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कोरोना:आम आदमी और करूणा…

तारकेश कुमार ओझा
खड़गपुर(प. बंगाल )

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भयावह रोग `कोरोना` से मैं भी बुरी तरह डरा हुआ हूँ,लेकिन भला कर भी क्या सकता हूँ! क्या घर से निकले बगैर मेरा काम चल सकता है! क्या मैं बवंडर थमने तक घर पर आराम कर सकता हूँ…,जैसा समाज के स्रभांत लोग कर रहे हैं। जीविकोपार्जन की कश्मकश के दौरान क्या मैं भीड़-भाड़ वाली जगहों पर जाने से बच सकता हूँ! क्या मैं हर समय मुखौटा(मास्क)पहने रह सकता हूँ! किसी से यह कहते हुए हाथ मिलाने से इन्कार कर सकता हूँ कि-भैया `कोरोना` का डर है… हाथ नहीं मिलाऊंगा… हाथ जोड़ कर नमस्ते करुंगा।` जिंदगी की जद्दोजहद में जुटे रहने के दौरान क्या बार-बार साबुन से हाथ धोने का विकल्प मुझे उपलब्ध हो सकता है! अपने दायरे में लोगों से १ मीटर की दूरी बरत सकता हूँ! शायद सारे सवालों का जवाब नहीं है। कोरोना वायरस को ले मची आपा-धापी से जुड़े घटनाक्रम हम जैसों के लिए परी कथा की तरह हैं,क्योंकि चैनलों पर सुबह-शाम देख रहा हूँ कि कोरोना के डर के चलते विद्यालय-महाविद्यालय,सभा-
समारोह,मॉल,अदालत पखवाड़े भर से भी अधिक समय के लिए बंद कर दिए गए हैं। यानि कोरोना के मामले में भी कुदरत की कृपा पहले से सुख-चैन की बंसी बजा रहे लोगों पर ही बरस रही है। तेल से लबालब सिर पर ही और तेल उड़ेला जा रहा है। महीने के पंद्रह दिन आराम करने वालों के लिए और आराम का जुगाड़ किया जा रहा है,दूसरी तरफ जिंदगी की दौड़ में सुबह घर से निकलते ही सड़कों पर बड़ी संख्या में कमजोर तबके के लोगों पर नजर जाती है, जिनके लिए इस `महामारी कोरोना` का कोई मतलब नहीं है। हाड़-तोड़ मेहनत के बगैर उनका पेट भरना मुश्किल है। कोरोना के कहर पर रोशनी डालते समय कोई यह नहीं बताता कि,समाज के निर्धनतम लोगों के लिए कोरोना से बचने के क्या उपाय हैं। उनके लिए सरकार की ओर से क्या घोषणाएं की जा रही है। गाँवों में हैंड वॉश से हाथ धोना तो दूर,पीने के पानी की भी किल्लत रहती है। हम जैसों के लिए ना तो बार-बार हैंड वॉश से हाथ धोना संभव है,और ना सर्दी-बुखार होते ही आराम। चैनलों पर दिखने वाली अस्पतालों की चाक-चौबंद व्यवस्था असल में दिखावटी है। हकीकत में अभी भी अस्पतालों में सामान्य लोगों को पूछने वाला कोई नहीं है,कोरोना चाहे जितना कहर बरपा लेl हाल में एक अस्पताल गया,तो वहां हर कोई मुखौटा पहने नजर आया। पूछने पर बताया गया कि,वहां एक प्रसिद्ध चिकित्सक मरीज देखने आते हैं। उनके कक्ष में बैठने का निर्धारित समय २ घंटे है,लेकिन उनके कक्ष में प्रवेश से पहले ही ८० से १०० मरीज चिकित्सालय के आस-पास जमा हो जाते हैं। अब सोचने वाली बात है कि २ घंटे में `चिकित्सक साहब` भला इतने मरीजों को कैसे देखते होंगे ? इस आलम में स्पष्ट है कि कोरोना वायरस सचमुच में दुनिया को गाँव तो बना सकता है,समाज का संभ्रांत और ताकतवर तबका इससे मजे भी कर सकता है,लेकिन इससे गरीबों की स्थिति जस की तस ही रहने वाली है। हाँ,इस खेमे के लोग कोरोना के मुद्दे पर चौक-चौराहों पर हँसी-ठिठोली और तर्क-वितर्क जरूर कर सकते हैं। या फिर इसके विभिन्न पहलुओं पर ज्ञान पेल कर अपने दायरे में भौंकाल भर सकते हैं। जैसे कोरोना और करुणा शब्द में बस सामान्य फर्क है,लेकिन दोनों के अर्थ विरोधाभासी हैं। उसी तरह गंभीर महामारी के भी समाज के अलग-अलग तबके के लिए भिन्न मायने हैं।

परिचय-तारकेश कुमार ओझा का नाम खड़गपुर में वरिष्ठ पत्रकार के रुप में जाना जाता है। आपका निवास पश्चिम बंगाल के खड़गपुर स्थित भगवानपुर (जिला पश्चिम मेदिनीपुर) में है। आपकी लेखन विधा अनुभव आधारित लेख,संस्मरण और सामान्य आलेख है।श्री ओझा का जन्म स्थान प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) हैl पश्चिम बंगाल निवासी श्री ओझा की शिक्षा बी.कॉम. हैl कार्यक्षेत्र में आप पत्रकारिता में होकर उप सम्पादक हैंl आपको मटुकधारी सिंह हिंदी पत्रकारिता पुरस्कार तथा श्रीमती लीलादेवी पुरस्कार के साथ ही बेस्ट ब्लॉगर के भी कई सम्मान मिल चुके हैंl आप ब्लॉग पर भी लिखते हैंl  

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