साहित्य स्थापित हुआ। शिशुवय में माँ की लोरियों एवं दादा-दादी की कहानियों के रूप में बाल रचनाओं का ही आस्वाद होता है। धीरे-धीरे कहानी,कविता,लोककथा,लोरी,जीवनी,नाटक,संस्मरण,यात्रा साहित्य,पत्र लेखन और कई विधाओं का साहित्य पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों के रूप में बालकों के सामने आता रहा। अब तो डिजिटिलाइजेशन के बाद ऑडियो-वीडियो,ई-पत्रिका के रूप में बाल साहित्य प्रसार पा रहा है। कुल मिलाकर बालक और बाल साहित्य का रिश्ता पुराना होते हुए भी नित नए रंगों,विधाओं से सज रहा है तथा बालकों में प्रेरणा का संचार कर रहा है।
यह मेरी अप्रतिभा ही है कि आज तक यह नहीं समझ पाया कि बाल साहित्य को वादों,सिद्धांतों,नियमों में क्यों बांधा जाता है। बाल साहित्य के प्रति जो थोड़ी बहुत समझ पिछले दो दशक में बनी,उस आधार पर मैं बस इतना ही कह सकता हूँ कि आज के बाल साहित्यकार और हम बच्चों के प्रति संवेदनशील हैं,लेकिन सरकारी नुमाइंदे अपनी राजनीतिक स्वार्थपरता के कारण बच्चों के मौलिक अधिकारों और उनकी समस्याओं के प्रति उदासीन हैं तथा अनदेखी कर रहे हैं। ये लोग गहराई में जाना नहीं चाहते और महिमामंडित भी होना चाहते हैं। ऐसी परिस्थिति में अब अभिभावक,शिक्षक और साहित्यकारों से ही आशा की किरण नज़र आती है। बच्चों में संस्कार जागृत करने,उन्हें मानवीय व नैतिक मूल्यों से जोड़ने के लिए बाल साहित्य से जुड़ाव आवश्यक है। बाल साहित्य से मेरा आशय बच्चों के लिए लिखे जाने वाले साहित्य से है,जो बालक को संस्कार,जीवन जीने की राह,आत्मविश्वास,स्वावलम्बन,राष्ट्र प्रेम और परिवेश को समझकर सकारात्मक करने की प्रेरणा दे।
आज हर विधा में बाल साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहा है। बाल साहित्य सृजन का १२० वर्ष से भी पुराना इतिहास होने के बावजूद आज भी अधिकांश हिन्दी बाल साहित्य रचनाकारों के समक्ष आधुनिक बाल साहित्य की अवधारणा स्पष्ट नहीं है। बावजूद पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं। प्रतिवर्ष धड़ल्ले से बाल साहित्य की पुस्तकें प्रकाशित हो रही है।
आज साइबर दुनिया के कारण बच्चों की भाषा और सोच बदल रही है। वे जो देख रहे हैं,वही भाषा बोल रहे हैं। ऐसे में बाल साहित्य रचनाकारों की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। वर्तमान में बाल साहित्य समझने वालों की महत्ता बढ़ रही है। वर्तमान परिवेशानुसार सृजन करने वाले कई नए-नए नाम भी सामने आ रहे हैं। कहना चाहूंगा कि बड़ों के लेखन की अपेक्षा बच्चों के लिए लिखना अधिक प्रतिबद्धता,जिम्मेदारी,निश्चलता,मासूमियत जैसी खूबियों की मांग करता है। बच्चों के लिए लिखना कठिन होता है। इसके लिए आवश्यक है कि लेखक अपनी शैली,शब्द भंडार तथा उसकी प्रस्तुति के लिए स्वयं को उसी आयु वर्ग के बच्चे के मानसिक स्तर के धरातल तक उतारे। उसे बालक बनकर ही लिखना होगा,क्योंकि बालक ही उसका पाठक भी होगा,वही उसका समीक्षक भी होगा।
आज साहित्य में स्थापित,अनुभवी तथा प्रतिष्ठित लेखक बाल साहित्य लेखन में रुचि नहीं दिखाते। फिर भी कुछ लेखकों ने कलम उठाई है और बच्चों के लिए अच्छी रचनाएँ लिखी एवं लिख रहे हैं। इधर स्थिति तेज़ी से बदल रही है। बाल साहित्यकार भी सहित्य जगत में प्रतिष्ठित हो रहे हैं और बाल साहित्यकार के रूप में उनकी मान्यता तथा बच्चों के लिए बहुत उपयोगिताओं,कल्पनाओं को आधार बनाकर तरह-तरह का साहित्य लिखा जा रहा है। बच्चों के लिए ज्ञान कोष,शब्द कोष भी आये हैं। वर्तमान में पशु-पक्षियों, प्रकृति और पर्यावरण आदि को माध्यम बनाकर बहुत कुछ सृजित किया जा रहा है। हम देखते हैं कि हमारा बाल साहित्य परम्परागत लोक कथाओं और परी कथाओं से शुरू होकर ज्ञान-विज्ञान की रोचक और मनोरंजक जानकारियों से समृद्ध होता जा रहा है,जिससे बालक के ज्ञान का क्षितिज बहुत विस्तृत हो रहा है।
जहां बाल साहित्य लेखन,प्रकाशन बहुलता से हो रहा है,वहीं बाल साहित्य जगत चुनौतियों का सामना भी कर रहा है। बच्चों के लिए लिखना और उसे सुंदर चित्रों सहित प्रकाशित करना…सचमुच एक कला है। एक पुस्तक का प्रकाशन कार्य पूर्ण करने के बाद लेखक अपने को गौरवान्वित महसूस करता है। पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा आ जाती है….और जैसे तैसे उस बाल साहित्य की पुस्तक पर सम्मान- पुरस्कार का प्रबंध भी हो जाता है। यह जता दिया जाता है कि लेखक ने बाल साहित्य को अमूल्य अवदान दिया है। क्या तब कहीं कोई चिंतन करता है कि बाल साहित्य के नाम पर बच्चों के लिखी गई ये पुस्तकें बालकों तक कितना पहुंच पाती है….?? शायद नहीं। ऐसा नहीं है कि,सब जगह ऐसा ही हो रहा है। कई संस्थाएं व व्यक्ति अपने -अपने प्रयासों से बाल साहित्य बालकों तक पहुंचाने और उनमें पठन -पाठन की रुचि पैदा करने में समर्पित भाव से लगे हुए हैं,पर ये प्रयास भी ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ ही साबित हो रहे हैं। वस्तुतः बाल सहित्य समारोहों में बाल साहित्य बच्चों तक नहीं पहुंच पाने की चर्चा से आगे बढ़ ही नहीं पाता। देखा जाए तो बाल साहित्य लेखक,प्रकाशक, पत्रिका सम्पादक,समीक्षक व पुरस्कार प्रदाता संस्थाओं से आगे उसके वास्तविक हकदार `बालक` तक पहुंच ही नहीं पा रहा है।
इंटरनेट के कारण व्हाट्सएप्प,फेसबुक आदि पर बाल साहित्य के कई समूह संचालित हो रहे हैं। जहां भी बाल साहित्य पर सार्थक विमर्श हो रहे हैं। नए लोग लिखना व बाल साहित्य की गहराई सीख रहे हैं। यह प्रयास भी स्तुत्य है,पर देखा गया है स्वनाम धन्य कुछ बाल साहित्यकारों ने बाल साहित्य के पटल (समूह) संचालित कर रखे हैं और संचालक बन इस आत्ममुग्धता में जी रहे हैं कि बाल साहित्य के लिए वो जो कुछ कर रहे हैं,वही श्रेष्ठ,दूसरे कुछ कर रहे हैं वह निरर्थक। किसी नए बाल साहित्यकार ने उनकी विचारधारा से इतर कुछ प्रदर्शित किया नहीं कि,उसकी हालत ख़स्ता। बेचारा दूसरी बार न कुछ प्रतिक्रिया कर सकता है,न अपनी रचना प्रदर्शित कर सकता है। अब प्रश्न यह है कि यहां भी बालक कहीं दूर दूर नज़र नहीं आता। तो क्या बाल साहित्य केवल बड़ों की चर्चा,प्रशंसा के लिए ही है। होना तो यह चाहिये कि रुचिवान बालकों को समूहों में जोड़ा जाए और रचनाकार अपनी रचना पटल पर लगाए,तथा बच्चे उस पर टिप्पणी करें। अपनी पसंद,नापसंद बताए तो बाल साहित्य की उपादेयता समझ में आती है,अन्यथा एक-दूसरे की पीठ थपथपाते रहने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता।
कुछ वर्षों से अपने नाम के साथ `डॉक्टर`-`डॉ` लिखने का प्रचलन भी बहुत बढ़ गया है। बाल साहित्य जगत भी इससे अछूता नहीं है। कई वरिष्ठ,प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार भी बिना किसी मान्य विश्व विद्यालय से शोध कार्य सम्पादित किये भागलपुर आदि स्थानों की फर्जी संस्थाओं से `विद्या वाचस्पति` का प्रमाण-पत्र हासिल कर, अपने नाम के साथ `डॉ.` लिखने की आत्म मुग्धता में जी रहे हैं। यह कानून अपराध तो है ही,उन वास्तविक शोधकर्ताओं का अपमान भी है जो वर्षों अपना शोधकार्य सम्पन्न कर यह उपाधि हासिल करते हैं। ऐसे `डॉ.` लगाने वालों को आत्म मंथन करना चाहिए। क्या महज अपने नाम के साथ `डॉ.` लगा देने से आपके रचनाकर्म की श्रेष्ठता सिद्ध होती है ? प्रश्न यह भी है कि अपने बाल साहित्य द्वारा ऐसे रचनाकार बालकों के जीवन में क्या दिशा दे पाएंगे ? यह शोध व चर्चा का ही नहीं,बाल साहित्य जगत के लिए भी चिंतन का विषय है।
समझ में आज तक यह नहीं आ पाया कि क्यों वादों ओर गुटों में बंटे बाल साहित्य की दुनिया में कुछ लोगों ने स्वयं को बाल साहित्य का खेवनहार मान लिया है…बाल साहित्य को बच्चों तक पहुंचाने में सबसे बड़ी बाधा बाजारवाद तथा मठाधीशी है…कई तरह की बौद्धिक बहसें भी जारी है…हमें इससे कोई मतलब नहीं। आज हर मंच व अकादमियां बाल साहित्य को चर्चा के केन्द्र में रख रहे हैं….यह खुशी की बात है…। इस वर्ष राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की अनुकरणीय पहल रही कि,बाल साहित्य अकादमी की वर्षों से चली आ रही मांग को उन्होंने स्वीकार किया और राजस्थान में `जवाहर लाल नेहरू बाल साहित्य अकादमी` गठन की घोषणा की है,जो यह दर्शाता है कि उनके मन में बाल साहित्य उन्नयन व बाल कल्याण के लिए विशेष सम्मान है। बाल साहित्य अकादमी के गठन से बड़े पैमाने पर बाल साहित्य गतिविधियां संचालित हो सकेंगी।
एक प्रश्न यह भी उठता है कि इतना बाल साहित्य प्रकाशित होता है तो जाता कहां है ?? विडम्बना ही है कि,ज्यादातर पुस्तकें सरकारी खरीद के खाते में जाकर अलमारियों में कैद हो जाती हैं ? यदि कुछ बाज़ार में पहुंचती भी है तो उनका मूल्य इतना अधिक होता है कि अभिभावक उस पुस्तक को खरीद कर बच्चों को देने में कोई उत्साह नहीं दिखाता।
आज विश्व नई तकनीक के दौर में है,जहाँ सोशल मीडिया हमारे जीवन का अनिवार्य अंग बन गया है। बालक कम्प्यूटर- मोबाइल में ही उलझा रहता है। एक जमाने में हर दैनिक अखबार सप्ताह में १-२ बार बाल साहित्य परिशिष्ट प्रकाशित करते थे,वे बन्द हो गए हैं या बाल साहित्य के नाम पर कुछ दे भी रहे हैं। इंटरनेट से ली गई सामग्री,विदेशों से आयातित अनुदित सामग्री दे रहे हैं। यही हाल कमोबेश कई बाल पत्रिकाओं का भी हो गया है। इससे बाल साहित्य सृजन करने वालों का मनोबल टूटा है। उसके साहित्य के लिए न पर्याप्त निष्पक्ष पत्र-पत्रिकाएं है न समीक्षक,कुछ अपवाद हो सकतें है। साहित्य के इतिहास में उसके उल्लेख के लिए पर्याप्त जगह नहीं है। कुछ पत्रिकाओं में बाल साहित्य के इतिहास अथवा विमर्श पर चर्चा होती तो है,वह भी केवल उसी लेखन की जो लिखने वालों तक पहुंच गया होता है। कई समीक्षक लेखक के प्रति पूर्वाग्रहों के चलते उसकी उत्कृष्ट कृति की चर्चा तक नहीं करते।
बाल साहित्यकारों को जो पुरस्कार सम्मान दिए जातें हैं उसकी राशि भी सम्मान जनक नहीं होती,केवल प्रोत्साहन के भाव से ये पुरस्कार दिए जाते हैं। साहित्य अकादमियां इस दिशा में उदासीन हैं। भारतीय बाल साहित्यकारों को बिना भेद भाव एक मंच पर आने की आवश्यकता है ताकि बाल साहित्य सृजन को सही दिशा मिल सके।
आज एक खतरनाक प्रवृत्ति बाल साहित्यकारों में घर करती जा रही है,`तू मुझे सम्मानित कर,…मैं तुझे सम्मानित करुंगा….` सैंकड़ों उदाहरण सामने हैं….इस वर्ष आपकी संस्था फलां बाल साहित्यकार को सम्मानित कर रही है…अगले वर्ष वो आपको सम्मानित करेंगेl एक-दूसरे के प्रशस्तिगान की परम्परा निरन्तर बढ़ती जा रही है। यह भी बाल साहित्य के लिए एक चुनौती बन कर सामने खड़ी है।
हम सबको मिलकर बाल साहित्य को लेखकों,सम्पादकों,प्रकाशकों,समीक्षकों,पुरस्कार प्रदाता संस्थाओं और भाषणों के केन्द्र से निकालकर इसके सही हकदार बच्चों तक पहुंचाने के लिए एक आंदोलन के रूप में कार्य करना होगा अन्यथा हम कितने ही बड़े बाल साहित्यकार हो जाएं,लेकिन बच्चों में पढ़ने-लिखने की ललक पैदा न कर सके…अभिभावकों व बच्चों को पुस्तकों से जोड़ने को प्रेरित न कर सके,तो हमारी दर्जनों बाल पुस्तकें किस काम की ? आओ,हम सब मिलकर प्रण करें कि बाल साहित्य बच्चों तक पहुंचाने की मुहिम को यथार्थ के धरातल पर साकार करेंगे। बाल साहित्य की सच्ची सेवा तभी होगी,जब हम बाल साहित्य में उत्कृष्ट कार्य करने वाले लेखकों के साहित्य तथा पत्र-पत्रिकाओं को तन-मन-धन से सहयोग करें। आज साइबर युग में हमें परम्परा और संस्कृति से जुड़ा बाल साहित्य बच्चों को उपलब्ध करवाना है। यह काम बाल साहित्यकर ही कर सकता हैl
आइए! हम अपने घर,परिवार,गली-मोहल्ले,गाँव,शहर से ही बाल साहित्य को चुनौतियों से मुक्त कर इस पवित्र कार्य की शुरुआत करें। अपनी ही पीठ थपथपाने से न हम महान साहित्यकार हो जाएंगे,न बाल साहित्य के प्रहरी कहलायेंगे और न ही इक्कीसवीं सदी के बच्चे हमें याद रखेंगे।

परिचय-राजकुमार जैन का उपनाम ‘राजन’ है। आकोला(राजस्थान)में २४ जून को जन्में श्री जैन की शिक्षा एम.ए.(हिन्दी)है। लेखन विधा-कहानी, कविता है,जिसमें पर्यटन,लोक जीवन एवं बाल साहित्य प्रमुख है। आपका निवास आकोला में है। आपकी अनेक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है, जिसमें-‘नेक हंस’ और ‘लाख टके की बात’ आदि प्रमुख है। हिन्दी सहित राजस्थानी, अंग्रेजी में भी बाल साहित्य की इनकी ३६ पुस्तकों का प्रकाशन हों चुका है,तो हिंदी बाल कहानियों का मराठी अनुवाद २० पुस्तकों में प्रकाशित हों गया है। विशेष रुप से ‘खोजना होगा अमृत कलश’ (कविता संग्रह) पंजाबी,मराठी,गुजराती सहित नेपाली एवं सिंहली में अनुदित होकर श्रीलंका से प्रकाशित हुआ है। पत्र-पत्रिकाओं में हजारों रचनाएं प्रकाशित करा चुके श्री जैन की रचनाओं का प्रसारण आकाशवाणी व दूरदर्शन सहित विभिन्न चैनल्स से हो चुका है। आपने सम्पादन के क्षेत्र में ‘रॉकेट'(बाल मासिक),’श्रमनस्वर’,’टाबर टोली’ एवं ‘हिमालिनी'(नेपाल)पत्रिकाओं को सहयोग दिया है। ‘राजन’ नाम से प्रसिद्ध बाल रचनाकार कईं मासिक पत्रिकाओं के सम्पादक रह चुके हैं। अनुवाद के निमित्त- ‘सबसे अच्छा उपहार’ बाल कहानी संग्रह पंजाबी,मराठी,उड़िया,गुजराती और अंग्रेजी में अनुदित हुआ है। हिन्दी बाल साहित्य की उत्कृष्ट पुस्तक पर संस्थापक के रुप में आप प्रति वर्ष अखिल भारतीय स्तर पर २१ हजार रूपए का ‘पं. सोहनलाल द्विवेदी बाल साहित्य पुरस्कार’(११ वर्ष से सतत) और ५ हजार राशि के सम्मान देते हैं। ‘राजकुमार जैन राजन फाउण्डेशन’ की स्थापना करने के साथ ही आप साहित्य,शिक्षा,सेवा एवं चिकित्सा में निरन्तर सक्रिय हैं। आपको प्रमुख पुरस्कार और सम्मान में उदयपुर से ‘राजसिंह अवार्ड’ (२ बार),’शकुन्तला सिरोठिया बाल साहित्य पुरस्कार’,राजस्थानी भाषा,साहित्य एवं संस्कृति अकादमी (राज. सरकार),‘जवाहर लाल नेहरू राजस्थानी बाल साहित्य पुरस्कार’,गिरिराज शर्मा स्मृति सम्मान,जयपुर द्वारा ‘समाज रत्न-२०१६’ और भारत-नेपाल मैत्री संघ द्वारा साहित्य सेतु सम्मान-२०१८ सहित १०१ से अधिक पुरस्कार-सम्मान प्रमुख रुप से प्राप्त हैं। श्री जैन ने विदेश यात्रा में अमेरिका,कनाडा, मॉरीशस,मलेशिया,थाईलेंड,श्रीलंका और नेपाल आदि का भ्रमण किया है। आप विशेष रुप से हिन्दी के प्रचार-प्रसार सहित बाल साहित्य उन्नयन व बाल कल्याण के लिए विशेष योजनाओं का क्रियान्वयन करते हैं।

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