अख्तर अली शाह `अनन्त`
नीमच (मध्यप्रदेश)
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सुकेशी,तेरे रुठने से,
चंचलता मेरी रूठ गई।
खुशियों का कोई रिश्ता है,
तेरे-मेरे इस बंधन में॥
देवी क्या तुझको पता नहीं,
जब मेरा मन इठलाता है।
मन तेरा भी तो साथ-साथ,
बच्चा छोटा बन जाता है।
सिर पर आकाश उठाते वे,
जब स्वर्ग धरा पर ले आते।
उन बच्चों की वो उछल-कूद,
कैसी लगती है आँगन में॥
खुशियों का कोई रिश्ता है…
परिवर्तन कितना आया है,
मन उपवन में मेरे दिलबर।
दिखती है नहीं दूर तक भी,
मुस्कान लबों की डाली पर।
मुरझाई आरजुएं रोती,
अरमान सिसकते रहते हैं।
हसरतें पात-सी जर्द हुई,
बिछ गई उदासी गुलशन में॥
खुशियों का कोई रिश्ता है…
अब तू ही बता ऐ गुलबदनी,
खुश तुझे ‘अनन्त करे कैसे।
नाचे तन मोर तृप्ति बरसे,
ख्वाबों में मन विचरे कैसे।
कैसे टूटे ये मौन बता,
कैसे चहके मन कोयलिया।
कैसे गुल खिलें महक बिखरे,
इस रिश्ते के अपनेपन में॥
खुशियों का कोई रिश्ता है…