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हिन्दीःविश्व में प्रतिष्ठा,देश में उपेक्षा क्यों ?

ललित गर्ग
दिल्ली

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हाल ही में एथनोलॉग द्वारा जारी प्रतिवेदन के अनुसार हिंदी विश्व में तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा बन गई हैl वर्तमान में ६३७ मिलियन लोग हिंदी भाषा का उपयोग करते हैं। हिंदी भारत की राजभाषा है। सांस्कृतिक और पारंपरिक महत्व को समेट हिंदी अब विश्व में लगातार अपना फैलाव कर रही है,हिन्दी राष्ट्रीयता की प्रतीक भाषा है,उसको राजभाषा बनाने एवं राष्ट्रीयता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठापित करने के नाम पर भारत में उदासीनता एवं उपेक्षा की स्थितियां विडम्बनापूर्ण है। विश्वस्तर पर प्रतिष्ठा पा रही हिंदी को देश में दबाने की नहीं,ऊपर उठाने की आवश्यकता है। हमने जिस त्वरता से हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में पहल की,उसी त्वरा से राजनीतिक कारणों से हिन्दी की उपेक्षा भी हैl यही कारण है कि आज भी देश में हिन्दी भाषा को वह स्थान प्राप्त नहीं है,जो होना चाहिए। देश-विदेश में इसे जानने-समझने वालों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। अंतरजाल (इंटरनेट) के इस युग ने हिंदी को वैश्विक धाक जमाने में नया आसमान मुहैया कराया है।
एथनोलॉग में बताया गया है कि,दुनियाभर की २० सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में ६ भारतीय भाषाएं हैं,इनमें हिंदी के बाद बंगाली भाषा का स्थान है,जो सूची में २६.५ करोड़ लोगों के साथ सातवें स्थान पर है। दुनियाभर में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में पहला स्थान अंग्रेजी का है और ११३.२ करोड़ लोग इसका इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा दूसरे स्थान पर चीन में बोली जाने वाली मंदारिन भाषा है,जिसे ११७.७ करोड़ लोग बोलते हैं। चौथे क्रम पर ५३.४ करोड़ लोगों के साथ स्पेनिश और पांचवें पर २८ करोड़ लोगों के साथ फ्रेंच भाषा है।
दुनिया में हिन्दी की बढ़ती लोकप्रियता एवं विश्व की बहुसंख्य आबादी द्वारा इसे अपनाए जाने की स्थितियां हर भारतीय के लिये गर्व की बात है। देश की आजादी के पश्चात १४ सितम्बर १९४९ को भारतीय संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी को अंग्रेजी के साथ राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार किया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने १९५३ से सम्पूर्ण भारत में १४ सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।
राष्ट्र भाषा हिन्दी सम्पूर्ण देश में सांस्कृतिक और भावात्मक एकता स्थापित करने का प्रमुख साधन है। भारत का परिपक्व लोकतंत्र,प्राचीन सभ्यता, समृद्ध संस्कृति तथा अनूठा संविधान विश्व भर में एक उच्च स्थान रखता है,उसी तरह भारत की गरिमा एवं गौरव की प्रतीक राष्ट्र भाषा हिन्दी को हर कीमत पर विकसित करना हमारी प्राथमिकता होनी ही चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शासन में हिन्दी को राजभाषा व राष्ट्रभाषा के रूप में शालाओं,महाविद्यालयों,अदालतों,सरकारी कार्यालयों और सचिवालयों में कामकाज एवं लोकव्यवहार की भाषा के रूप में प्रतिष्ठा मिलना चाहिएl इस दिशा में वर्तमान सरकार के प्रयास उल्लेखनीय एवं सराहनीय है,लेकिन उनमें तीव्र गति दिए जाने की अपेक्षा है,क्योंकि इस दृष्टि से महात्मा गांधी की अन्तर्वेदना को समझना होगा,जिसमें उन्होंने कहा था कि भाषा संबंधी आवश्यक परिवर्तन अर्थात हिन्दी को लागू करने में एक दिन का विलम्ब भी सांस्कृतिक हानि है। जिस प्रकार हमने अंग्रेज लुटेरों के राजनीतिक शासन को सफलतापूर्वक समाप्त कर दिया,उसी प्रकार सांस्कृतिक लुटेरे रूपी अंग्रेजी को भी तत्काल निर्वासित करें। लगभग सात दशक के आजाद भारत में भी हमने हिन्दी को उसका गरिमापूर्ण स्थान न दिला सके,यह हमारी राष्ट्रीयता पर एक गंभीर प्रश्नचिन्ह है।
उपराष्ट्रपति वैंकय्या नायडू ने हिन्दी के बारे में ऐसी ही बात पिछले दिनों कही थी,जिसे कहने की हिम्मत महर्षि दयानंद,महात्मा गांधी और डाॅ. राममनोहर लोहिया में ही थी। उन्होंने कहा कि ‘अंग्रेजी एक भयंकर बीमारी है,जिसे अंग्रेज छोड़ गए हैं।’ वैंकय्या नायडू का हिन्दी को लेकर जो दर्द एवं संवेदना है,वही स्थिति सरकार से जुडे़ हर व्यक्ति के साथ-साथ जन-जन की होनी चाहिए। हिन्दी के लिए दर्द,संवेदना एवं अपनापन जागना जरूरी है। हम अपनी स्वभाषा को सम्मान देने के छोटे-छोटे प्रयासों द्वारा समाज में बड़े परिवर्तन ला सकते हैं,जो आने वाले समय में हिंदी के विकास में अपना महत्वपूर्ण स्थान दे सकता है। राष्ट्रभाषा को प्रतिष्ठापित करने एवं सांस्कृतिक सुरक्षा के लिए अनेक विशिष्ट व्यक्तियों ने व्यापक प्रयत्न किए, जिनमें सुमित्रानन्दन पंत,महादेवी वर्मा प्रमुख हैं। आगरा के सांसद सेठ गोविन्ददास जी ने तो अंग्रेजी के विरोध में अपनी पद्मभूषण की उपाधि केन्द्र सरकार को वापिस लौटा दी।
कुछ राजनीतिज्ञ अपना उल्लू सीधा करने के लिए भाषायी विवाद खड़े करते रहे हैं और वर्तमान में भी कर रहे हैं। यह देश के साथ मजाक हैl हिन्दी को सम्मान एवं सुदृढ़ता दिलाने के लिए केन्द्र सरकार के साथ-साथ प्रांतों की सरकारों को संकल्पित होना ही होगा। नरेन्द्र मोदी ने विदेशों में हिन्दी की प्रतिष्ठा के अनेक प्रयास किए हैं,लेकिन देश में भी हिन्दी की स्थिति सुदृढ़ बननी चाहिए। यदि उनके शासन में हिन्दी को राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित नहीं किया जा सका तो भविष्य में इसकी उपेक्षा के बादल घनघोर ही होंगे,यह एक दिवास्वप्न बनकर रह जाएगा। हाल में कर्नाटक एवं तमिलनाडू में हिन्दी विरोध की स्थितियां उग्र बनी। हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी दक्षिण भारत में इसकी इतनी उपेक्षा क्यों ? क्षेत्रीय भाषा के नाम पर हिन्दी की अवमानना एवं उपेक्षा के दृश्य उभरते रहे हैं,लेकिन प्रश्न है कि हिन्दी को इन जटिल स्थितियों में कैसे राष्ट्रीय गौरव प्राप्त होगा। भाषायी संकीर्णता न राष्ट्रीय एकता के हित में है और न ही प्रान्त के हित में।
दरअसल,बाजार और रोजगार की बड़ी संभावनाओं के बीच हिंदी विरोध की राजनीति को अब उतना महत्व नहीं मिलता,क्योंकि लोग हिंदी की ताकत को समझते हैं। राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने कहा था –जो भरा नहीं है भावों से,जिसमें बहती रसधार नहीं! वह हृदय नहीं है पत्थर है,जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं!! हिन्दी भाषा का मामला भावुकता का नहीं,ठोस यथार्थ का है,राष्ट्रीयता का है।
हिन्दी विश्व की एक प्राचीन,समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राजभाषा भी है,यह हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता की भी प्रतीक है,यह हमारी राष्ट्रीयता एवं संस्कृति की भी प्रतीक है। महात्मा गांधी ने सही कहा था कि,`राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।’ यह कैसी विडम्बना है कि जिस भाषा को कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे भारत में समझा जाता हो,उसकी घोर उपेक्षा हो रही हैl इन त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति को सरकार कुछ ठोस संकल्पों एवं अनूठे प्रयोगों से दूर करने के लिए प्रतिबद्ध हो,हिन्दी को मूल्यवान अधिमान दिया जाए। तभी हिन्दी अपना वैश्विक विकास करते हुए तीसरे स्थान से पहले स्थान की ओर अग्रसर हो सकेगी।

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