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कई विशिष्टता वाला त्यौहार दीपावली

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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दीपावली पर्व स्पर्धा विशेष…..

अंधकार पर प्रकाश की विजय का त्यौहार दीपावली भारत में पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। दीपोत्सव का वर्णन प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। दीपावली से जुड़े कुछ रोचक तथ्य हैं,जो इतिहास के पन्नों में अपना विशेष स्थान बना चुके हैं।
सभी जानते हैं कि कार्तिक बदी अमावस्या को त्रेता युग में प्रभु रामजी लंकाधिपति रावण को हराकर जब अयोध्या लौटे,उस दिन नगरवासियों ने स्वतः दीपोत्सव कर उनका स्वागत किया। उस दिन से हर साल कार्तिक बदी अमावस्या दीप जलाकर दीपावली के रूप में मनाया जाने लगा।
इसी तरह कृत युग,जिसे हम सतयुग के नाम से जानते हैं,में विरोचनपुत्र दैत्यराज,पुराणप्रसिद्ध विष्णुभक्त,दानवीर,महान् योद्धा बलि जो सप्तचिरंंजीवियों में से एक है,ने अपने बाहुबल से तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली,तब बलि से भयभीत देवताओं ने प्रभु विष्णु से हस्तक्षेप की प्रार्थना की। इसके बाद महाप्रतापी,विश्वजीत‌ दानवीर राजा बलि शत अश्वमेध यज्ञों का सम्पादन के पश्चात अंतिम अश्वमेघ यज्ञ का समापन कर रहा था,तब प्रभु विष्णु वामन रूप में ब्राह्मण वेशधर उपस्थित हो तीन पग पृथ्वी दान के रूप में मांगी। महाप्रतापी राजा बलि ने शुक्राचार्य के सावधान करने पर विष्णु की चालाकी को समझते हुए भी याचक को निराश नहीं किया,और संकल्प पूरा होते ही प्रभु ने विशाल रूप धारण कर प्रथम दो पगों में पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लिया। शेष दान के लिए बलि ने अपना मस्तक नपवा दिया। राजा बलि की इस दानशीलता से प्रभावित होकर प्रभु विष्णु ने उन्हें पाताल लोक का राज्य दे दिया,साथ ही आश्वासन दिया कि उनकी याद में भू-लोकवासी प्रत्येक वर्ष आज के ही दिन यानि कार्तिक अमावस्या को दीपावली मनाएंगे।
एक और पौराणिक कथानुसार जब असुर प्राप्त वरदानों से देवों और ब्राह्मणों को प्रलय की अग्नि के समान दुःख देने लगे,तब सभी देवता एवं ब्रह्मा प्रभु विष्णु के धाम पहुंचे और उन्हें व्यथा वर्णन की। देव ब्रह्माजी ने बताया कि यह दुष्ट दारुक केवल स्त्री द्वारा ही मारा जाएगा। तब विष्णु समेत सभी देव भगवान शिव के धाम कैलाश पर्वत पहुंचे और महादेव को सारे तथ्यों से अवगत कराया। तब महादेव शिवजी ने माँ पार्वती से जगत के हित के लिए दुष्ट दारुक के वध के लिए प्रार्थना की। तत्पश्चात महादेव शिवजी की शक्ति से युक्त माँ देवी ६४ हजार योगिनियों के साथ महाकाली का रूप धारण कर कार्तिक अमावस्या को राक्षसों का वध कर सभी को राहत दिलाई,लेकिन राक्षसों का वध करने के बाद भी जब महाकाली का क्रोध कम नहीं हुआ,तब भगवान शिव उनके चरणों में लेट गए। भगवान शिव के शरीर स्पर्श मात्र से ही देवी महाकाली का क्रोध समाप्त हो गया। इसी की याद में दीपावली वाले दिन उनके शांत रूप लक्ष्मी की पूजा की शुरुआत हुई।
आवश्यकता पड़ने पर अपनी तलवार उठाकर अपने धर्म की रक्षा करने का आदर्श मानने वाले सिखों के छठे गुरु हरगोविन्दसिंह जी,बादशाह जहांगीर की कैद से मुक्त होकर कार्तिक अमावस्या के दिन ही अमृतसर वापस लौटे थे। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर का निर्माण भी दीपावली के ही दिन शुरू हुआ था।
विक्रम संवत के प्रणेता सर्वगुण संपन्न चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य का राज्याभिषेक दीपावली के दिन हुआ था। इसलिए दीप जलाकर खुशियां मनाई गईं। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध के समर्थकों एवं अनुयायियों ने गौतम बुद्ध के स्वागत में हजारों-लाखों दीप जलाकर कार्तिक अमावस्या को दीपावली मनाई थी। चौथी शताब्दी में रचित कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार कार्तिक अमावस्या के अवसर पर मंदिरों और घाटों (नदी के किनारे) पर बड़े पैमाने पर दीप जलाए जाते थे।
जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर ने भी दीपावली के दिन ही बिहार के पावापुरी में अपना शरीर त्याग दिया। महावीर-निर्वाण संवत्‌ इसके दूसरे दिन से शुरू होता है। इसलिए अनेक प्रांतों में इसे वर्ष के आरंभ की शुरुआत मानते हैं। दीपोत्सव का वर्णन प्राचीन जैन ग्रंथों में मिलता है। कल्पसूत्र में कहा गया है कि महावीर-निर्वाण के साथ जो अन्तर्ज्योति सदा के लिए बुझ गई है,आओ हम उसकी क्षतिपूर्ति के लिए बहिर्ज्योति के प्रतीक दीप जलाएं।
पंजाब में जन्मे वेदान्त दर्शन के अनुयायी भारतीय संन्यासी स्वामी रामतीर्थ तीरथ रामका जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ। इन्होंने दीपावली के दिन गंगा तट पर स्नान करते समय ‘ओम्’ कहते हुए समाधि ले ली। स्वराज्य’ का नारा देने वाले,आधुनिक भारत के महान चिन्तक,समाज सुधारक,अखंड ब्रह्मचारी तथा आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद को कौन नहीं जानता। जिन्होंने कर्म सिद्धान्त,पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य तथा सन्यास को अपने दर्शन के चार स्तम्भ बता या। स्वभाषा,स्वराष्ट्र,स्वसंस्कृति और स्वदेशोन्नति के अग्रदूत स्वामी दयानन्द जी, दीपावली के दिन अजमेर के निकट पंचतत्व में विलीन हो गए।
५०० ईसा वर्ष पूर्व की मोहन जोदड़ो सभ्यता के प्राप्त अवशेषों में मिट्टी की एक मूर्ति के अनुसार उस समय भी दीपावली मनाई जाती थी। उस मूर्ति में मातृ-देवी के दोनों ओर दीप जलते दिखाई देते हैं। इसी प्रकार भारत से समबन्धित मुगल सम्राटों की भी दीपावली मनाने के उद्धरण इतिहास में मिलते हैं। उदाहरणार्थ-
बाबर ने दीपावली के त्यौहार को एक खुशी के मौके के तौर पर मान्यता प्रदान की और इस पर्व को बड़े ही धूमधाम और उत्साहपूर्ण के साथ मनाया ही नहीं,बल्कि इसे मनाए जाने की परम्परा भी कायम की। बाबर ने अपने बेटे हुमायूँ को भी दीपावली के लिए प्रोत्साहित किया था,जिसके परिणाम स्वरुप उसने भी अपने शासनकाल में दीपावली के अवसर पर पूरे राजमहल को झिलमिलाते दीयों से सजवाया ही नहीं करता,बल्कि आतिशबाजी भी करवाता था। दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में महल के ध्रुव पर ४० यार्ड ऊंचा विशाल दीपक लगाया जाता था,जो दिवाली वाली रात जलता था। सम्राट बहादुर शाह जफर दीपावली को त्योहार के रूप में मनाते थे और इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में भाग लेते थे। गरीबों को उपहार भी बाँटते थे। शाह आलम द्वितीय के समय में समूचे शाही महल को दीपों से सजाया जाता था एवं लाल किले में आयोजित कार्यक्रमों में हिन्दू-मुसलमान दोनों भाग लेते थे।
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि,अंधकार पर प्रकाश की विजय का यह पर्व समाज में उल्लास,भाई-चारे व प्रेम का संदेश फैलाता है। यह पर्व सामूहिक व व्यक्तिगत दोनों तरह से मनाए जाने वाला ऐसा विशिष्ट पर्व है जो धार्मिक,सांस्कृतिक व सामाजिक विशिष्टता रखता है। इसलिए यह मान्यता एकदम सही है कि धार्मिक मान्यता के अलावा भी दीपावली का पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व है।

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