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हिन्दी का स्वरुप जनभाषा का हो

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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हिंदी दिवस विशेष…..

‘हिन्दी दिवस’ १४ सितम्बर को हर साल मनाया जाता है। इस दिन बड़ी धूमधाम से हिन्दी की विरुदावली गायी जाती है। कहीं हिन्दी सप्ताह मनाया जाता है तो कहीं हिन्दी पखवाड़ा। विद्यालयों के छात्र-छात्राओं में लेख,श्रुतिलेखन, काव्यपाठ आदि की प्रतियोगिताएँ होती हैं और सफल होनेवालों को पुरस्कृत किया जाता है। कहीं-कहीं तो इस अवसर पर धनतेरस के वर्तन मेला की तरह,पुस्तक चौदस मेला भी लगाया जाता है। उदाहरण के लिए बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन(पटना)l १४ सितम्बर के अवसर पर हिन्दी विद्वानों के भाषण भी कराये जाते हैं और उन्हें सम्मानित भी किया जाता है। यह दिवस उत्सव की तरह मनाया जाता है।
आखिर हिन्दी दिवस इस तरह धूम-धाम से क्यों मनाया जाता है ? इसका कारण है कि प्रत्येक राष्ट्र की एक राष्ट्रभाषा होती है,जो भारत की नहीं है। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में हिन्दी को राष्ट्रभाषा मन में मान लिया गया था। महात्मा गांधी,राजगोपालाचारी,
रबीन्द्रनाथ टैगोर आदि अहिन्दी क्षेत्र के पथ प्रदर्शकों ने मान लिया था कि हिन्दी को ही भारत की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए;पर संविधान सभा में राष्ट्रभाषा पर बहस चली तो हिन्दी पर मतैक्य नहीं हो सका। हिन्दी राष्ट्रभाषा चुनी नहीं जा सकी। संविधान सभा के भीतर और बाहर हिन्दी के विपुल समर्थन को देखकर संविधान सभा ने हिन्दी के पक्ष में तो अपना निर्णय दिया पर,यह निर्णय हिन्दी विरोधी तथा हिन्दी समर्थकों के बीच ‘मुंशी आयंगर फार्मूले’ के समझौते के परिणाम स्वरूप सामने आया कि हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं,बल्कि राजभाषा है! पर,कुछ राज्यों में अभी हिन्दी केवल नाम के लिए राजभाषा रह गई है। भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, ‘जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा,अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।’
अत:,अभी हिन्दी केवल नाम के लिए राजभाषा के रूप में रह गई है और अंग्रेजी जो सह भाषा के रूप में थी, वही अभी प्रमुख हो गई है।
भारतवासी अब इस बहस में लगे हुए हैं कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का सम्मान मिलना चाहिए।
हम जानते हैं कि इतने बड़े जनसमुदाय वाले देश में अपने अधिकार की लड़ाई आसान नहीं और यदि महात्मा गांधी, स्वामी दयानन्द सरस्वती,पं. मदन मोहन मालवीय,राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन,आचार्य केशव सेन, काका कालेलकर तथा गोविन्द वल्लभ पन्त-जैसे महान व्यक्तियों के अनेक वर्षों के किए गए अथक प्रयासों से हमें हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहने का अधिकार मिला है,तो हम उसे क्यों छोड़ें।
प्रयास यह भी हो रहा है कि हिन्दी को विश्व भाषा बनाया जाए,लेकिन हम अपने घर में ही क्या हिन्दी को उचित स्थान दे पा रहे हैं ? आज बच्चों की पढ़ाई में अंग्रेजी माध्यम को प्रथम स्थान दिया जा रहा है। अंग्रेजी का भूत हम पर ऐसा सवार है कि बच्चों का माता-पिता से परिचय मम्मी-पापा के रूप में कराया जा रहा है। हिन्दी की गिनती आती नहीं और अंग्रेजी का पहाड़ा बच्चे कोरस में गा रहे हैं। अगर हम कहें कि हिन्दी-दिवस १४ सितम्बर को होता है तो अंग्रेजी माध्यम के कितने बच्चे समझ नहीं पायेंगे,पर ‘चौदह’ को अगर ‘फोरटीन’ कह दिया जाए तो तुरत समझ जायेंगे।
उसी तरह बोलचाल की भाषा में अंग्रेजी की ऐसी घुसपैठ हो गयी है कि एक नई भाषा हिंग्लिश का चलन हो गया है। जहाँ शिक्षा में हिन्दी को प्रोत्साहन नहीं मिले,न ही जीविका के साधन जुटाने में ही इसका बहुत उपयोग हो,वहाँ हिंदी कैसे आगे बढ़ेगी ? आज तो स्नातकोत्तर कक्षाओं में भी हिन्दी के विद्यार्थी कम मिलते हैं!
तकनीकी ज्ञान में भी हिन्दी अंग्रेजी से बहुत पीछे है। अत:,हिन्दी को अपने हक़ पर खरा उतरने के लिए मीलों चलना पड़ेगा!
आज आवश्यकता है कि शासन की ओर से हिन्दी को सम्मान दिया जाए और इसके व्यवहार की अनिवार्यता हो। हिन्दी को नौकरी-रोजगार से जोड़ा जाए। तभी हिन्दी का विकास होगा और भूमण्डलीकरण के इस युग में हिन्दी का प्रश्न हल होगा। हिन्दी के विकास के लिए यह भी जरूरी है कि इसका संपर्क भाषा के रूप में व्यवहार किया जाए और तत्सम-तद्भव शब्दों से भले इसे सजाया जाए,पर देशज या बोलचाल के शब्दों का भी इसमें समावेश हो। हिन्दी का स्वरूप जन-भाषा का हो!

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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