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पूर्वजन्म और पुनर्जन्म-इसी जन्म में

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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पूर्वजन्म और पुनर्जन्म एक भारतीय सिद्धांत है,जिसमें जीवात्मा के शरीर के जन्म और मृत्यु के बाद पुनर्जन्म की मान्यता को स्थापित किया गया है।विश्व के सब से प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद से लेकर वेद,दर्शनशास्त्र,पुराण,गीता,योग आदि में पूर्वजन्म की मान्यता का प्रतिपादन किया गया है। इस सिद्धांत के अनुसार-शरीर की मृत्यु ही जीवन का अंत नहीं है,परंतु जन्म-जन्मांतर की श्रृंखला है। कहा जाता है कि ८४ लाख या ८४ प्रकार की योनियों में जीवात्मा जन्म लेता है और अपने कर्मों को भोगता है। आत्मज्ञान होने के बाद जन्म की श्रृंखला रुकती है;फिर भी आत्मा स्वयं के निर्णय,लोकसेवा,संसारी जीवों को मुक्त कराने की उदात्त भावना से भी जन्म धारण करता है। ईश्वर के अवतारों का भी वर्णन किया गया है। पुराण से लेकर आधुनिक समय में भी पुनर्जन्म के विविध प्रसंगों का उल्लेख मिलता है।
पुनर्जन्म का सिद्धांत यों है:भारतीय दर्शनशास्त्रों के अनुसार प्राचीन काल में ऋषियों ने स्वयं की खोज की और पाया कि ‘स्वयं’ शरीर नहीं है परंतु शरीर के अंदर स्थित आत्मा-जो निराकार है-उनका मूल स्वरूप है। आत्मा को जानने की इस प्रक्रिया को आत्मसाक्षात्कार के नाम से जाना जाता है। ऋषियों ने स्वयं को जानकर अपने जन्मांतर के ज्ञान की भी प्राप्ति की और पाया कि उनके कई जन्म थे। स्वयं का मूल स्वरूप आत्मा जिसकी कभी मृत्यु नहीं होती;ये पहले था,आज है और कल भी रहेगा। जब व्यक्ति साधना के बल पर सांसारिक दुविधाओं से मुक्त होकर स्वयं को जान लेता है,तब जन्म की प्रक्रिया से भी मुक्ति पा लेता है। फिर भी अपनी स्वेच्छा से जन्म धारण कर सकता है। मूल रूप से सभी को अपने पूर्व के जन्मों की विस्मृति हो जाती है। योग आदि क्रियाओं से आत्मा को जानकर ध्यान में पूर्व के जन्मों के ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। ज्ञानी पुरुष दूसरों के जन्मांतर के विषय में भी बता सकते हैं,अतः ऐसे सदगुरु से भी पूर्वजन्म के ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। पुराण आदि से अमुक व्यक्तियों के पूर्वजन्म के विषय में जानकारी मिलती है। कभी बाल्यकाल में किसी बालक को पूर्वजन्म का ज्ञान होने का प्रसंग भी सामने आया है,लेकिन तथ्यों की संपुष्टि तभी होती है,जब जीवात्मा का जन्म होता है और शरीर के क्षरण के साथ उसका नाश या मृत्यु होती है। जीवात्मा ने जन्म अपने जनक-जननी से पाया है और वह कालक्रम में खुद अपनी संतति को जन्म देता है,जिसे हम उसका पुनर्जन्म कह सकते हैं। अत: पूर्वजन्म जातक के पिता का जन्म होता है और पुनर्जन्म उसकी संतति में होता है। तभी तो हमारा लगाव माता-पिता एवं पुत्र-पुत्री से समान रूप से होता है। अत:,किसी का पूर्वजन्म और पुनर्जन्म इसी जन्म में होता है,जो निर्विवाद सत्य है, पर लोग तो विवाद खड़ा करेंगे हीl
पुनर्जन्म इह सिद्धांत पर आधारित है,लेकिन प्रश्न यह उठता है कि जब शरीर का अंत हो गया,वह जलकर भस्म हो गया तो उसका पुनर्जन्म कैसे हो सकता है ? माता-पिता जैसा पुत्री-पुत्र होता है,तो ८४ प्रकार की योनियों में भटकने का प्रश्न कहाँ उठता है ?
अगर जीवात्मा इन योनियों में जन्म लेता है,तो माता-पिता उसके कारण कैसे बनते हैं! सृजन के सामान्य नियम को न मानकर उसे झुठलाने से कोई नया नियम कैसे बन सकता है ? इसलिए जो सृजन का सामान्य स्थापित कारण है,उसे सामान्यतया मानकर वस्तुस्थिति को मानकर चलना चाहिए,न कि कल्पना करl
जहाँ तक मृत्यु ही जीवन का अंत नहीं है,वह तो सत्य इस अर्थ में है ही कि माता-पिता का प्राण पुत्र-पुत्री में स्थापित होता है,तो माता-पिता के मरने पर भी पुत्र-पुत्री में मृत का प्राण तो रह ही जाता है। अत:,पुनर्जन्म जीव के जीवनकाल में ही है,न कि उसके मरने के बाद!
पूर्वर्जन्म और पुनर्जन्म के बारे में यह उक्ति कि-
‘महिम्न एषां पितरश्वे शिरे देवादेवेष्वदधुरपि क्रतुम्।
समविव्यचुरूत यान्यत्विषुरैषां तनूषु नि विविशु: पुन:ll’ (ऋग्वेद)
(हमारे पितर भी देवों के समान महिमा के अधिकारी हुए हैं,उन्होंने देवत्व प्राप्त करके देवों के साथ कर्म सामर्थ्य को धारण किया है; और जो ज्योतिर्मय लोग दीप्ति पाते हैं,वे उनके साथ मिल गये हैं;वे उन शरीरों में पुन: प्रवेश करते हैं।)
सर्वत्र कर्म की ही प्रधानता है। कर्म करने वाला मनुष्य अपने भले-बुरे कर्म का फल स्वयं ही भोगता है। शुभ कर्म करने से सुख और अशुभ कर्म करने से दु:ख मिलता है।
कहा भी गया है:
‘उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथै:।
न हि सुप्त:स्य सिंहस्य प्रविशन्ति मृगा:॥’
(हितोपदेशे मित्रलाभ:)
‘प्रयत्न करने से ही कार्य में सफलता मिलती है, न कि मनोरथ मात्र से,क्योंकि सोए हुए सिंह के मुख में आपसे आप मृग नहीं घुसते, किन्तु शिकार के लिए भी सिंह को प्रयत्न करना पड़ता है।’
पूर्वजन्म की बात इसी जन्म में सामने आती है,जो वेद व्यास जी की इन उक्तियों से भी स्वतः सिद्ध हो जाती है। जैसा संदर्भित है कि ‘पत्नी का आश्रय लेकर पुरुष ही पुत्र के रूप में उत्पन्न होता है,इस दृष्टि से अपने पूर्वज का आश्रय भी माता ही होती है।’ आज के युग में पुत्र के बदले संतति समझना चाहिए!
॥मातृ देवो भव॥
पितुरप्यधिका माता गर्भधारणपोषणात्।
अतो हि त्रिषु लोकेषु नास्ति मातृसमो गुरुः॥
‘गर्भ को धारण करने और पालनपोषण करने के कारण माता का स्थान पिता से भी बढ़कर है। इसलिए तीनों लोकों में माता के समान कोई गुरु नहीं,अर्थात् माता परमगुरु है।’ (वेदव्यास)

अत:,यह स्पष्ट है कि माता-पिता के अनुसार ही सन्तान होती है,न कि पूर्वजन्म अनुसार। इसीलिए,साफ-साफ समझने के लिए किसी का पूर्वजन्म उसके पिता-माता में है और पुनर्जन्म उसकी अपनी संतति में है। अत: किसी का पूर्वजन्म और पुनर्जन्म – इसी जन्म में होता है।

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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