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पत्तों पर पानी डालने से कुछ नहीं बदलता,जड़ों का ही काम आएगा

डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
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विश्व में जितनी संस्थाएं हिंदी की सेवा के लिए बनी हुई हैं,उतनी संस्थाएँ किसी अन्य भाषा के लिए नहीं हैं। जितने संवैधानिक प्रावधान,अधिनियम,नियम आदि और संसदीय समिति सहित तरह-तरह की समितियां,संगठन और हिंदी के विकास व प्रसार के लिए संघ सरकार और विभिन्न राज्यों में भाषा के लिए पूरे विभाग,देश के विभिन्न राज्यों में हिंदी की अकादमियाँ,भाषा के लिए इतना बड़ा ढांचा विश्व में शायद कहीं नहीं। संघ सरकार के स्तर पर,राज्य सरकारों और उनके विभिन्न संस्थानों आदि द्वारा जितने कार्यक्रम,प्रतियोगिताएँ,परिचर्चाएँ,संगोष्ठियाँ, सम्मेलन, बैठकें और नृत्य,गीत-संगीत के कार्यक्रम आदि हिंदी के लिए होते हैं,विश्व में कहीं नहीं,लेकिन इन सबके बावजूद भी आज भी देश में थोड़ा बहुत हिंदी का इस्तेमाल भले ही होता हो,लेकिन अधिकांश कार्य अंग्रेजी में ही होता है। स्वतंत्रता के समय देश की ९९ फीसदी से भी बहुत अधिक लोग मातृभाषा में ही पढ़ते थे,लेकिन अब छोटे-छोटे गाँवों तक अंग्रेजी माध्यम पसर चुका है। हिंदी को देश-विदेश में फैलाने वाली हिंदी फिल्में और धारावाहिक आदि भी अब हिंदी के चलते-फिरते जीवित शब्दों के स्थान पर जमकर अंग्रेजी के शब्दों को स्थापित कर रहे हैं। यही नहीं,अब तो अनेक समाचार-पत्र, पत्रिकाएं और चैनल आदि भी देवनागरी लिपि के स्थान पर रोमन का प्रयोग भी करने लगे हैं। विद्यालयों से हिंदी के विद्यार्थी तेजी से घटते जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी का केन्द्र माने जाने वाले राज्य में भी हिंदी में अनुत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों की संख्या बहुत बड़ी है। विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों की कमी के चलते हिंदी विभाग बंद हो रहे हैं,या विद्यार्थी जुटाने का दायित्व भी प्राध्यापकों के सिर आ पड़ा है। विदेशों में भी अनेक विश्वविद्यालयों में अब हिंदी विभाग बंद किए जा रहे हैं।
हिंदी साहित्य के नाम पर अब अधिकांश विधाएँ लुप्त होती जा रही है हैं। अगर मोटे तौर पर देखें तो हिंदी साहित्य के नाम पर अधिकांशतः कविता,तथा कविता के नाम पर अधिकांशतः हास्य कविता और हास्य कविता के नाम पर अधिकांशतः सोशल मीडिया पर चलने वाले चुटकुले और हास-परिहास। हिंदी की अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ बंद हो चुकी हैं,या बंद की कगार पर हैं। अंग्रेजी माध्यम के चलते हिंदी समाचार पत्रों की दशा भी कोई बहुत अच्छी नहीं है। हिंदीभाषियों के घरों से हिंदी समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ लुप्त होते जा रही हैं। हर तरफ चल रहा है हिंदी का खेल और हर मोर्चे पर हिंदी हो रही है असफल।
इस संबंध में कुछ बिंदुओं पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है-
-भारत के संविधान के अनुच्छेद ३४३ में हिंदी को संघ की राजभाषा (संघ की अधिकृत भाषा) का स्थान दिए जाने के बावजूद क्या संविधान,अधिनियम,नियम आदि की दृष्टि से अंग्रेजी के पास भारत की राजभाषा यानी अधिकृत भाषा के रूप में हिंदी से कम अधिकार है या अधिक ?
-वह कौन-सी भाषा है जो संघ में भी मान्य है और सभी राज्यों में भी ?
-वे कौन-कौन से अधिकार हैं जो हिंदी के पास तो हैं लेकिन अंग्रेजी के पास नहीं ?
-उच्च शिक्षा,रोजगार और संपन्नता से जुड़े सभी संसाधनों का ढलान अंग्रेजी की तरफ है या हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं की तरफ ?
-देश के विभिन्न कानूनों के अंतर्गत में कौन-कौन से कार्य हैं,जो केवल हिंदी में ही किए जा सकते हैं ?
-भारत की वह कौन-सी भाषा है जो संघ सरकार और राज्य सरकारों कम्पनियों,संगठनों व अन्य संस्थाओं आदि द्वारा पूरे देश की जनता के साथ पत्राचार सहित सभी उद्देश्यों के लिए अधिकृत पत्राचार के लिए प्रयोग में लाए जाने के लिए अधिकृत है ?
-वह कौन-सी भाषा है जिसके माध्यम से न्यायपालिका के निचले स्तर से लेकर उच्चतम स्तर तक न्याय प्राप्त किया जा सकता है ?
-क्या संघ की राजभाषा अथवा राज्यों में राज्यों की राजभाषा के माध्यम से न्यायपालिका के निचले स्तर से लेकर उच्च उच्चतम स्तर तक न्याय प्राप्त किया जा सकता है ?
-आपके घर में प्रतिदिन जो सामान आता है,उसमें ग्राहक कानूनों के अंतर्गत जो जानकारी दी जाती है, वह प्रायः किस भाषा में होती है, क्या वह हमारी भाषा में देना आवश्यक है ? क्या किसी को दिखता नहीं कि कानूनन हमें दी जाने वाली जानकारी भी हमें हमारी भाषाओं में नहीं मिलती ?
-आपका सरकारी और निजी क्षेत्र के बैंकों और बीमा कम्पनियों आदि में जाना होता ही होगा ? वहाँ कौन-सी ऐसी भाषा है जो आपको हर जगह मिलेगी ? और कौन-सी वह भाषा है जो कहीं मिलेगी,कहीं नहीं मिलेगी या ढूंढने और माँगने पर मिलेगी ? कितने लोगों को आज तक अपनी पासबुक हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषाओं में मिली है ?
-हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी हिंदी माध्यम के और अन्य राज्यों में मातृभाषा के कितने प्रतिशत विद्यालय खुले हैं ? देश में जितने भी हिंदी या भारतीय भाषाप्रेमी है,वे वर्तमान परिस्थितियों को देखकर कितने लोग अपने बच्चों या नाती पोतों को हिंदी अथवा किसी भारतीय भाषा माध्यम में पढ़ाने की सोच पाते हैं ?
मैंने केवल कुछ बिंदुओं की तरह ही ध्यान आकर्षित किया है,लेकिन अब आप पलट कर देखिए कि हिंदी को लेकर प्रतिवर्ष होने वाली हजारों वार्ताओं,सम्मेलनों,संगोष्ठियों,बैठकों ,संवादों आदि से क्या उसकी स्थिति में कोई परिवर्तन आ रहा है ? संविधान लागू होने से अब तक जो परिवर्तन आया है या आ रहा है,वह हिंदी के पक्ष में या अंग्रेजी के पक्ष में जा रहा है ?
जितने कथित प्रयास अब तक किए गए हैं,इससे तो अब तक देश में हिंदी का समुद्र भर गया होता‌। कहीं कोई दूसरी भाषा दिखती ही नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे प्रयास कुछ ऐसे हैं जैसे कि हम छलनी में पानी भर रहे हों। देश में हिंदी के नाम पर जो कानूनी ढांचा है उसमें इतने छेद हैं कि आप पानी भरते जाइए,लगे रहिए और थोड़ी देर बाद छलनी जैसी थी,वैसी ही खाली की खाली।
कहीं ऐसा तो नहीं कि संसाधनों की ढलान हिंदी अथवा भारतीय भाषाओं के पक्ष में नहीं,बल्कि अंग्रेजी की तरफ ही बनी या बनाई गई। अगर उस ढलान को ठीक नहीं करेंगे तो हम कितने भी प्रयास कर लें,प्रतिदिन लाखों संगोष्ठियाँ कर लें,लाखों लोगों को समझा लें। अंततः तो पानी ढलान की तरफ ही जाएगा। जहाँ उच्च शिक्षा,रोजगार, संपन्नता,सुविधा और न्याय आदि की सब व्यवस्थाएँ होंगी,सामाजिक प्रतिष्ठा मिलेगी। चाहे-अनचाहे सबको वहीं जाना पड़ेगा,सब वहीं जा रहे हैं। हो सकता है कुछ लोग कुछ अपवाद बता दें लेकिन अपवादों से तो सिद्धांत नहीं बदलते।
प्रतिदिन हिंदी के विकास व प्रचार-प्रसार और प्रयोग बढ़ाने को लेकर होने वाले तमाम प्रयासों को देखता हूँ। हिंदी के नाम पर बनी तमाम अकादमियाँ भी कहानी-कविता में ही व्यस्त हैं। भाषा बचे न बचे,जब तक जितनी बची है अपना काम तो चल ही रहा है,और जो लोग और संस्थाएँ हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में लगी हुई हैं, उनमें से कुछ विदेशों में हिंदी को बढ़ाने में लगी हैं। और जो प्रयास हो रहे हैं उनमें भी अक्सर इस प्रकार के सुझाव और कार्य देखने में आते हैं जैसे कि कोई पत्तों पर पानी छिड़कने की कोशिश कर रहा हो। जब तक आप वृक्षों की जड़ों में लगे रोग को दूर करने के उपाय नहीं करेंगे, अगर पानी की कमी है तो आप जड़ों को नहीं सींचेंगे तो क्या होगा ? क्या केवल पत्तों पर कुछ बूंदे छिड़कने से वृक्षों की रक्षा हो सकेगी ? जिस प्रकार के हिंदी सेवा के कथित प्रयास होते हैं उनमें से ज्यादातर से तो यह लगता है कि हम इन प्रयासों के नाम पर हम अपनी रोटियाँ सेक रहे हैं। हिंदी के खेल में सबको बड़ा मजा आ रहा है। उसमें भी कोई कठिनाई नहीं,पर यह तो देखें कि हिंदी का जहाज कहाँ जा रहा है।
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के वृक्षों की जड़ें तो भारत की भूमि में हैं। यहीं से फलीभूत हो कर कुछ टहनियां विदेशों में भी पहुंची गई हैं। क्या यह संभव है कि भारत में भारतीय भाषाओं का वृक्ष सूखता रहे और विदेशों में उसकी टहनियाँ,पत्तियाँ और फूल खिले रहें। अनेक लोगों ने भारतीय भाषाओं के लिए बहुत कुछ किया है और आज भी कर रहे हैं,लेकिन हिंदी और भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाने के लिए जिस प्रकार के प्रयास दिखाई देते हैं,उनमें प्राय: जड़ों के उपचार का कोई ठोस कार्य या विचार नहीं दिखता।
अगर हमें अपने प्रयासों का मूल्यांकन करना है तो किस रूप में करें कि हमारे प्रयासों से वह कौन-सा बड़ा परिवर्तन हुआ,जिससे अब अंग्रेजी के बजाय कोई काम हिंदी में होने लगेगा। हमारी पीढ़ी और हमसे पहले वाली पीढ़ी में मातृभाषाओं और राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी प्रेमियों की बहुत बड़ी संख्या होती थी। एक बड़ा जनसमुदाय अपनी भाषा के लिए खड़ा होता था,अपनी भाषा की माँग करता था, लेकिन शिक्षा और रोजगार की नीति में जिस प्रकार के परिवर्तन हुए,उसके चलते अब हिंदी प्रेमियों के घरों में भी अंग्रेजी के सेनानियों की फौज खड़ी हो चुकी है। अंग्रेजी माध्यम से निकली यह अंग्रेजी की इतनी बड़ी सेना व्यवस्था के हर हिस्से में अपनी गहरी पैठ बना चुकी है। अब आगे कौन लड़ेगा,कौन खड़ा होगा अपनी भाषाओं के लिए।
आज किसी बैंक,कम्पनी या कार्यालय में कोई सुविधा हिंदी या भारतीय भाषाओं में दे भी दे तो उससे क्या बदलेगा ? उसके प्रयोग में न आने से कुछ दिनों बाद फिर केवल अंग्रेजी में हो जाएगी। अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा से माँग अंग्रेजी की पैदा होगी या हिंदी की ? अगर आपने हिंदी की मांग की भी तो आप उपहास का पात्र बन कर रह जाएँगे। नक्कारखाने में आपकी आवाज तूती बन कर रह जाएगी। याद कीजिए एक हिंदी विश्वविद्यालय बनाया गया। इसलिए बनाया गया कि,वहाँ हिंदी के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी की शिक्षा दी जाए। बिना किसी दान के अच्छे पाठ्यक्रमों में दाखिला मिलने पर भी उसे कितनी सफलता मिली,हम जानते हैं। वे लाखों विद्यालय जो कल तक हिंदी माध्यम के या मातृभाषा माध्यम के विद्यालय थे,अब अंग्रेजी माध्यम में बदल चुके हैं। आप तमाम नौकरियाँ देंगे अंग्रेजी से,उच्च शिक्षा देंगे अंग्रेजी से और बात करेंगे मातृभाषा की ? क्या यह विरोधाभास नहीं ?
आपको याद है न कश्मीर में शांति लाने के लिए क्या-क्या नहीं किया गया। शांति के लिए कैसे-कैसे प्रयास नहीं किए गए। कश्मीरी युवाओं को देश भर में घुमाया जाता था। आतंकियों को भी नौकरी और धन दे कर समझाया जाता था। मुख्यधारा में लाने के लिए तमाम नाटक-नौटंकी। सद्भाव के लिए अनेक धारावाहिक और फिल्में भी बनीं,लेकिन कुछ बदला क्या ? उस सबके बावजूद लाखों हिंदुओं, सिक्खों आदि को कत्लेआम,बलात्कार आदि के माध्यम से वहां से बाहर कर दिया गया,लेकिन जब सरकार ने संविधान के अनुच्छेद ३७० और ३५ ए में परिवर्तन किया तथा अन्य नीतिगत निर्णय लिए तो सब छिपी बीमारियां सामने आने लगीं,समाधान सामने आने लगे और हालात नियंत्रण में आने लगे। यहाँ भी व्यवस्था बदलने से ही कुछ बदलेगा। केवल चर्चाओं-परिचर्चाओं, संगोष्ठियों और सम्मेलनों और छिटपुट प्रयासों से नहीं। कब तक ढलान के प्रतिकूल पानी को लाएँगे। कुछ माँगे पूरी होने से हमें खुशी तो होती है,लेकिन पत्तों पर पानी डालने से कुछ नहीं बदलता,थोड़ी-सी धूप में पत्तों का पानी उड़ जाएगा। आखिर तो जड़ों का पानी ही काम आएगा।

मुझे ऐसा लगता है कि जब तक विधि व्यवस्था और इच्छा शक्ति के माध्यम से हिंदी और भारतीय भाषाओं के लिए मौजूद छिद्र बंद नहीं होंगे,सत्ता के मिस्त्री जब तक संसाधनों की ढलान ठीक नहीं करेंगे। भारतीय भाषाओं की जड़ों में लगे रोग का सही इलाज नहीं होगा,कुछ बदलेगा,मुझे तो नहीं लगता। अगर बदलेगा भी तो वह हिंदी या भारतीय भाषाओं के पक्ष में तो नहीं होगा। ऐसे में भी हिंदी का यह खेल तो चलता रहेगा। जिस प्रकार संविधान सभा से लेकर अब तक धीरे-धीरे सावधानी से चतुराई से अंग्रेजी के लिए ढलान बनाई गई,वैसे ही हमें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए प्रयास करने होंगे। नई शिक्षा नीति के अंतर्गत अब केवल प्राथमिक शिक्षा हिंदी में दिए जाने की नीति से कोई बड़ा परिवर्तन आएगा,ऐसा तो नहीं लगता क्योंकि बाद में तो सबको अंग्रेजीदां बनना ही होगा,लेकिन अगर इतना भी हो तो भारतीय जनमानस रूपी महावृक्ष की जड़ों में कुछ बूंदें तो मातृभाषा की होंगी,कहीं बचपन के किसी कोने में कविताओं में मातृभाषा में कहीं कोयल तो कूकेगी। इससे हम कुछ तो भारतीय रह पाएँगे। क्षेत्रीय संस्कृति और देश-प्रेम को बचाने की आशा रख सकेंगे,लेकिन अब देखना यह है कि कितने राज्य अपनी मातृभाषा के माध्यम को स्वीकारेंगे और कितने ऐच्छिक बना कर इसकी हवा निकाल देंगे। अगर यह चयन शालाओं और अभिभावकों पर छोड़ दिया तो इसका हश्र क्या होगा,सबको पता है। देखिए क्या होता है। आइए तब तक हम सब मिलकर हिंदी-हिंदी खेलें।

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