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बस्तियों में रहती हूँ

अनूप कुमार श्रीवास्तव
इंदौर (मध्यप्रदेश)
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मैं वो हिंदी हूँ
तुम्हारे ड्राइंगरुम में नहीं
बस्तियों में रहती हूँ,
तुम्हारी सभाओं-
सम्मानों,
पुरस्कारों में नहीं
दिखती हूँ।
अपनी जीत के
प्रति आश्वस्त हूँ,
तुम्हारे फ़ूल मालाओं,
लम्बे-लम्बे भाषणों में
नहीं कही जातीं।

मैं देश की करोड़ों,
आत्माओं की अंतर्यामी
बहुआयामी भाषा हूँ,
मैं हिंदी हूँ आज की
देश की भाषा हूँ।
मुझीं में बंगला,
गुजराती-पंजाबी
कन्नड़,उर्दू,इंग्लिश,
सभी बोलियां बोई है
सभी से मिल-जुल कर,
हिंदोस्तानी निकालतीं है।

शहर की हर गली से,
निकल कर
चौराहे से गुजरती है,
गाँवों की हर पगडंडी
से होते पोखरे,
ताल-तलैया बाग-बगीचे
से होते चबूतरे-दालान,
मड़ैया से होते
त्योहारों बाजारों से होते,
देश की राजधानी तक
अपनी बात कही है।
लेकिन हिंदी के नाम पर,
नौकरी जिनकी
खुदकुशी करती है॥

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