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बूढ़ों का देश कहलाएगा भारत सिर्फ १६ साल बाद!

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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आजादी की वर्षगांठ पर स्वतंत्रता की खुशियों के साथ-साथ एक बड़ा और चिंताजनक सवाल भी दस्तक दे रहा है कि,एक तरफ हम अपनी युवा आबादी को काम नहीं दे पा रहे हैं,दूसरी तरफ भारत धीरे-धीरे बूढ़ों के देश में तब्दील होने जा रहा है। यह कोई दूर की कौड़ी नहीं है,केवल १६ साल बाद की संभावित स्थिति है। इसका मुख्य कारण यह है कि,देश में जन्म दर घट रही है,लेकिन मृत्यु दर भी कम हो रही है। यानी लोग पहले की तुलना में कहीं ज्यादा जी रहे हैं। अगर यही दौर रहा तो वर्ष २०३६ में भारत में बूढ़ों की आबादी वर्तमान की १० करोड़ से बढ़कर २३ करोड़ हो जाएगी,जो कुल जनसंख्या का १४.९ प्रतिशत होगी। जाहिर है कि,बूढ़ों की यह अनुमानित आबादी आज के उत्तर प्रदेश के बराबर होगी। ‍वरिष्ठ नागरिकों की इस आबादी की समुचित देखभाल,उनके रहने-खाने,भावनात्मक परवरिश और खासकर स्वास्थ्य सुविधाओं के बारे में देश में अभी भी ज्यादा कुछ नहीं सोचा जा रहा है,क्योंकि हम इसी बात में खुश हैं कि दुनिया में सर्वाधिक युवाओं की आबादी हमारे देश में है,पर यह नहीं समझ रहे कि यही युवा कुछ साल बाद बूढ़े चेहरों में तब्दील हो जाएंगे। ये खुलासा ‘टेक्निकल ग्रुप ऑफ पापुलेशन प्रोजेक्शन’ द्वारा हाल में जारी प्रतिवेदन(रिपोर्ट) में हुआ है। इसमें देश और राज्यों की २०११ से २०३६ तक की आबादी के संभावित आँकड़े दिए गए हैं। इसके मुताबिक हमारे देश में वर्ष २०१६ में १५ से २४ साल की उम्र वाले युवाओं की संख्या कुल आबादी का घटकर १५.१ फीसदी रह जाएगी,जो वर्ष २०११ में १९.३ प्रतिशत थी। इसी तरह कामकाजी वर्ग यानी,१५ से ५९ वर्ष तक की उम्र वालों की संख्‍या बढ़कर ६४.९ प्रतिशत होगी,जो २०११ की जनगणना में ६०.७ प्रतिशत ही थी। इसमें अनुमान लगाया गया है कि,२०११ से २०३६ तक देश की कुल आबादी १२१.१ करोड़ से बढ़कर १५२.२ करोड़ हो जाएगी। इससे देश में प्रति किमी जनसंख्या का घनत्व भी वर्तमान के ३६८ से बढ़कर ४६३ हो जाएगा।
प्रतिवेदन बताता है कि,देश में शिशु मृत्यु दर कम होगी,यह अच्छी बात है। दिक्कत यह है कि जन्म दर के साथ मृत्यु दर भी घटेगी। यानी दोनों के बीच जो प्राकृतिक संतुलन होना चाहिए,वह बिगड़ेगा। इसका असर समूची सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पर होगा। प्रतिवेदन के मुता‍बिक जन्म दर घटने से विद्यालय जाने वाली आबादी भी घटकर २०.९ करोड़ रह जाएगी,जो वर्तमान में २५.४ करोड़ बताई जाती है। इसी तरह देश की युवा आबादी अर्थात १५-२४ की उम्र वालों की संख्या देश में अगले साल यानी २०२१ तक तो बढ़ेगी,लेकिन उसके बाद घटना शुरू होगी । अभी अनुमान है कि यह आबादी अगले साल तक २५.१ करोड़ हो जाएगी,लेकिन २०३६ तक २२.९ करोड़ रह जाएगी।
यह प्रतिवेदन न सिर्फ चिंताएं बढ़ाने वाला है, बल्कि भविष्य की चुनौतियों के प्रति भी आगाह करता है। ये चुनौतियां बहुआयामी हैं, क्योंकि पहले ही देश भयंकर बेरोजगारी और आर्थिक संकटों से गुजर रहा है। अभी भी देश में सभी युवाओं को रोजगार देने की न कोई व्यवस्था है,न ही दीर्घकालिक योजना।
‘कोरोना-तालाबंदी` ने इसकी संभावना और घटा दी है। हालांकि,कुछ लोगों को भरोसा है कि कोरोना खत्म होने के बाद रोजगार का ताला भी हटेगा,लेकिन जमीनी हकीकत इस उम्मीद से मेल नहीं खाती है। हम यह भी देख रहे हैं कि,युवाओं के पास समु‍चित काम न होने से कई लोग अपराध की तरफ तेजी से मुड़ रहे हैं। आखिर जीने के लिए कुछ तो करना होगा।
आज हम यह गर्व से कहते हैं कि, दुनिया में सबसे ज्यादा युवा हमारे यहां हैं। अर्थात यह युवा ऊर्जा और उम्मीदों से भरा देश है,लेकिन क्या हम इस युवा आबादी की ऊर्जा को अपेक्षित पैमाने पर कोई रचनात्मक रूप दे पा रहे हैं ? तमाम सरकारी योजनाओं और लुभावने आँकड़ों के बावजूद इस सवाल का जवाब ना में ही होगा। प्रतिवेदन जो बताता है,उसे सही मानें तो आने वाला समय और कठिन इसलिए होने वाला है,क्योंकि देश में युवा यानी काम-काजी आबादी घटती जाएगी और गैर कामकाजी श्रेणी के वृद्‍धों की तादाद में लगातार बढ़ोतरी होगी। यह ऐसा अनुत्पादक वर्ग होगा,जिसकी देखभाल करना समाज की जिम्मेदारी होगी। हाल के वर्षों में यह दौर बढ़ा है कि सेवानिवृत्त लोगों को युवा अपने साथ रखना पसंद नहीं करते। कुछ जगह तो इन लोगों को ‘डस्टबिन’ तक कहा जाने लगा है। कई बेचारे सेवानिवृत्ति के साथ स्वयं ही वृद्धाश्रम में रहने चले जाते हैं, क्योंकि बहू-बेटे से अपमान और उपेक्षा सहने से बेहतर है कि हमउम्र बुजुर्गों के बीच रहकर किसी तरह बाकी जिंदगी का वक्त काटा जाए।
कुछ बड़े शहरों में यह चलन भी बढ़ रहा है कि वृद्ध दम्प‍ति सेवानिवृत्ति से पहले ही किसी ‘ओल्ड एज होम’ में जगह सुरक्षित करा लेते हैं और वो खुद ही परिवार से दूरी बना लेते हैं। यह कोई खुशी से शायद ही करता हो। वो लोग किस्मत वाले हैं,जिन्हें अभी भी अपने बच्चों और नाती-पोतों के साथ रहने का मौका मिल रहा है,पर २०३६ तक यह दृश्य विरल होता जाएगा।
दूसरी समस्या जन्म दर घटने के कारण युवा आबादी की कमी तथा लैंगिक विषमता और बढ़ने की है। इसका सामना देश अभी से कर रहा है। बालक-बालिका लैंगिक अनुपात में बहुत ज्यादा फर्क हो जाने से विवाह योग्य लड़कों को लड़कियां मिलना मुश्किल हो रहा है। विवाह विज्ञापन ही बता देते हैं कि स्थिति क्या है। चीन सरकार ‘एक दम्पति-एक संतान’ कानून काफी पहले लाई,जिसका उन्हें भी सही उपाय नहीं सूझ रहा है। तीसरे,जब काम-काजी आबादी घटेगी तो इसका बहुआयामी विपरीत असर देश में उत्पादन पर होगा।
हमारा देश और इसके कर्णधार इस प्रतिवेदन को कितनी गंभीरता से लेंगे,नहीं कहा जा सकता,क्योंकि आज हमारे लिए आबादी का अर्थ ‘मत’ हो गया है। दुर्भाग्य से देश में आपातकाल के दौरान जनसंख्या नियंत्रण के लिए जिस तरह कार्रवाई की गई तथा जिसका राजनीतिक खमियाजा श्रीमती इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस को भुगतना पडा,उसके बाद से कोई भी सियासी दल बढ़ती जनसंख्या पर प्रभावी नियंत्रण की बात खुलकर नहीं करना चाहती,क्योंकि वो इसे अपने-अपने बढ़ते ‘वोट बैंक’ के रूप में देखती हैं और अपना बैंक बैलेंस कौन कम करना चाहेगा ? अगर आबादी वृद्धि पर नियंत्रण के कुछ सरकारी उपाय सामने आते भी हैं तो उन्हें साम्प्रदायिक और राजनीतिक नजरिए से देखा जाता है, जबकि आबादी का राक्षस किसी को नहीं छोड़ेगा। आबादी पर नियंत्रण हो,यह अच्छी बात है,लेकिन इससे जो सामाजिक-आर्थिक सवाल पैदा होंगे, उनसे निपटने की तैयारी अभी से करना जरूरी है,वरना जनसंख्या की तेजी से भागती घड़ी का अलार्म बहुत कुछ कह रहा है।

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