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हिन्दी के नाटकों के सामने सबसे बड़ा संकट दर्शकों का

इंदौर(मध्यप्रदेश)।

हिन्दी के नाटकों के सामने सबसे बड़ा संकट दर्शकों का है। दर्शकों में नाटक प्रेम का अभाव,हिन्दी नाटक में दर्शक टिकट खरीद कर नाटक नहीं देखना चाहता,जबकि व मराठी और बांग्ला थियेटर में लोग नाटक के लिए पैसा खर्च करने को तैयार थे।
यह बात साहित्यकार प्रांजल श्रोत्रिय ने नाटक और उसके वर्तमान समय पर विस्तार से चर्चा में कही। जनवादी लेखक संघ द्वारा २३ नवम्बर २०१९ को आयोजित ७३वें मासिक रचनापाठ में ‘रंगकर्म के बुनियादी सवाल और हमारा समकाल’ पर आप बोल रहे थे। कार्यक्रम की शुरुआत में संघ के अध्यक्ष रजनीरमण शर्मा ने आज़ादी के बाद हिन्दी नाटकों की प्रगति और निर्भीकता स्थानीयता को लेकर चर्चा की। उन्होंने कहा कि,संकट नाटक का ही नहीं भाषा का भी है,शब्दों के यहाँ तक कि संकेतों के भी अर्थ बदल कर परोसे जा रहे हैं। इन सबके बावजूद जब रंगकर्मी नाटक करना चाहता है तो पहला सवाल है कलाकार,एक युवा आपसे जुड़ता है २-४ नाटक करता फिर या तो नौकरी की तलाशा में निकल जाता है,या फिर बड़ा सितारा बनने मुंबई,तीसरी समस्या है,नाटक एक ऐसी विधा है जो कड़ा अनुशासन मांगती है,सीखने के लिए हमारे नाट्य शास्त्र से लेकर भारतीय पौराणिक और ऐतिहासिक सन्दर्भों में बहुत कुछ है,पर उसके लिए मेहनत चाहिए और वैसा समय किसी के पास है नहीं और कोई देना नहीं चाहता। तीसरी समस्या है एक समुचित व्यवस्था वाले सभा का न होना। स्थानीयता के सवाल को लेकर उन्होंने हबीब तनवीर, रत्न थैयाम और बाबा कारन्त के नाटकों पर चर्चा की,जिसमें हिन्दी नाटक की स्थानीयता के कई उदाहरण है। प्रयोगशीलता को लेकर उन्होंने कहा कि नाटक में कविता,कहानी, उपन्यास और किस्सों को लेकर बहुत से प्रयोग हुए हैं।
इसके बाद रंगकर्मी नंदकिशोर बर्वे ने नाटक के शास्त्रीय पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की। नंदकिशोर बर्वे ने अपने नाटक के एक दृश्य का वाचन भी किया। इस चर्चा पर चर्चा करते हुए सुरेश उपाध्याय,वरिष्ठ प्रदीप कान्त,प्रदीप मिश्र,शिरीन भावसार,विभा दुबे, देवेन्द्र रिणवा और आनन्द व्यास ने इस सार्थक चर्चा और नाटकों से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर अपने विचार व्यक्त किए। संचालन किया रजनी रमण शर्मा ने। आभार देवेन्द्र रिणवा ने माना।

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