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भारत भाषा प्रहरी डॉ. अमरनाथ

डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’

मुम्बई(महाराष्ट्र)
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नौवां विश्व हिन्दी सम्मेलन,जो २२ सितम्बर से २४ सितम्बर २०१२ तक दक्षिण अफ्रीका के शहर जोहांसबर्ग में आयोजित हुआ था, वहाँ दूसरे दिन किसी सत्र की समाप्ति पर मैंने देखा कि सभागार के बाहर एक व्यक्ति कुछ पर्चे बांट रहा है। साथ ही वे कुछ लोगों के साथ चर्चा भी कर रहे थे। चर्चा में हिंदी क्षेत्र की बोलियों को संविधान की अष्टम अनुसूची में शामिल किए जाने पर चिंता व्यक्त की जी रही थी। मैंने उस व्यक्ति से बातचीत की,मामले को समझा और फिर निश्चय किया कि इस प्रकार हिंदी के टुकड़े-टुकड़े न हों,हिंदी कमजोर न हो,इसके लिए मैं हर संभव प्रयास करूंगा। वे सज्जन कोई और नहीं,बल्कि कलकत्ता विश्ववद्यालय के प्रो. डॉ. अमरनाथ थे। वहाँ तो उनसे विशेष परिचय नहीं हुआ लेकिन भारत लौटने के कुछ समय बाद इसी मुद्दे पर उनसे संपर्क साधा और इस प्रकार हिंदी को बचाने की इस साझा सोच और अभियान के माध्यम से मुझे उन्हें और उनके ‘हिन्दी बचाओ मंच’ के अभियान को जानने-समझने का अवसर मिला।
वर्ष २०१६ में हमारी हिन्दी जब टूटने की कगार पर थी,भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने वाला बिल संसद में पेश होने वाला था, तब डॉ. अमरनाथ ने ‘हिन्दी बचाओ मंच’ के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर आन्दोलन चलाकर दिल्ली,कोलकाता जैसे शहरों में धरना और प्रदर्शन करके,भारत के गृहमंत्री से मिलकर राष्ट्रपति,प्रधानमंत्री तथा अन्य दर्जनों पक्ष-विपक्ष के नेताओं और मंत्रियों को पत्र लिख कर देशभर में यात्राएं की। ऐसा करके और जन-जागरण अभियान चलाकर,दर्जनों लेख लिखकर,सभी बड़े शहरों में पत्रकार वार्ताएं करके अन्तत: हिन्दी को विखंडित होने से बचा लिया। आज भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची की मांग करने वालों के विरोध में और हिन्दी की एकता को बनाए रखने के पक्ष में देश भर में बुद्धिजीवियों और भाषा-प्रेमियों की जो एक बड़ी जमात मुखर हुई है,तो इसके पीछे डॉ. अमरनाथ और उनके संगठन द्वारा चलाए गए आन्दोलन की महती भूमिका है।
डॉ. अमरनाथ (वास्तविक नाम प्रो. अमरनाथ शर्मा )का जन्म गोरखपुर जनपद के रामपुर बुजुर्ग नामक गाँव में में हुआ। आरंभ में वे गोरखपुर विश्वविद्यालय से संबद्ध महाविद्यालय में प्राध्यापक थे। १९९४ में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन करने आए और २०१७ में प्राध्यापक एवं अध्यक्ष पद से अवकाश ग्रहण किया। इसके बाद से स्वतंत्र रूप से लेखन और सामाजिक कार्यों में संलग्न हैं।
कविता से अपनी रचना-यात्रा शुरू करने वाले डॉ. अमरनाथ सामाजिक-आर्थिक विषमता से जुड़े सवालों से लगातार जूझते रहे हैं। उनका विश्वास है कि लेखन में ऊर्जा सामाजिक संघर्षों से आती है। वे कई सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनो से आज भी जुड़े हुए हैं। उन्होंने स्वयं भी कई संस्थाओं का गठन और संचालन किया,जिनमें ‘
चेतना सास्कृतिक मंच’ एवं ‘आचार्य सत्यदेव शास्त्री स्मारक’ प्रमुख हैं।
डॉ. अमरनाथ पिछली सदी के अन्तिम दशकों में जनवादी लेखक संघ से भी संबद्ध रहे और उसकी केन्द्रीय समिति के सदस्य थे किन्तु बाद में वैचारिक मतभेद के चलते वे उससे अलग हो गए। वे देश के विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के सबसे बड़े और पुराने संगठन भारतीय हिन्दी परिषद के उपसभापति भी रह चुके हैं।
हिन्दी जगत में डॉ. अमरनाथ की पहचान एक सुधी आलोचक और प्रतिष्ठित भाषाविद् की है। उनकी सर्वाधिक प्रतिष्ठित और चर्चित पुस्तक ‘हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली’ है। उच्च शिक्षा से जुड़े विद्यार्थियों से लेकर विश्वविद्यालयों के शिक्षकों तक में यह अत्यंत लोकप्रिय हैं।
डॉ. अमरनाथ की दूसरी बहुचर्चित पुस्तक है ‘हिन्दी जाति।’ डॉ. अमरनाथ की स्थापना है कि हिन्दी (हिन्दुस्तानी) जाति इस देश की सबसे बड़ी जाति है। इसकी सांस्कृतिक विरासत अत्यंत समृद्ध है। वेद,उपनिषद, रामायण और महाभारत यहीं रचे गए। दुनिया के पहले गणतंत्र यहीं विकसित हुए। यहीं नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय थे। यहीं बुद्ध और महावीर तथा राम और कृष्ण हुए। चरक जैसे शरीर-विज्ञानी,सुश्रुत जैसे शल्य-चिकित्सक,आर्यभट्ट जैसे खगोल-विज्ञानी,पतंजलि जैसे योगाचार्य,पाणिनि जैसे वैयाकरण और कौटिल्य जैसे अर्थशास्त्री यहीं हुए। यही वह क्षेत्र है जिसे कभी ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। यह हिन्दी जाति आज देश में सबसे पिछड़ी हुई जातियों में से एक है। अशिक्षा और पिछड़ापन ही उसकी पहचान है। वह देश-विदेश में रोटी के लिए अपना श्रम बेचती है और हर जगह उसे उपेक्षा मिलती है। दर-दर की ठोकरें खाना और अपमानित होना उसकी नियति बन चुकी है। अपने ही मुल्क में वह निरीह और बेचारी है। उसे न तो अपनी विरासत का अहसास है,न ही उस पर गर्व। उसे आए-दिन साम्प्रदायिकता की ज्वाला झुलसाती रहती है। १० राज्यों में बँटे होने के कारण उसमें असंतुलित विकास हुआ है और जातिय चेतना का अभाव है। इन्हीं सवालों ने उन्हें ‘हिन्दी जाति’ पुस्तक लिखने को बाध्य किया। वे मानते हैं कि जब तक हिन्दी जाति के भीतर जातिय चेतना विकसित नहीं होगी,हिन्दी जाति अपने पिछड़ेपन से मुक्त नहीं होगी। इस पुस्तक में हिन्दी और उर्दू के संबंध पर भी विस्तार से विचार किया गया है।
डॉ अमरनाथ की इस पुस्तक का भी पाठकों द्वारा भरपूर स्वागत हुआ। ‘जनसत्ता'(दिल्ली) ने इस पुस्तक के बारे में लिखा,-“इन दिनों हिन्दी से अभिन्न रूप से संबद्ध रहने वाली बोलियों के क्षेत्रों से हिन्दी की अस्मिता को जो चुनौती मिल रही है,हिन्दी के समानांतर इन बोलिय़ों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए आंदोलन खड़े किए जा रहे हैं, बोलिय़ों के हित-संरक्षण के नाम पर भोजपुरी,मैथिली,मगही अकादमियों की स्थापना की जा रही है,इससे हिन्दी की एकता में दरारें पैदा होने लगी हैं। इस परिदृश्य में जातिय भाषा के रूप में हिन्दी के उदय,विकास और महत्व का पुन: स्मरण कराना बहुत सामयिक है।अमरनाथ की यह पुस्तक यह कार्य खूबसूरती से सम्पन्न करती है और बोलियों के अंधमोह और प्रेम में जुनूनी बने हुए बोली प्रेमियों के बीच हिन्दी जाति की वांछनीयता को उजागर करती हुई उन्हें हिन्दी प्रेम और हित के लिए प्रेरित करती है।”
भाषा और साहित्य से इतर विषय पर केन्द्रित उनकी एक पुस्तक ‘नारी का मुक्ति संघर्ष’ है। यह पुस्तक १९९१ में पहली बार उस समय प्रकाशित हुई थी जब हिन्दी में स्त्री विमर्श की चर्चा आरंभ भी नहीं हुई थी। ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और परवर्ती आलोचना’,तथा ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काव्य चिंतन’ उनकी अन्य आलोचना केन्द्रित कृतियाँ हैं। डॉ. अमरनाथ ने अनेक ग्रंथों का सम्पादन भी किया है, जिनमें ‘समकालीन शोध के आयाम’ एवं ’हिन्दी का भूमंडलीकरण’ आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा डॉ. अमरनाथ के सैकड़ों शोध-पत्र,आलोचनात्मक तथा वैचारिक निबंध देश की विभिन्न महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।
जीवन दर्शन देखें तो डॉ. अमरनाथ के सबसे प्रिय कवि तुलसी हैं।रामचरितमानस का उन्होंने एकाधिक बार अध्ययन किया हैं। वे वेदों, उपनिषदों,गीता,रामायण आदि के भी गहरे अध्येता हैं। यही नहीं,उन्होंने कुरान और बाइबिल का भी अध्ययन किया है। हालांकि देवी-देवताओं में उनका विश्वास नहीं है। अपनी मान्यताओं में वे विशुद्ध भौतिकवादी हैं। पुनर्जन्म को वे नहीं मानते,इसीलिए वे धन-वैभव की तरह यश को भी भौतिक संपत्ति मानते हैं और कहते हैं कि जिस तरह धन का लोभी व्यक्ति,धन इकट्ठा करने के लिए भाँति-भाँति के कुकर्म करता है,उसी तरह यश का लोभी भी,यश के लिए तरह-तरह के समझौते करता हुआ दिखाई देता है। वे कहते हैं कि मरने के बाद किसी को क्या पता कि दुनिया में उसका बड़ा यश है?
राजनीति में डॉ. अमरनाथ की गहरी रुचि है,किन्तु वे कभी किसी दल के सदस्य नहीं रहे। वे सत्ता-परिवर्तन में नहीं,बल्कि व्यवस्था-परिवर्तन में विश्वास करते हैं। उन पर मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है,किन्तु व्यवस्था-परिवर्तन के लिए किसी तरह की हिंसा का सहारा लेने के वे पूर्णत: विरोधी हैं। उन्हें मार्क्स का समाजवाद तो चाहिए किन्तु गाँधी के रास्ते पर चलकर। उनका मानना हैं कि भारत की प्रकृति और संस्कृति के अनुकूल विकास की दिशा तय करनी होगी। वे कहते हैं कि भारत के संविधान में भी तो समाजवाद का ही सपना देखा गया है। उनका विश्वास है कि भारत का सुनहरा भविष्य मार्क्स और गाँधी के दर्शन की सम्मिलित भूमि पर ही निर्मित हो सकता है।
डॉ. अमरनाथ जो भी लिखते हैं,उसके पहले विचार करते हैं कि उनके लिखे हुए की देश की आम जनता के हित में कोई भूमिका है या नहीं। वे मानते हैं कि एक ईमानदार साहित्यकार सिर्फ आम जनता के प्रति ही जवाबदेह होता है, अन्य किसी के प्रति नहीं।
भाषा के संघर्ष की दिशा के बारे में वे कहते हैं,-“भाषा का भी वर्ग-चरित्र होता है। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाएं शोषित-शासित वर्ग की भाषाएं हैं, जबकि अंग्रेजी इस देश के शोषक- शासक वर्ग की भाषा है। आर्थिक उदारीकरण के बहाने हमारे देश पर जैसे- जैसे साम्राज्यवाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा बढ़ रहा है उसी अनुपात में अंग्रेजी का वर्चस्व भी बढ़ रहा है। ऐसी दशा में हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा की लड़ाई अनिवार्यत: साम्राज्यवाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के वर्चस्व के विरुद्ध लड़ी जाने वाली लड़ाई का ही एक हिस्सा है (अपनी भाषा की लोकयात्रा)।” किन्तु भारत के वामपंथियों की भाषा नीति की वे आलोचना करते हैं। उनका कहना है कि भारत के वामपंथी,दलितों और शोषितों के हित की वकालत तो करते हैं किन्तु वे माध्यम -भाषा शोषकों की (अंग्रेजी) अपनाते हैं। लगता है वामपंथी दलों की कोई भाषा-नीति है ही नहीं। वे कहते हैं,-“भाषा,संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा होती है। समाज की जैसी संस्कृति होती है,भाषा का चरित्र भी उसी तरह का बन जाता है। दुनियाभर को लूटने की संस्कृति को जिस जाति (अंग्रेज )ने ईजाद किया,उसकी भाषा में स्नेह और शीतलता,करुणा और त्याग, संगीत और लालित्य तलाशना बालू से तेल निकालने जैसा है। हमारे देश में अंग्रेजी वर्चस्व की भाषा है,विभेद की भाषा है और अहंकार की भाषा है। जब हमारे देश का कोई बच्चा आरंभ से ही इस भाषा के माध्यम से शिक्षा लेने लगता है तो वह धीरे-धीरे अपनी जमीन से कटता जाता है। अपनी धरती,अपने परिवेश और अपने समाज से उसका लगाव कम होने लगता है( हिन्दी जाति)।”
डॉ. अमरनाथ की शिकायत है कि दो दशकों से भी अधिक दिनों से वे भारतीय भाषाओं के हित की लड़ाई लड़ रहे हैं किन्तु उनके आन्दोलन के समर्थन में वामपंथी बुद्धिजीवी एक-दो ही आए। हाँ,दक्षिणपंथियों, गाँधीवादियों और लोहियावादियों ने उनका जमकर साथ दिया।
डॉ. अमरनाथ की स्पष्ट मान्यता है कि जब तक समस्त सरकारी कामकाज जनता की अपनी भाषाओं में नहीं होने लगेगा,तब तक जनता की आजादी का कोई अर्थ नहीं है। जनता की वास्तविक मुक्ति तभी होगी जब जनता अंग्रेजी की दासता से मुक्त होगी, क्योंकि तभी उसे आत्म गौरव का बोध हो सकेगा। इसीलिए ‘अपनी भाषा’ की मांग है कि सारा सरकारी काम-काज प्रादेशिक भाषाओं में हो और हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो।
‘हिन्दी बचाओ मंच’ की स्थापना और उसके द्वारा चलाया गया आन्दोलन डॉ. अमरनाथ का ऐतिहासिक कार्य है। इसके लिए हिन्दी समाज द्वारा वे हमेशा याद किए जाएंगे। इस संगठन की स्थापना १३ अगस्त २०१६ को कोलकाता में हुई थी। एक साल के भीतर ही इस संगठन ने जो महान कार्य संपादित किए उसका लेखा-जोखा शची मिश्र सम्पादित ‘हिंदी बचाओ मंच का एक साल’ नामक पुस्तक में देखा जा सकता है।
इस संगठन की स्थापना की पृष्ठभूमि का जिक्र करते हुए डॉ. अमरनाथ लिखते हैं,-“२००३ में अचानक अखबार में एक खबर देखने को मिली कि मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया गया है। ….इसके बाद तो भोजपुरी,राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी आदि को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग तेज हो गई। सबसे मुखर आवाज भोजपुरी और राजस्थानी के लिए थी। भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग करने वालों में प्रभुनाथ सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह,संजय निरूपम,अली अनवर अंसारी,योगी आदित्यनाथ,शत्रुघ्न सिन्हा,मनोज तिवारी जैसे सांसद प्रमुख हैं। इतना ही नहीं,मध्य प्रदेश से अलग होने के बाद छत्तीसगढ़ ने २८ नवम्बर २००७ को अपने राज्य की राजभाषा छत्तीसगढ़ी घोषित किया और विधान सभा में प्रस्ताव पारित करके उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग की। यही स्थिति राजस्थानी की भी है। हकीकत यह है कि जिस राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग की जा रही है,उस नाम की कोई भाषा वजूद में है ही नहीं। राजस्थान की ७४ में से सिर्फ ९(ब्रजी, हाड़ौती,बागड़ी,ढूंढाड़ी,मेवाड़ी,मेवाती,मालवी ,मारवाड़ी,शेखावटी) बोलियों को राजस्थानी नाम देकर संवैधानिक दर्जा देने की माँग की जा रही है।”
डॉ. अमरनाथ लिखते हैं कि संविधान की आठवीं अनुसूची में मैथिली को जगह मिलने के बाद इस तरह की मांग का उठना स्वाभाविक है,क्योंकि डेढ़-दो करोड़ मैथिली भाषियों की तुलना में भोजपुरी,राजस्थानी और छत्तीसगढ़ी बोलने वालों की संख्या कई गुना अधिक है। इस बीच ‘जन भोजपुरी मंच’ ने हस्ताक्षर अभियान चलाकर और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ट्विटर आदि से संदेश भेजकर भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग को तेज कर दिया था। दूसरी ओर १२नवम्बर २०१६ को लखनऊ में भोजपुरी अध्ययन एवं अनुसंधान केन्द्र का उद्घाटन करते हुए तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने आश्वासन दे दिया कि शीघ्र ही भोजपुरी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होगी और इस संबंध में उनकी भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से बात हो चुकी है। भाजपा सांसद और दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष मनोज तिवारी ने भी एक साक्षात्कार में बताया कि भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का फैसला हो गया है और अगले सत्र में इससे संबंधित बिल पेश किया जाएगा। यह सूचना डॉ. अमरनाथ के लिए गंभीर चिन्ता का विषय थी । वे लिखते हैं,-“व्यक्तिगत रूप से मैं पढ़ना-लिखना छोड़कर इस मिशन में लग गया। भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने से हिन्दी को होने वाली क्षति का तथ्यों के साथ विवरण देते हुए मैंने हिन्दी क्षेत्र के अधिकांश मंत्रियों, प्रमुख सांसदों तथा विपक्ष के सभी राजनीतिक दलों के प्रमुख पदाधिकारियों को पत्र लिखा। उन्होंने फेसबुक पर लिखा,- “हिन्दी हमारी माँ है। हम जीते-जी अपनी माँ के अंग कटने नहीं देंगे। आइए,हम सभी संकल्प लें कि जब तक यह प्रस्ताव वापस नहीं होता,हम हर मोर्चे पर लड़ेंगे,जो जहाँ भी हों,जिस रूप में हों,अपनी भाषा रूपी माँ से प्रेम है तो आगे बढ़िए,लिखिए,नारे लगाइए, जुलूस निकालिए,बहस कीजिए,हर तरह से अपनी क्षमतानुसार संघर्ष कीजिए। बंगलादेशी जनता की तरह अपनी भाषा बचाने के लिए हर कुर्बानी देने के लिए तैयार हो जाइए। समय की यही मांग है। अब चुप बैठकर प्रतीक्षा करने का वक्त नहीं है। ये स्वार्थान्ध लोग इतना भी नहीं समझते कि छोटी-छोटी नदियों के जल से गंगा में प्रवाह बनता है। यदि इन सबका जल रोक देंगे तो गंगा सूख जाएगी चाहे उसकी जितनी भी सफाई कर लो।”
दूसरे दिन १९ दिसम्बर २०१६ को हमने इसे ‘वैश्विक हिन्दी सम्मेलन’ पर प्रकाशित किया। इस आह्वान का व्यापक असर हुआ एवं समर्थन में सैकड़ों प्रतिक्रियाएं आईं। इसके माध्यम से यह आन्दोलन देश के कोने-कोने में पहुंचा और देश के अनेक भाषा-प्रेमी इससे जुड़ते गए। इस मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस और आन्दोलन की गूंज मीडिया और सोशल मीडिया से होते हुए सत्ता के गलियारों तक भी पहुंची। इसके बाद डॉ. अमरनाथ ने देश के ११० प्रतिष्ठित साहित्यकारों की ओर से २७ दिस. २०१६ को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखा जिसमें आग्रह किया गया कि हिन्दी की किसी भी बोली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल न करें और इस संबंध में यथास्थिति बनाए रखें। इस अभियान में डॉ. अमरनाथ के सहयोगी डॉ. राकेश पाण्डेय के सम्पादन में ‘आठवीं अनुसूची और हिन्दी की बोलियां’ शीर्षक पुस्तक का विमोचन भी हुआ। इसी क्रम में डॉ. अमरनाथ ने अपने खर्चे से एक अभियान चलाकर देश भर में यात्राएं कीं। विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों में इस विषय पर व्याख्यान दिए,देश-विदेश में भी पर्चे बांटे और दुनियाभर के हिन्दी प्रेमियों से संपर्क करके उन्हें हिन्दी पर आसन्न खतरे से परिचित कराया। एक प्रतिनिधि मंडल के साथ वे भारत के गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मिले और उन्हें ज्ञापन दिया। राजनाथ सिंह ने इस मुद्दे पर यथास्थिति कायम रखने का आश्वासन भी दिया।
अपनी बातें समझाने के लिए डॉ. अमरनाथ देवी-दुर्गा के मिथक का उदाहरण देते हैं। दुर्गा बनी कैसे ? महिषासुर से त्रस्त सभी देवताओं ने अपने-अपने तेज दिए थे। “अतुलं तत्र तत्तेज: सर्वदेवशरीरजम्। एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा।“ अर्थात् सभी देवताओं के शरीर से प्रक़ट हुए उस तेज की कहीं तुलना नहीं थी। एकत्रित होने पर वह एक नारी के रूप में परिणित हो गया और अपने प्रकाश से तीनों लोकों में व्याप्त हो गया। तब जाकर महिषासुर का वध हो सका।
हिन्दी भी ठीक दुर्गा की तरह है। जैसे सारे देवताओं ने अपने-अपने तेज दिए और दुर्गा बनी,वैसे ही सारी बोलियों के समुच्चय का नाम हिन्दी है। यदि सभी देवता अपने-अपने तेज वापस ले लें तो दुर्गा खत्म हो जाएगी, वैसे ही यदि सारी बोलियां अलग हो जाएं तो हिन्दी के पास बचेगा क्या ? हिन्दी का अपना क्षेत्र कितना है ? वह दिल्ली और मेरठ के आस-पास बोली जाने वाली कौरवी से विकसित हुई है। हम हिन्दी साहित्य के इतिहास में चंदबरदायी और मीरा को पढ़ते हैं जो राजस्थानी के हैं,सूर को पढ़ते हैं जो ब्रजी के हैं,तुलसी और जायसी को पढ़ते हैं जो अवधी के हैं,कबीर को पढ़ते हैं जो भोजपुरी के हैं और विद्यापति को पढ़ते हैं जो मैथिली के हैं। इन सबको हटा देने पर हिन्दी साहित्य में बचेगा क्या ?
डॉ. अमरनाथ आलोचकों के आलोचक हैं। उनके लेखन का मुख्य क्षेत्र हिन्दी का आलोचना साहित्य ही है। ‘हिन्दी आलोचना का आलोचनात्मक इतिहास’ शीर्षक उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशनाधीन है। हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में उनकी कुछ मौलिक स्थापनाएं भी हैं। हिन्दी आलोचना का आरंभ, आधुनिक काल से माना जाता है। इस पर वे सवाल उठाते हैं कि हिन्दी साहित्य की रचना तो नवीं-दसवीं सदी से ही होने लगी थी। फिर आलोचना का विकास अठारहवीं सदी से क्यों ? क्या हजार साल तक सिर्फ रचनाएं होती रहीं और उनपर प्रतिक्रयाएं नहीं होती थी ?यदि रचना के साथ-साथ ही आलोचना का विकास भी होता है तो क्या हिन्दी साहित्य के आदि काल से आधुनिक काल के भारतेन्दु युग तक लोग सिर्फ रचनाएं पढ़ते और सुनते रहे और उन पर प्रतिक्रियाएं देने से परहेज करते रहे ? भला ऐसा कैसे संभव है?” वे संस्कृत साहित्य में टीकाओं की समृद्ध परम्परा का स्मरण दिलाते हुए कहते हैं कि वास्तव में रचना को सहृदय पाठकों के लिए बोधगम्य बनाने के उद्देश्य से ही टीकाएँ लिखी जाती थीं। आलोचक का पहला काम होता है रचना को भली- भाँति समझना, उसके गुण-दोष का विवेचन करना और उसे पाठकों को समझने में मदद पहुँचाना। भाष्यकार का भी यही काम होता है। टीका या भाष्य लिखने वाला,सही अर्थों में आलोचक होता है। निश्चित रूप से टीकाएँ लिखने के लिए अत्यधिक साधना,श्रम और धैर्य की जरूरत होती है। उसकी तुलना में प्रतिष्ठा भी कम ही मिलती है,जबकि आज का युग कम से कम श्रम करके अधिक से अधिक प्राप्त करने का है। इसीलिए वे जोर देकर कहते हैं कि बड़े ही सुनियोजित तरीके से भाष्यकारों की उपेक्षा की गई और इस तरह आलोचना की एक अत्यंत पुष्ट और उत्कृष्ट पद्धति को यथासंभव उपेक्षित और कमजोर किया गया।
वे हिन्दी में पाठालोचन तथा अनुसंधानपरक आलोचना की समृद्ध विरासत का विस्तृत विवेचन करते हुए वे उनके महत्व और उनकी उपलब्धियों का आकलन करते हैं। वे इस बात पर चिन्ता व्यक्त करते हैं कि देश के विभिन्न हिस्सों में फैले पुस्तकालयों में आज भी हजारों बहुमूल्य पाण्डुलिपियाँ अपने उद्धार की बाट जोह रही हैं।
हिन्दी आलोचना के इतिहास में उन्होंने नामवर सिंह को ‘हिन्दी आलोचना का डिक्टेटर’ कहा है,और ‘हिन्दी में शोध का धंधा’ शीर्षक लेख में उन्होंने विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों में शोध के नाम पर हो रहे धंधे का कच्चा चिट्ठा खोला है।
इस समय ‘हिन्दी के योद्धा’ के साथ ही वे ‘हिन्दी के आलोचक’ शीर्षक से भी नियमित लिख रहे हैं। डॉ. अमरनाथ आज भी पूर्णत: सक्रिय हैं और हमें उनसे अभी बहुत उम्मीदें हैं।

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