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चलो लगाएँ वृक्ष हम

डॉ.राम कुमार झा ‘निकुंज’
बेंगलुरु (कर्नाटक)

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खुद जीवन का रिपु मनुज,खड़े मौत आगाज।
बिन मौसम छायी घटा,वायु प्रदूषित आज॥

भागमभागी जिंदगी,बढ़ते चाहत बोझ।
सड़क सिसकती जिंदगी,वाहन बढ़ते रोज॥

चकाचौंध उद्यौगिकी,नभ में फैला धूम।
जले पराली खेत में,मौत प्रदूषण चूम॥

चहुँदिक् है फैला तिमिर,भेद मिटा निशि रैन।
नैन प्रदूषित जल रहा,सुप्त प्रशासन चैन॥

हृदय रोग अवसाद बन,दृष्टि दोष फैलाव।
बढ़ी चिकित्सा गेह में,रोगी भीड़ जमाव॥

गज़ब प्रदूषण कालिमा,कामगार बन मीत।
हों प्रदूषित बालपन,कर्मपथी निर्भीत॥

निर्माणक नवराष्ट्र का,बनें सबल नीरोग।
भूकम्पन प्लावन सलिल,शीतातप दुर्योग॥

स्वार्थ कपट मदमत्त हो,झूठ शलाका चित्त।
नफ़रत निंदा नित व्यसन,करे लूट की वृत्त॥

अन्तर्वेदित लालची,कटे नदी नित वृक्ष।
जल निकुंज सुषमा विरत,प्रकृति अरु अंतरिक्ष॥

प्राणवायु अत्यल्प भुवि,धूम फ़ैल आकाश।
ग्रसित सूर्य शशि लापता,मृत्यु करे उपहास॥

तज विवेक नित सोच को,भ्रष्ट प्रदूषक तन्त्र।
भोग विलासी सम्पदा,रच नेता षड्यंत्र॥

लक्ष-लक्ष चल गाड़ियाँ,रात्रि दिवस विष छोड़।
हृदय घात अवसान पत्र,मनुज लगाता दौड़॥

कवि ‘निकुंज’ अन्तर्व्यथित,ज़हरीला ले श्वाँस।
रोग शोक मद नित मना,ज़ख्मी दिल्ली वास॥

चेतो,अब भी वक्त है,नेतागिरि तज स्वार्थ।
कर उपाय विध्वंस विष,जीओ जग परमार्थ॥

चलें प्रदूषण हम मिटा,प्रजा संग सरकार।
वृक्षारोपण हम करें,स्वच्छ धरा आधार॥

स्वयं सजग जन जागरण,कर प्रदोष उपचार।
पुनः सजाएँ हम प्रकृति,जो जीवन आधार॥

कुदरत का अद्भुत सृजन,भू जलाग्नि नभ वात।
वृक्षारोपण हो धरा,जीवन नया प्रभात॥

संजय सम मानुष जहाँ,जाग्रत सुमति सुजान।
वृक्षारोपण स्वच्छता,कर जीवन दो दान॥

बचे प्रकृति पर्यावरण,वृक्षारोपण कार्य।
स्वच्छ चित्त सत्काम हो,मानवता अनिवार्य॥

चलो लगाएँ वृक्ष हम,हो जीवन कल्याण।
हरित भरित धरती पुनः,ऑक्सीजन निर्माण॥

सुरभित कुसमित हो प्रकृति,निर्मल हो नीलाभ।
वन पादप फिर हरितिमा,नव जीवन अरुणाभ॥

चलो बचाएँ जिंदगी,तरु रोपण अभियान।
बचें ‘कोरोना’ प्रलय से,खिले फूल मुस्कान॥

पर्वत वन-पादप हरित,सरिता अविरल धार।
वृक्ष लगा फिर से प्रकृति,करें मुदित संसार॥

बनें स्वच्छ पर्यावरण,निर्मल हो परिवेश।
हो नीरोग जन देश का,सुखद शान्ति संदेश॥

बने मीत निज जिंदगी,गढ़ें चारु संसार।
सप्त सरित पावन धरा,प्रगति सिन्धु आचार॥

परिचय-डॉ.राम कुमार झा का साहित्यिक उपनाम ‘निकुंज’ है। १४ जुलाई १९६६ को दरभंगा में जन्मे डॉ. झा का वर्तमान निवास बेंगलुरु (कर्नाटक)में,जबकि स्थाई पता-दिल्ली स्थित एन.सी.आर.(गाज़ियाबाद)है। हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेजी,मैथिली,बंगला, नेपाली,असमिया,भोजपुरी एवं डोगरी आदि भाषाओं का ज्ञान रखने वाले श्री झा का संबंध शहर लोनी(गाजि़याबाद उत्तर प्रदेश)से है। शिक्षा एम.ए.(हिन्दी, संस्कृत,इतिहास),बी.एड.,एल.एल.बी., पीएच-डी. और जे.आर.एफ. है। आपका कार्यक्षेत्र-वरिष्ठ अध्यापक (मल्लेश्वरम्,बेंगलूरु) का है। सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत आप हिंंदी भाषा के प्रसार-प्रचार में ५० से अधिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़कर सक्रिय हैं। लेखन विधा-मुक्तक,छन्दबद्ध काव्य,कथा,गीत,लेख ,ग़ज़ल और समालोचना है। प्रकाशन में डॉ.झा के खाते में काव्य संग्रह,दोहा मुक्तावली,कराहती संवेदनाएँ(शीघ्र ही)प्रस्तावित हैं,तो संस्कृत में महाभारते अंतर्राष्ट्रीय-सम्बन्धः कूटनीतिश्च(समालोचनात्मक ग्रन्थ) एवं सूक्ति-नवनीतम् भी आने वाली है। विभिन्न अखबारों में भी आपकी रचनाएँ प्रकाशित हैं। विशेष उपलब्धि-साहित्यिक संस्था का व्यवस्थापक सदस्य,मानद कवि से अलंकृत और एक संस्था का पूर्व महासचिव होना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-हिन्दी साहित्य का विशेषकर अहिन्दी भाषा भाषियों में लेखन माध्यम से प्रचार-प्रसार सह सेवा करना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ है। प्रेरणा पुंज- वैयाकरण झा(सह कवि स्व.पं. शिवशंकर झा)और डॉ.भगवतीचरण मिश्र है। आपकी विशेषज्ञता दोहा लेखन,मुक्तक काव्य और समालोचन सह रंगकर्मी की है। देश और हिन्दी भाषा के प्रति आपके विचार(दोहा)-
स्वभाषा सम्मान बढ़े,देश-भक्ति अभिमान।
जिसने दी है जिंदगी,बढ़ा शान दूँ जान॥ 
ऋण चुका मैं धन्य बनूँ,जो दी भाषा ज्ञान।
हिन्दी मेरी रूह है,जो भारत पहचान॥

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