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प्राणवायु से ईमान तक…क्या नहीं बिक रहा!

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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कुछ लोग भले इसे नकारात्मक सोच मानें, लेकिन कोरोना-२ ने एक बार फिर इंसान के दो चेहरों को बेनकाब कर दिया है। एक तरफ वो लोग हैं,जो दिन-रात एक कर कोविड के जानलेवा हमले से मरीजों को अपनी जान जोखिम में डालकर बचाने में जुटे हैं,तो दूसरी तरफ वो हैवान हैं,जो इस महाआपदा में भी अवसर खोज कर इंसानियत के मुँह पर कालिख पोत रहे हैं। दवाइयों की कालाबाजारी नई बात नहीं थी,लेकिन इस कोरोना काल में हमने जीवन की प्रतीक प्राणवायु(ऑक्सीजन) और अस्पताल के बिस्तर की भी कालाबाजारी और लूट देखी,जो शायद ‘भूतो न भविष्यति है। गुजरात के एक प्राणवायु निर्माता कम्पनी के मालिक का यह बयान हिला देने वाला है कि जीवन में कभी सोचा नहीं था कि लोग प्राणवायु की १-२ ‍बाटल तक के लिए इस कदर मिन्नतें करेंगे।

इस कोरोना काल-२ में जहां एक तरफ चिकित्सकों,चिकित्सा दल,प्रशासन,पुलिस, मीडिया,सामाजिक संस्थाएं तथा कोरोना के खिलाफ लड़ाई में शामिल कुछ और लोग थक कर चूर होने के बाद भी मनुष्यता की मशाल जलाए हुए हैं,दूसरी तरफ इंसानियत की उसी लौ पर कुछ लोग बेशर्मी के साथ अपनी रोटियां सेंकने रहे हैं। इसमें वो हैवान तो शामिल हैं ही,जिनकी संवेदनाएं मर चुकी है, लेकिन वो राजनेता भी शामिल हैं,जिनके लिए कोरोना संकट मानो मत पकाने की भट्टी बनकर आया है।

सचमुच कठिन समय है। ‘साँसें टूटने’ या ‘साँसें छीन लेने’ जैसे दर्दीले काव्यात्मक प्रयोग अब अस्पतालों के दैनंदिन नजारों में तब्दील हो चुके हैं। चिकित्सा के नोबल कारोबार में भी निकृष्टता के नए मानदंड हमें देखने को मिलेंगे,यह सोचना भी मुश्किल था। शिवपुरी के एक अस्पताल में वार्ड ब्वाय द्वारा पैसे लेकर एक का प्राणवायु मास्क हटाकर दूसरे को लगा देना शायद हैवानों को भी लजा देगा। चंद साँसों के लिए लोग गिड़गिड़ा रहे हैं,और साँसों के अभाव में स्वजनों को अपनी आँखों के सामने दम तोड़ता हुआ देख रहे हैं। अब सवाल तो यह है कि प्राणवायु से लेकर ईमान तक क्या है,जो बिक नहीं रहा ?

कोविड जैसी संक्रामक महामारी से मरने वाले के शवों को छूने तक से परिजनों के परहेज की घटनाएं पिछले साल भी देखने को मिली थीं। एक बेटा तो अपनी माँ के अंतिम संस्कार से भी मुकर चुका था,लेकिन अब तो मामला एक कदम आगे जा चुका है। कोविड से मरने वालों की लाश देखकर पड़ोसी दरवाजे बंद कर लेते हैं और शैतान मृतक के शरीर से गहने तक उतार ले जाते हैं। शायद इसलिए,क्योंकि दुनिया तो जीने वालों की है। उधर निजी अस्पतालों में शव देने के लिए भी लाखों रूपए मांगे जा रहे हैं। शव मिला तो अंतिम संस्कार के लाले हैं। श्मशान घाट और कब्रिस्तान में भी अंतिम संस्कार के लिए क्रम लग रहे हैं और अंत्येष्टि जरा जल्दी हो जाए,इसके लिए रसूखदारों से सिफारिश लगवाने की नौबत आ गई है। ऐसे में यमराज के यहां क्या स्थिति होगी,इसकी कल्पना ही की जा सकती है। ऐसे में असली देवदूत वही प्रशासन के लोग हैं, जो सिर्फ मानवता के नाते अनजान शवों को भी अग्नि दे रहे हैं।

प्राणवायु के साथ-साथ कालाबाजारी उन रेम‍डेसिविर इंजेक्शनों की भी है,जिसकी उपयोगिता के बारे में खुद चिकित्सकों में भी मतभेद हैं। एक हवा चल गई है कि, रेमडेसिविर ही रामबाण है। लिहाजा,अस्पतालों से चुराकर या गायब करवाकर रेम‍डेसिविर की जमकर कालाबाजारी की जा रही है। हर इंजेक्शन पर मौत का बेशर्म सौदा किया जा रहा है। बेबस लोग परिजन की जान बचाने के लिए मुँहमांगा पैसा दे रहे हैं,फिर भी मरीज शायद ही बच रहा है। दूसरी तरफ,मुर्दे के बाकी बचे इंजेक्शनों पर भी दुष्टात्माएं कमाई कर रही हैं। इस बीच सरकार ने बिना पुख्ता पूर्व तैयारी के आनन-फानन में कोरोना टीका १८ साल से ऊपर के सभी लोगों को लगाने का ऐलान कर दिया है। आश्चर्य नहीं कि, रेमडेसिविर जैसा हाल भी हो,क्योंकि जरूरत के मुताबिक टीका का उत्पादन अभी नहीं है। विदेश से आयात करने या भारत में ही उनके पर्याप्त उत्पादन में वक्त लगेगा। यूँ सरकार ने टीका निर्माता कम्पनियों को ४५०० करोड़ रू. दे भी दिए हैं,लेकिन टीका की मांग में एकदम उछाल आने से कालाबाजारियों की दिवाली नहीं मनेगी,इसकी गारंटी देने की स्थिति में कोई नहीं है,क्योंकि मांग के अनुपात में रातों-रात उत्पादन बढ़ाने का चमत्कार असंभव है। हकीकत यह है कि,देश कई राज्यों में पूरा चिकित्सा तंत्र ध्वस्त होने की कगार पर है। पूरे चिकित्सा तंत्र पर इतना अधिक दबाव है कि,उसके झेलने की क्षमता भी खत्म-सी हो गई है। सरकारें आग भड़कने के बाद फायर ‍ब्रिगेड लिए दौड़ रही हैं। कई स्तरों पर हलचल और भाग-दौड़ हो भी रही है,लेकिन उन साँसों का हिसाब देने वाला कोई नहीं है,जो जरूरत मंदों तक प्राणवायु पहुंचने के पहले ही थम चुकी हैं या थम जाएंगी। सरकार ने पिछले साल देश के १६२ जिला अस्पतालों में प्राणवायु परियोजना लगाने का ऐलान किया था,लेकिन चुनावी दुंदुभियों के बीच वह गुम हो गया।

इस विकट स्थिति में कई लोग व्यक्तिगत स्तर पर और अनेक सामाजिक संस्थाएं अपना मानवीय कर्तव्य मानकर जरूरी सुविधाएं जुटाने और मुहैया कराने की कोशिश कर रही हैं। हालांकि,जरूरत की तुलना में यह राहत बहुत थोड़ी है,लेकिन बदहवासी के आलम में यह भी छोटी बात नहीं है।

मदद हो और उसे भुनाया न जाए तो राजनेता ही क्या ? चाहे शव वाहन हो या एम्बुलेंस, दवाइयां हो या,पीपीई किट हो या कफन,कुछ भी देने या मुहैया कराने पर नेताओं के नाम का ठप्पा और तस्वीर उसी तरह प्रचारित की और करवाई जा रही हैं,मानो कोविड के कारण स्वर्गवासी होने वाले अपने साथ उसे ले जाकर परलोक में नेताओं के पक्ष में प्रचार करने वाले हैं। सेवा को घटिया आत्मप्रचार का बूस्टर देने की यह सोच भी हैवानियत का ही दूसरा पहलू है। प्रचार तो कभी भी हो सकता है,‘यह हमने किया’,इसका ढोल कभी भी पीटा जा सकता है, मगर कम से कम श्मशान घाटों को तो राजनीतिक विषाणु से मुक्त रखें। वहां जाने वाला हर शख्स कोविड से पहले ही परेशान है।

अब यह प्रकृति का न्याय है या मनुष्य का आत्मघाती षड्यंत्र,या फिर ईश्वर की लीला, कहना मुश्किल है,पर इतना तय है कि हमें अभी बड़े संकटों से जूझते रहना है। यह एक अदृश्य,लेकिन महाघातक शत्रु के लिए खिलाफ विश्वयुद्ध की तरह है,जिसे किसी भी कीमत पर जीतना ही लक्ष्य हो सकता है। इसलिए भी क्योंकि ऐसे हमले हैवानियत के लिए दावत की तरह होते हैं। हैवानियत को चारों खाने ‍चित करने के लिए भी इंसानियत को यह लड़ाई जीतना जरूरी है। उन लोगों को भी सबक सिखाने के लिए यह युद्ध में जीत जरूरी है,जो श्मशान में भी शहनाई बजाने से नहीं चूकते।

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