कुल पृष्ठ दर्शन : 269

You are currently viewing कर्म कर पाओ हर्ष

कर्म कर पाओ हर्ष

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
**************************************************

कर्म के वश में ही यह जीवन है। जिसका जैसा कर्म रहता है,फल भी उसे वैसा ही मिलता है। यजुर्वेद का यह मंत्र एक सूत्र निर्धारित करता है-
‘कूर्वन्नेह कर्माणि जिजीविशेच्छतं समा:।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरेll ‘(४०/२)

`यदि जीना चाहो सौ वर्ष,कर्मकर पाओ हर्ष।
इसके सिवा न कोई विमर्श,कर्म न लिपटता,मनुज उत्कर्षll’
आर्ष-ग्रंथ वेद,उपनिषद्,श्रीमद्भगवद्गीता में सर्वत्र कर्म की महत्ता दर्शाई गई है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी कर्म के महत्व को यों दर्शाया गया है:
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्व कर्मणिll((२/४७

अर्थात्,तेरा कर्म करने में ही अधिकार है,उसके फल में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म करने में आसक्ति न हो।' गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस में भी कर्म की महत्ता को इसी भांति दर्शाया गया हैः 'कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करहिं सो तस फल चाखाll

तो आईए देखें कि कर्म क्या है ?
कर्म माने क्रिया होता है। हम लोग जो भी काम करते हैं,जैसे-खाना-पीना,नहाना-धोना,चलना-फिरना,सेवाकार्य करना,व्यवसाय करना,सोचना-न सोचना,जीना-मरना इत्यादि तमाम शारीरिक और मानसिक कार्य को कर्म कहते हैं। मानव जीवन से संबंधित कर्म के ३ भाग हैं-

क्रियामाण कर्म– आदमी दिन-रात में जो कर्म करता है,वह क्रियामाण कर्म कहलाता है। तमाम क्रियामाण कर्म फल देते हैं और उसके फल को भुगतने से वे शांत होते हैं।
संचित कर्म-कुछ क्रियामाण कर्म ऐसे होते हैं जो कर्म करने के साथ ही तत्काल फल नहीं देते। जब तक वे फल नहीं देते,तब तक जमा रहते हैं। इसे ही संचित कर्म कहा जाता है।
प्रारब्ध कर्म-संचित कर्म पक कर फल देने के लिए जब तैयार हो जाते हैं,तो उसको प्रारब्ध कर्म कहा जाता है।
प्रारब्ध कर्म भोगने के अनुरूप देह,आरोग्य, स्त्री-पुत्रादिक,सुख-दु:ख आदि उस जीवनकाल के दरम्यान जीव को आकार मिल जाते हैं। उस प्रारब्ध कर्म को पूरे ढंग से भोगने के बिना देह का छुटकारा हो नहीं सकता।

शास्त्रों में विहित है कि,मनुष्य-जीवन के ४ पुरुषार्थ होते हैं-धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष।
धर्म और मोक्ष के लिए मनुष्य को सतत पुरुषार्थ करना चाहिए और अर्थ तथा काम प्राप्त करने के लिए उसे प्रारब्ध पर छोड़ देना चाहिए।

महाभारत में महर्षि व्यास ने कहा है-
‘उर्ध्ववाहु विरोम्येष न च कश्चितच्छृणोति मे।
धर्मादर्यश्च कामस्च स किमर्थं न सेकन्याकुमारीव्यतेll’
अर्थात्,’दोनों हाथ उँचा करके मैं सारे जगत् को चेतावनी दे रहा हूँ,किन्तु कोई सुनता ही नहीं। धर्म से ही अर्थ और काम की प्राप्ति होती है,तो उस धर्म का सेवन क्यों नहीं करते हो!’

प्रारब्ध और पुरुषार्थ एक दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैंl
सच पूछा जाए तो पुरुषार्थ ही समय पाकर प्रारब्ध बन जाता है,इसीलिए प्रारब्ध और पुरुषार्थ दोनों एक ही हैं;और उन दोनों के कार्य-क्षेत्र अलग-अलग होने से वे एक-दूसरे के चक्कर में भी आते नहीं। प्रारब्ध वर्तमान शरीर को भले प्रदान करता हो,जबकि पुरुषार्थ भविष्य की सृष्टि को तैयार करता है,जिससे कालान्तर में वही पुरुषार्थ प्रारब्ध बनकर भविष्य में शरीर को भोग प्रदान करेगा।

मोक्ष के बारे में ऋषियों के विचार हैं कि मनुष्य मात्र देह के बंधनों से छूटकर परब्रह्म में लीन होने की इच्छा करे तो वह समर्थ है और स्वतंत्र भी,क्योंकि वह परात्पर ब्रह्म का ही अंश है,लेकिन जब तक वह इस जन्म के संपूर्ण प्रारब्ध भोग नहीं लेगा और जमा हुए असंख्य संचित कर्म के ढेर साफ नहीं करेगा,भस्म नहीं करेगा,तब तक उसको मोक्ष मिल ही नहीं सकता। इसलिए जीवनकाल के दरम्यान कोई क्रियामाण कर्म इस तरह कुशलतापूर्वक करे, जिससे वह कर्म कदापि संचित में जमा नहीं होने पाएl

रामचरितमानस में गुरु वशिष्ठ कहते हैं-

“सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहहु मुनिनाथ,
‘हानि-लाभ जीवन-मरण, जस-अपजस विधि हाथ।’
प्रारब्ध में जो हानि-लाभ,जीवन-मरण,जस-अपजस निश्चित हुए हैं,उन्हें कोई भी मिथ्या नहीं कर सकता।
क्रियामाण कर्म को नियंत्रण करने में निष्काम कर्मयोग मदद करता है।

सारांश में देखें तो लोगों की धारणा यों है-किए हुए कर्म भोगने ही पड़ते हैंl कर्मफल देकर ही शांत होता हैl प्रारब्ध में जो होगा,उतना ही मिलेगाl आदमी को फिर भी पुरूषार्थ करना चाहिए।

सेवा-निवृत्ति के बाद कुछ लोग कहते मिलते हैं कि बहुत काम कर लिया,अब आगे काम करने की क्या जरूरत है ? उसी तरह जिनकी स्वेच्छा सेवा-निवृत्त होने की रहती है,उनके लिए भी कर्म की प्रधानता ही दिशा-निर्देश हो सकती है-
कर्म करते ही रहना चाहिए,सौ वर्ष जीने की यदि चाह।
इसे छोड़ दूसरा तुम हित नहीं,कर्म न लिपटता नर की बाँहll
(संदर्भःकर्म का सिद्धान्त-हीराबाई ठक्कर,गुजराती से हिन्दी अनुवाद-स्वामी सच्चिदानन्द)

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

Leave a Reply